आमतौर पर लोग पाकिस्तानी टीवी धारावाहिकों या शो को पसंद करते हैं, लेकिन पाकिस्तानी फिल्मों के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती। पाकिस्तानी फिल्मों का स्तर बॉलीवुड की फिल्मों के मुकाबले बहुत नीचा है, लेकिन ‘खुदा के लिए’ अपवाद है। यह फिल्म पाकिस्तान के आधुनिक और पढ़े-लिखे लोगों की स्थिति बयाँ करती है।
असल में इस वर्ग को अपने ही धर्म के कट्टरपंथियों के गुस्से का शिकार होना पड़ता है। साथ ही 9/11 की घटना के बाद विदेशी लोग भी मुस्लिम लोगों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं।
फिल्म में कहानी दो भाइयों के जरिए दिखाई गई है। मंसूर और उसके छोटे भाई को संगीत का शौक है। छोटे भाई की मुलाकात एक कट्टरपंथी मौलाना से होती है और वह उनके विचारों से बेहद प्रभावित होकर संगीत का अभ्यास छोड़ देता है।
बड़ा भाई संगीत की पढ़ाई के लिए अमेरिका चला जाता है। जहाँ वह एक अमेरिकी लड़की से शादी कर लेता है। फिल्म में दोनों भाइयों की कहानी साथ-साथ चलती है। फिल्म मुद्दे पर आने में थोड़ा समय लेती है, लेकिन फिर रुकती नहीं है।
यह फिल्म उन लोगों के लिए है जो फिल्म के बारे में गंभीरता से सोचते हैं और वाद-विवाद करते हैं। उन लोगों के लिए नहीं है जो मनोरंजन की तलाश में फिल्म देखने आते हैं।
निर्देशक शोएब मंसूर एक अच्छे तकनीशियन नहीं हैं, लेकिन अपनी बात को उन्होंने उम्दा तरीके से रखा है। फिल्म की कहानी सशक्त है, लेकिन तकनीकी रूप से फिल्म कमजोर है।
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पटकथा में कई खामियाँ हैं और संपादन बेहद ढीला है। शान और इमाद अली का अभिनय ठीक है। नसीरुद्दीन शाह का अभिनय हमेशा की तरह शानदार है। कुल मिलाकर ‘खुदा के लिए’ को सराहना जरूर मिलेगी, लेकिन दर्शक बहुत कम मिलेंगे।