गगन देखता है न नजदीक आना। कली ने कहा पर मधुप ने न माना। प्रकृति सुंदर सज के आई हुई है, धवल चाँदनी में नहाई हुई है, महक रजनी गंधा की छाई हुई है, सरित-जल की कल-कल समाई हुई है, उसे सुन नहीं तुम प्रणय-गीत गाना। कली ने कहा पर मधुप ने न माना। पवन उठके हलचल मचाने लगा है, वो सोये विटप को जगाने लगा है, महक हर कली की चुराने लगा है, तपन हर ह्रदय की बढ़ाने लगा है, न मदहोश होकर प्रणय तुम जताना। कली ने कहा पर मधुप ने न माना। वो पूरब दिशा लाल होने लगी है, अँधेरे की कालिख को धोने लगी है, सुनहरे किरन बीज बोने लगी है, नजर अंधपन अपना खोने लगी है, हटो भी कहीं बन न जाए फसाना। कली ने कहा पर मधुप ने न माना।।