कागज की नाव...

- जितेंद्र वेद

ND
पहले खाते थे हलवा
अब खाते हैं पाव
कहाँ खो गई इस भागदौड़ में
वह कागज की नाव

लम्बी-लम्बी सड़कें है पर
कहीं नहीं है छाँव
ऊँची-ऊँची इमारतों में
कहाँ खो गया मेरा गाँव

कहीं नहीं अब अपनापन
लगा रहे सब दाँव
जंक फूड के इस दौर में
खाने में नहीं आता चाव

बची नहीं अब कोयलिया
बची नहीं अब कव्वे की काँव
समय ही बचा अब ऐसा
भर देता हैं सब घाव

खीं-खीं कर हँस रहे हैं
छिपा रहे सब ताव
मुखौटे ही मुखौटे सब
कुचल गई कागज की नाव