दीपावली मनाते युग बीत गए। न लक्ष्मी आई और न ज्योति जगी। फिर भी कामना बलवती है। परंपरा के निर्वहन में लगे हैं, इसी आस पर कि कभी तो दीन दयाल के भनक पड़ेगी कान। प्रति वर्ष दीप जलाते हैं, पूजते हैं और रात-रात भर जाग कर लक्ष्मी का आह्वान करते हैं। पर, यह नहीं समझ पाए कि दीप जला कर ही ऐसा क्यों करते हैं हम। लक्ष्मी का वाहन तो उल्लू है। उल्लू को तो उजाले में कुछ दीखता ही नहीं। तब लक्ष्मी आएगी कैसे?
शायद लक्ष्मी हमसे रूठ गई है। हमारे घी और तेल के असंख्य दीपक उसे अपनी ओर आकृष्ट करने में विफल हैं। इसलिए अच्छा है हम ढेर सारे दीपकों के बजाय बस एक ही दीपक जला लें। कौन सा दीपक? आत्मा का दीपक। हमारी आत्मा अनेकानेक विकारों से भरी और घिरी पड़ी है। भीतर-बाहर तमस है, अंधेरा है-घुप्प अंधेरा। ऐसे में लक्ष्मी हमारे पास कैसे आ सकती है।
हम घरों, दुकानों, दफ्तरों, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और मंदिरों की सफाई में तो एक पखवाड़ा पहले से ही लग जाते हैं लेकिन अपने आत्मदीप को धो-मांज कर जलाने की बात नहीं सोचते। बाहरी साज सज्जा से हम प्रसन्न होकर अपनी मूर्खता का परिचय देते हैं लेकिन उस कमलासनी को कमल सदृश बन कर प्राप्त करने के सही मार्ग का अनुसरण नहीं करते।
कारण यह है कि हमारे धार्मिक ग्रंथों में क्षेपक बहुत हैं। लेखकों व कवियों ने आलंकारिक प्रयोग व अपनी कल्पनाओं के द्वारा इन्हें ऐसा रोचक एवं आश्चर्यजनक बना दिया है कि श्रद्धालुओं ने इन क्षेपकों को ही सत्यघटना अथवा प्रभु के दिव्य गुणों के रूप में शिरोधार्य कर लिया।
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दीपावली के संबंध में भी अनेकानेक धारणाएं बनती गईं। खास बात यह है कि दीपावली जब आती है तो अपने आगे-पीछे पूरे पांच पर्वों की श्रृंखला लेकर आती है। दिवाली से दो दिन पहले धनतेरस से लेकर दो दिन बाद भैय्या दूज तक घरों में उत्सव की खुशियां छायी रहती हैं।
भारत की दीवाली "सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वेसंतु निरामया" और "तमसो मा ज्योतिर्गमय" का संदेश पूरी दुनिया को देती है। कामना रहती है कि सारा संसार ज्योतिर्मय हो जाए। धन-धान्य से भर जाए। पूरी धरा आलोकित हो जाए। मनो के अंधेरे छंट जाएं और प्रेम, सौहार्द एवं स्नेह का आलोक सर्वत्र व्याप्त हो जाए। कवि नीरज के शब्दों में-"जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।"
वैसे तो असौज और कार्तिक के बीच एक महीने से भी ज्यादा दिनों तक भारत के अधिकांश घरों में पहले कनागत, फिर नवरात्र, सांझी फिर दुर्गा पूजा-दशहरा और फिर चतुर्दशी, करवाचौथ व अहोई अष्टमी की तिथियों में अनुष्ठानों का बोलबाला रहता है किंतु दिवाली के पांच दिन तो लगातार हमारी व्यस्तता बढ़ाते ही हैं। पहले आती है त्रयोदशी यानि धनतेरस। यह आरोग्यता की सुखद कामना का दिवस है। इस दिन वैद्यराज धनवंतरि जी महाराज की जयंती है। चिकित्सक (वैद्य, हकीम, डॉक्टर) एवं चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोग धनवंतरि जी के प्रति श्रद्धानत होकर उनके उपकारों का स्मरण कर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं। इस दिन नया घरेलू सामान खरीदने की होड़-सी लग जाती है। समृद्धि का दिन है-धनतेरस।
वस्तुतः दीपावली आलोक पर्व है। यह सकल धरा पर उजाला लाने, मनमस्तिष्क में ज्ञान का संचय करने और मुख मंडल पर उल्लास के भाव जगाने का पर्व है। आध्यात्मिक दृष्टि से यह विकारों, बुराइयों व बुरी आदतों को त्याग कर मन और आत्मा को शुद्ध करने की प्रेरणा देने वाला पर्व है। यह दिलों से अहंकार क्रोध, लोभ, मोह और मत्सर के कुत्सित भावों को तिरोहित कर इनकी जगह त्याग, स्नेह, प्रेम, सहयोग और परोपकार के भावों की अभिवृद्धि करता है।