शब्द-गंध

ND
अक्षर, जब
अपनी दिव्यता में,
ढल जाते हैं कविता में
महकने लगते हैं शब्द
भावों की अगुरु गंध से
वाणी में
भर जाती है मिठास
पावन गंगा की,
ह्रदय में
खिल उठता है खुलापन
आकाश का,
संवेदना,
रच देती है अदृश्य सूत्र
आस्था का,

शब्द-गंध
जो प्यार बन कर उतरती है
माँ के सीने में
किलकती है
शिशुओं के मृदुल हास में
जगमगाती है
भोर की सुनहरी उजास बन
दूब की हरियायी फुनगी पर


झरती है आकाश से
रूनझुन बरखा के छंद बन
अँकुआती है
माटी की नेह भीनी
देह में,
नचाती है मन मयूरों को
साँसों की अमराई में!

प्रकृति में सर्वत्र
अदृश्‍य ब्रह्म-सी छाई
शब्द-गंध,
यही तो सौरभ है
काव्य पुष्प का
जो महकता है आत्मा में
कविता बन कर!

ND
सुनो-
पहले ओढ़ लो
पर तितलियों के
फिर हौले से छूना
मेरी कविता को
तुम पा लोगे
उसमें बिछलती पावन महक
और भीग जाओगे भीतर की गहराई तक।

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