दिवाली के बाद कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा पर उत्तर भारत में मनाया जाने वाला गोवर्धन पूजा धूमधाम से मनाया जा रहा है। इसमें हिन्दू धर्मावलंबी घर के आंगन में गाय के गोबर से गोवर्धन नाथ जी की अल्पना बनाकर उनका पूजन करते है। तत्पश्चात ब्रज के साक्षात देवता माने जाने वाले गिरिराज भगवान (पर्वत) को प्रसन्न करने के लिए उन्हें अन्नकूट का भोग लगाया जाता है।
इस संबंध में वृंदावन शोध संस्थान के पूर्व शोधाधिकारी एवं निबार्ककोट मंदिर के प्रबंधक वृन्दावन बिहारी ने बताया कि यह परंपरा द्वापर युग से चली आ रही है। उससे पूर्व ब्रज में भी इंद्र की पूजा की जाती थी। मगर भगवान कृष्ण ने यह तर्क देते हुए कि इंद्र से कोई लाभ नहीं प्राप्त होता जबकि गोवर्धन पर्वत गौधन का संवर्धन एवं संरक्षण करता है, जिससे पर्यावरण भी शुद्ध होता है। इसलिए इंद्र की नहीं गोवर्धन की पूजा की जानी चाहिए।
हालांकि, इसके बाद इंद्र ने ब्रजवासियों को भारी वष्रा के द्वारा डराने का प्रयास किया, लेकिन ब्रजवासी भगवान कृष्ण का आसरा पाकर अपने निर्णय पर अडिग रहे। उन्होंने अपना विचार नहीं बदला और इंद्र के बजाए गोवर्धन की पूजा शुरू कर दी।
बिहारी ने बताया कि श्रीमद्भागवत में उन्होंने इस बारे में कई स्थानों पर स्पष्ट उल्लेख किया है। कृष्ण ने दाउ को संबोधित कर स्पष्ट कहा है कि गोवर्धन उनके गौ-धन की रक्षा करते है। वृक्ष देते है और ऐसे में हमे उनका पूजन-वंदन करना चाहिए। वह हमारी प्रकृति की रक्षा करते हैं।
इस प्रकार भगवान कृष्ण ने ब्रज में इंद्र की पूजा के स्थान पर कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन गोवर्धन पूजा की परंपरा प्रारंभ कर दी।
ब्रज में स्थित द्वापरकालीन पहाड़ियों, पर्यावरण एवं यमुना की रक्षा के लिए संघषर्रत जयकृष्ण दास ने इस संबंध में बताया कि कृष्ण पर्यावरण के सबसे बड़े संरक्षक थे। इंद्र के मान-मर्दन के पीछे उनका यही उद्देश्य था कि ब्रजवासी गौ-धन एवं पर्यावरण के महत्व को समझें और उनकी रक्षा करें।
गोवर्धन के दानधाटी मंदिर के दानबिहारी कौशिक ने बताया कि इस मौके पर लाखों की संख्या में श्रद्धालु गिरिराज परिक्रमा के लिए आते है, जिनमें विदेशी गिरिराज भक्तों की संख्या भी बड़ी तादाद में रहती है। (भाषा)