ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान का ट्रेलर देख कर ही लग रहा था कि फिल्म में दम नहीं है, लेकिन लिफाफा देख कर खत का अंदाजा लगाना सही नहीं है। फिर आमिर खान, अमिताभ बच्चन और आदित्य चोपड़ा जैसे लोगों पर भी भरोसा था क्योंकि ये कई बढ़िया फिल्म दे चुके हैं। दूसरी ओर निर्देशक के रूप में विजय कृष्ण आचार्य का नाम भी डरा रहा था क्योंकि वे 'टशन' जैसी बकवास फिल्म दे चुके हैं। आखिरकार आशंका सच साबित हुई और 'ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान' दिवाली का फुस्सी बम साबित हुई।
223 साल पुरानी कहानी को दिखाया गया है जब अंग्रेज व्यवसाय की आड़ में हुकूमत करने आए थे और भारत में पैर पसारे जा रहे थे। रौनकपुर के राजा को क्लाइव (लॉयड ओवेन) धोखे से मार डालता है। राजा साहब का खास खुदाबक्श (अमिताभ बच्चन) राजा की बेटी जाफिरा (फातिमा सना शेख) को बचा लेता है। जाफिरा का घाव
हमेशा हरा रहता है और 'बाप का बदला' लेने के लिए वह क्लाइव को मारना चाहती है। खुदाबक्श को पकड़ने के लिए अंग्रेज फिरंगी मल्लाह (आमिर खान) की मदद लेते हैं जिसका स्वभाव ही धोखा देना है। इसके बाद क्या होता है इसके लिए आपको ज्यादा दिमाग नहीं खर्च करना पड़ेगा।
फिल्म की शुरुआत बहुत अच्छी है। आधा घंटे तक फिल्म पकड़ बनाए रखती है। अमिताभ बच्चन, आमिर खान और कैटरीना कैफ की एंट्री वाले सीन बेहतरीन हैं। अमिताभ अपने एक्शन से प्रभावित करते हैं, आमिर अपने गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले किरदार और कैटरीना अपनी हॉटनेस से।
यहां तक फिल्म अपनी भव्यता से और तकनीकी जादूगरी से प्रभावित करती है, लेकिन कुछ देर बाद कहानी अपना प्रभाव खोने लगती है और इससे इन बातों का महत्व फीका पड़ने लगता है। अचानक फिल्म धड़ाम हो जाती है। सरपट दौड़ती ट्रेन पटरी से उतर जाती है। बेसिर-पैर बातें घुस आती हैं। ऐसा लगता है मानो अचानक गुब्बारे की हवा निकल गई हो।
लॉजिक की बात ही नहीं करे तो अच्छा है। इतिहास और भूगोल का कोई ध्यान नहीं रखा गया है। कभी उत्तर प्रदेश की बात होती है तो कभी समुंदर नजर आता है। भाषा की भी गड़बड़ी होती रहती है। कलाकारों की ड्रेस और मेकअप आज के दौर का लगता है।
स्क्रीनप्ले में भी कई खामियां हैं। खुदाबक्श की फौज में घुस कर फिरंगी अंग्रेजों को उसका पता बता देता है। अंग्रेज हमला करने आते हैं तो वह खुदाबक्श की ओर से लड़कर खास अंग्रेज ऑफिसर को छोड़ देता है। खुदाबक्श के लोग इतने अनाड़ी हैं कि वे यह बात भी नहीं समझ पाते कि अब अंग्रेज उन्हें पकड़ने के लिए फिर आ सकते हैं।
स्क्रीनप्ले अपनी सहूलियत के हिसाब से लिखा गया है। फिरंगी जो चाहे वो कर सकता है। खुदाबक्श को जेल से छुड़ाने के लिए वह सैनिकों को बेहोश करने वाले लड्डू खिला देता है (मनोज कुमार की फिल्म 'क्रांति' में चने खिलाए गए थे), फिरंगी को अंग्रेज पकड़ना चाहते हैं तो वह खुद उनके सामने जाकर डांस करने लगता है, ऐसी तमाम बातें फिल्म में नजर आती हैं जिस पर हैरत होती है कि क्या सोच कर यह फिल्म लिखी गई है।
लेखक के रूप में निराश करने वाले विजय कृष्ण आचार्य को विश्वास था कि वे अपने प्रस्तुतिकरण के बल पर फिल्म की कमियों को छिपा लेंगे, लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए। 1795 के दौर को उन्होंने 2018 की तकनीक के साथ पेश किया, फिल्म की गति तेज रखी, फिल्म को अद्भुत तरीके से शूट किया, लेकिन वे दर्शकों को बांध नहीं पाए। इस बात पर कोई शक नहीं कि विजय तकनीकी रूप से बेहतरीन निर्देशक हैं, लेकिन फिल्म की रीढ़ कहानी और स्क्रीनप्ले होता है जिस पर वे ध्यान कम देते हैं।
फिल्म में कुछ अच्छे सीन हैं, खासतौर पर आमिर खान के हास्य दृश्य, कुछ अच्छे संवाद भी हैं, लेकिन यह एक इतनी महंगी फिल्म के लिए काफी नहीं हैं।
ग्राफिक्स और वीएफएक्स ठीक हैं, एक्शन सीन आउटडेटेड हैं और जिन उतार-चढ़ाव से दर्शकों को चौंकाने की कोशिश की गई है, उनके बारे में दर्शक पहले ही अंदाजा लगा लेते हैं।
अमिताभ बच्चन को कम संवाद दिए गए हैं और उनके कद के अभिनेता से फिल्म न्याय नहीं कर पाती। आमिर खान ने 'अंदाज अपना अपना' वाला अंदाज अपने किरदार के लिए अपनाया है। कुछ सीन उन्होंने अपनी एक्टिंग के बूते पर मजेदार बनाए हैं, लेकिन उनका अवधी एक्सेंट फेक लगता है।
कैटरीना कैफ बेहद हॉट लगी हैं, लेकिन उनके नाम पर दर्शकों को ठगा गया है। वे महज दो गानों और दो दृश्यों में नजर आती हैं। हालांकि दोनों गानों में उनका डांस लाजवाब है। कठिन स्टेप्स को उन्होंने बेहद आसानी से निभाया है। फातिमा सना शेख ने जम कर ओवर एक्टिंग की है। रोनित रॉय, मोहम्मद जीशान अय्यूब और लॉयड ओवेन प्रभावित नहीं कर पाते।
तकनीकी रूप से फिल्म बढ़िया है। मनुष नंदन की सिनेमाटोग्राफी अंतरराष्ट्रीय स्तर की है और आंखों को सुकून देती है। उन्होंने एक्शन सीन और गानों को बेहतरीन तरीके से शूट किया है। फिल्म की एडिटिंग बेहतरीन है। जॉन स्टीवर्ट एडूरी का बैकग्राउंड म्युजिक फिल्म को भव्यता प्रदान करता है। 'सुरैया' और 'मंजूर-ए-खुदा' की कोरियोग्राफी देखने लायक है।
निर्देशक और लेखक के रूप में विजय कृष्ण आचार्य को सब कुछ मिला- करोड़ों रुपया, शानदार कलाकार, टेक्नीकल सपोर्ट, लेकिन वे ढंग की फिल्म नहीं बना पाए। 'ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान' देखने के बाद दर्शक खुद को ठगा महसूस करते हैं।