उन्माद के गर्त में

संगीता श्रीवास्त
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फुरसत के क्षण पाते ही
मेरे मन का बौना बढ़ाने लगा है
अपना आकार,
जिसने
आच्छादित कर लिया है मेरे विवेक को
तभी तो
मन करता है, कुछ दिन और बंद रहता
हम अपनी व्यस्त दिनचर्या के बदले
सपरिवार टीवी के सामने बैठ
लोगों के जुनून को देखते रहते,
आश्चर्य है
लोगों के बहते खून को देखकर
करूणा या वीभत्सता का अनुभव नहीं होता
एक रोमांच या कौतुहल का अनुभव होता है
जैसे,
किसी डरावनी या हॉरर मूवी को देखने का
सुख प्राप्त हो़,
और फिर भी हम
अपनी आत्मा को सुख पहुँचाने के लिए कर
पाएँ परोपकार और समाज सेवा?
अपनी प्लेट के गरमागरम पकोड़ों और चाय
की चुस्कियों के सामने
कहाँ याद आती है भूख से परेशान होते बच्चों की
रिमझिम बारिश और ग़ज़लों की मधुरिमा के बीच
कहाँ याद आती हैं बीमारों की कराहटें?
और ऐसी यादें हम सहेजें भी क्यों?
उस भीड़ में कोई हमारा अपना तो घायल हुआ नहीं
दूसरों के दुख पर हम कैसे दुखी हों?
यही दूसरों का दुख-
पराएपन का यही अहसास तो ले जाता है हमें पाशविकता की ओर
नहीं तो हर समय
मदद के लिए बढ़ते हाथों में क्यों होते पत्थर?
क्यों किसी का बहता खून
हमारे दिलों में करूणा की जगह
उत्साह का संचार करता?
क्यों हम कैद होते अपनी 'मैं' की भावना में?
और फिर मानवता के सारे सबक पुन: याद
करते हैं?
जो बहना चाहिए हमारे लहू में
उसे हम देखना चाहते हैं अखबारों की
सुर्खियों में
टीवी के परदों पर
क्यों हम बढ़ते जाते हैं समष्टि से व्यष्टि की ओर
क्यों नहीं हमारा हर कदम होता!
व्यष्टि से समष्टि की ओर!! *