बचपन के बाबूजी और आज के पप्पा

सुहानी मुखर्जी
जाहिर है शीर्षक पढ़ने के बाद हाल ही में आई फिल्म 'हाऊसफुल' के गीत में नींद में ठुमके लगाते बोमन इरानी आपको याद आने लगे होंगे। बड़े ही निबंधात्मक लहजे में कहा जाए तो फिल्में भी समाज का आईना होती हैं। ऐसे में समाज में जो परिवर्तन की बयार बहती है, उसकी ठंडक को फिल्मों में भी महसूसा जा सकता है। आज अगर आप और हम बाबूजी से डैड और पा तक का सफर तय कर चुके हैं तो फिल्मों पर तो इसका असर दिखना ही है। इस दौरान कई तरह के रंग फिल्मी पिताओं ने दर्शकों तक पहुँचाए हैं।

'नीना की नानी की नाव चली' गाते अशोक कुमार हों या फिर मुगले आजम में धीर-गंभीर आवाज में शेखू को समझाते पृथ्वीराज कपूर, भावनाओं और पितृत्व का एहसास दोनों ही परदे पर बिखेर देते हैं। पिता के मन और बच्चे के प्रति उसकी संवेदनाओं का वर्णन दोनों ही फिल्मों में बखूबी देखने को मिला, वहीं 'दिल है कि मानता नहीं' तथा 'दिल वाले दुल्हनिया ले जाएँगे' में सिंगल पैरेंट का किरदार निभाते अनुपम खेर ने एक पिता और दोस्त दोनों को ही पूरी ईमानदारी से परदे पर उतारा था।

दिल है कि मानता नहीं में वे अपनी बिटिया को शादी के मंडप से भाग जाने की सलाह देते हैं और दिल वाले दुल्हनिया... में बेटे के प्यार को उस तक पहुँचाने की सारी कवायद में खुद मददगार का रोल अदा करते हैं। वह उस दौर की जेनरेशन में पिता और पुत्र के बीच के रिश्तों का सही प्रदर्शन था, वहीं 'डैडी फिल्म में यही अनुपम अपनी बिटिया के सामने नन्हें बच्चे की तरह हो जाते हैं, जो उन्हें डाँट भी सकती है और समझा भी सकती है। वे बिटिया के लिए भावभरी लोरी भी गाते हैं और बिटिया के कहने पर बरसों बाद मंच पर जाकर गीत भी गाते हैं, वहीं अस्सी के दशक में आई अवतार में राजेश खन्ना ने एक बेहद आम मध्यमवर्गीय पिता की भूमिका निभाई थी। एक पिता जो अपने बच्चों के लिए अपना सर्वस्व लुटा डालता है और एक समय खुद उनकी दया का मोहताज हो जाता है।

जब बच्चे भी पिता से मुँह फेर लेते हैं तो स्वाभिमानी पिता फिर अपनी मेहनत के बूते पर खुद को खड़ा करता है और अंत में बच्चों की मदद को इंकार कर देता है। इस सुपरहिट फिल्म ने कई पिताओं को उनकी कहानी याद दिला दी और समाज में पनप रही एक नई रूढी की ओर ध्यान दिलाया। ठीक इसी समय आई फिल्म 'मासूम' में नसीरूद्दीन शाह ने एक बिलकुल अलग तरह के पिता की भूमिका निभाई। इस फिल्म में वे अपनी पत्नी से हुई दो बेटियों तथा अपनी प्रेयसी से हुए एक बेटे के कारण उपजी कशमकश में फँस जाते हैं। उन्हें सभी बच्चों से प्यार है, लेकिन जाहिर है कि उनकी पत्नी को उनका बेटा स्वीकार नहीं।

शेखर कपूर द्वारा निर्देशित इस फिल्म की पटकथा तथा संवाद गुलजार ने लिखे थे और संगीत था पंचम दा का। नसीर के अलावा इसमें शबाना आजमी, सुप्रिया पाठक, सईद जाफरी तथा अन्य थिएटर आर्टिस्ट शामिल थे। एक पिता और पुत्र के रिश्ते को लेकर बेहद गहराई और खूबसूरती से बनाई गई यह फिल्म आज भी लोगों की आँखें नम कर देती हैं।

रील लाइफ में यदि अभिनेताओं ने पिता-पुत्र की भूमिकाओं में जान डाली है तो रियल लाइफ के भी कई पिता-पुत्र की जोड़ियाँ फिल्मों में भी इसी रूप में नजर आईं। फिल्म 'आवारा' में राजकपूर के पिता थे पृथ्वीराज कपूर और राजकपूर के दादाजी यानी पृथ्वीराज कपूर के पिता दीवान बशेशरनाथसिंह कपूर भी उपस्थित थे। यही नहीं, इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर के दूसरे सुपुत्र शशी कपूर ने भी भूमिका निभाई। ठीक इसी तरह आरके बैनर की ही एक और फिल्म कल आज और कल में दादाजी, पिता और पुत्र की भूमिका में असल जिंदगी के दादा, पिता और पुत्र यानी पृथ्वीराज कपूर, राजकपूर तथा रणधीर कपूर थे।

पिछले दिनों आई फिल्म 'पा' में रियल लाइफ में पिता-पुत्र अभिषेक बच्चन-अमिताभ बच्चन ने भी फिल्म में पिता-पुत्र की भूमिका निभाई, लेकिन यहाँ भूमिकाएँ उलट-पलट गईं और पापा बने अभिषेक तथा बेटे बन गए अमिताभ, वहीं 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' में सुनील दत्त अपने पुत्र संजय के साथ नजर आए। असल जीवन में संजय के कठिन समय में उनके लिए जमीन-आसमान एक कर देने वाले दत्त साहब का कोमल भावनाओं से भीगा पिता का चेहरा इस फिल्म ने उनके पात्र को जीवंत बना गया।

यहाँ तक कि खुद संजय दत्त इसे अपने जीवन का सबसे अद्भुत क्षण बताते हैं, जब उन्होंने अपने पिता के गले लगकर जादू की झप्पी पाई। हालाँकि इसके पूर्व फिल्म रॉकी तथा क्षत्रिय में भी ये दोनों पिता-पुत्र की भूमिका में आ चुके थे और क्षत्रिय में ही धमेंद्र तथा सनी देओल भी पिता-पुत्र की भूमिका में थे। उधर धरम पाजी भी फिल्म 'अपने' में अपने पुत्रों के साथ नजर आए। यह फिल्म खास चली नहीं, लेकिन धरम पाजी एक बार फिर फिल्म 'यमला पगला दीवाना' में सुपुत्तर सनी जी के साथ नजर आने वाले हैं।

तो कुल मिलाकर पिता-पुत्र की यह जोड़ी रील लाइफ में रियल लाइफ की भी झलक दिखा जाती है। अक्सर असल जिंदगी के स्टार पिता अपने पुत्रों को लाँच करने के लिए फिल्म बनाते समय उसमें खुद पिता की भूमिका निभाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। शायद इसे फिल्म के चलने का मंत्र माना जाता हो। यह मंत्र हमेशा काम कर जाए ऐसा तो नहीं, लेकिन जब काम करता है तो वाकई पिता-पुत्र दोनों की किस्मत भी चमक उठती है।

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