महत्वपूर्ण रक्षा समझौतों पर होती निंद्य राजनीति

शरद सिंगी
पिछले दिनों दिल्ली में अमेरिकी प्रतिबंधों की परवाह न करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एस-400 मिसाइल रक्षा प्रणाली के 5 अरब डॉलर (39,000 करोड़ रुपयों) के सौदे की घोषणा कर डाली। चीन ने भी रूस से यही प्रणाली खरीदी है। चीन की नीयत को देखते हुए भारत के लिए अपनी रक्षा क्षमताओं को बढ़ाना अनिवार्य था- विशेष रूप से पाकिस्तान और चीन के साथ संभावित दो मोर्चे पर एकसाथ संघर्ष को देखते हुए।
 
 
यद्यपि सौदे से पूर्व अमेरिका ने चेतावनी देते हुए कहा था कि यदि यह समझौता होता है तो भारत पर भी प्रतिबंध चस्पा किए जा सकते हैं। 2014 में जब रूस ने यूक्रेन देश के एक प्रांत क्रीमिया पर कब्जा किया था तबसे अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के साथ रूस के संबंध तनावग्रस्त हो गए हैं।
 
रूस पर कई तरह के प्रतिबंध चस्पा कर दिए गए हैं जिनकी वजह से वह अपने हथियारों की बिक्री नहीं कर सकता। यदि करता है तो खरीददार देश पर भी प्रतिबंधों की तलवार लटक जाएगी। 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में राष्ट्रपति ट्रंप के साथियों के साथ रूस की सांठगांठ को लेकर भी दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ गया है। किंतु जाहिर है दिल्ली दबाव में नहीं आई, क्योंकि भारत का मानना है कि अपने रणनीतिक और प्रतिरक्षा हितों को प्राथमिकता देना उसका अधिकार है।
 
पाठकों को बता दें कि भारत को किसी देश पर आक्रमण करने के लिए राफेल विमानों की तथा दुश्मनों से अपने देश के आकाश की रक्षा करने के लिए मिसाइल रक्षा प्रणाली का होना समय की मांग थी। एक अनुमान के अनुसार चीन और पाकिस्तान दोनों के साथ युद्ध की स्थिति में वायुसेना के 42 स्क्वॉड्रनों की आवश्यकता होगी किंतु पिछली सरकारों के अनिर्णय से लंबित इन सौदों के कारण भारत की वायुसेना की स्क्वॉड्रन शक्ति घटकर 31 हो गई है इसलिए सेना के अनुसार भारत की प्रतिरक्षा के लिए ये दोनों सौदे अत्यंत आवश्यक और महत्वपूर्ण थे।
 
इतनी महत्वपूर्ण रक्षा प्रणाली पर यदि भारत सरकार ने इस सदी का इतना बड़ा समझौता किया है तो निश्चित ही आपको इस प्रणाली के बारे में जानना रोचक होगा। रूस द्वारा विकसित एस-400 पृथ्वी की सतह से हवा में मार करने वाली दुनिया में सबसे परिष्कृत रक्षा प्रणालियों में से एक है। 400 किमी की दूरी तक 80 लक्ष्यों को एकसाथ भेदने की इसकी क्षमता है। प्रत्येक लक्ष्य पर दो मिसाइलें एकसाथ दागी जाएंगी। यह प्रणाली चार चरणों में अपना काम पूरा करती है। पहले चरण में इसमें लगे लंबी दूरी के राडार, अपनी ओर आ रहे लड़ाकू विमान के मार्ग और गति का आकलन कर उस वाहन को सूचना देता है, जो नियंत्रण कक्ष का काम करता है।
 
दूसरे चरण में नियंत्रण कक्ष, लक्ष्य की पहचान कर मिसाइल उड़ाने का आदेश देना होता है। किंतु पहले वह विभिन्न स्थानों पर खड़े मिसाइल प्रक्षेपित करने वाले वाहनों में कौन सा वाहन सबसे उपयुक्त स्थिति में है, इसका विश्लेषण और चुनाव करता है और फिर उस वाहन को लक्ष्य भेदने के लिए मिसाइल उड़ाने का आदेश दे देता है। मिसाइल वाले वाहन के साथ एक और वाहन होता है जिस पर राडार लगा होता है। यह राडार मिसाइल को अपने लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए उसका मार्गदर्शन करता है। इस तरह यह एक बहुत ही मजबूत प्रणाली है जिस पर कोई भी सेना आश्वस्त रह सकती है।
 
जैसा कि हम जानते हैं कि भारतीय सेना विश्व की श्रेष्ठतम सेनाओं में से एक है किंतु आधुनिक हथियारों की कमी उसकी मारक क्षमता को कमजोर कर रही थी और पाकिस्तान जैसे राष्ट्र भी गुर्राने से नहीं बाज आते हैं। अब प्रश्न उठता है कि क्या अमेरिका, भारत पर प्रतिबंध चस्पा करेगा? कानून के अनुसार तो अमेरिकी प्रशासन को यह करना होगा किंतु भारत जानता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पास विशेष परिस्थिति में कुछ देशों को इस कानून से छूट प्रदान करने की शक्ति भी है। भारत यही उम्मीद कर रहा है कि ट्रंप के 'सौजन्य' से छूट मिल जाएगी।
 
इन सबके बीच जो एक बात सभी देशवासियों को खलती है, वह यह है कि भारत ने परमाणु तकनीक और अंतरिक्ष उड़ानों की क्षेत्र में तो महत्वपूर्ण प्रगति की है किंतु आधुनिक हथियार बनाने में वह अभी भी महाशक्तियों से बहुत पीछे है। इस क्षेत्र में भारत को अब तेजी से आगे बढ़ने की दरकार है। उम्मीद तो यही करें कि राफेल लड़ाकू विमान और एस-400 के ये सौदे अंतिम हों और आने वाले दिनों में भारत अपनी जरूरत के रक्षा उपकरणों में आत्मनिर्भर हो जाए। तब न तो किसी को पुचकारने की आवश्यकता होगी और न ही किन्हीं प्रतिबंधों का भय। अपने आप में सक्षम होना सभी मर्जों का इलाज है।
 
फिलहाल इन दोनों सौदों ने हमें कुछ समय जरूर दे दिया है और उम्मीद करें कि हमारे रक्षा अनुसंधान संस्थान बिना और अधिक समय जाया किए आधुनिक तकनीक के रक्षा उपकरणों को बनाने में जुट जाएंगे। हमारे पाठक इस आलेख को पढ़कर इन रक्षा सौदों की गंभीरता से परिचित हो गए होंगे।
 
सुरक्षा संबंधी ये सौदे अत्यधिक गोपनीयता की दरकार रखते हैं किंतु दुर्भाग्य की बात यह है कि श्रेष्ठ मंतव्य से किए हुए इन सरकारी सौदों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भरे बाजार उछाला जाता है। सेना छोड़िए, देश का हर समझदार व्यक्ति समझता है कि यह देश की सुरक्षा के लिए घातक है किंतु राजनीति में देश के हित कोई देखता है क्या?

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