हिन्दी कहानी : स्वीकारोक्ति

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डॉ. साधना सुनील विवरेकर 
शाम को सारे दिन की थकान के बावजूद सड़क पर ठहलना मेरा शौक है। गर्मी की तपन के बावजूद शाम की ठंडी हवा मन को सुकून देती है, आसमान पर पक्षियों को कारवां घरौंदों की तरफ लौटता हुआ चहचहाचट के घने शोर में भी संगीत की लय का आभास कराता है। हाथ में मोबाईल लिए थोड़ी ही दूर आगे बढ़ी, कि पड़ोसन आभा ने आवाज लगाई और उसके आग्रह पर हम दोनों लॉन में ही बैठ गए। इधर-उधर की बातों के साथ कुछ सुख-दुख बांटने से ही स्नेह बंध मजबूत होते हैं। फिर कुछ लोगों से ''वेव लेंथ'' मेच हो जाए तो सगे संबधियों से अधिक घनिष्ठता स्वाभाविक भी है। तभी मोबाईल की घंटी बज उठी। कोटा से आत्या के बेटे डॉ. प्रफुल्ल का फोन था। 
 
''दीदी एक सेड न्यूज है काकाजी नही रहें''.... अरे कब?  ''अभी एक घंटे पहले'' जवाब मिला। औपचारिक संवेदना के बाद मैंने पूछा ''और दादा कैसे है''? उनकी हालत तो वैसी ही है और भी कमजोर हो गए हैं। न खाना खाते हैं, न दवाई लेते हैं, सब कुछ बिस्तर पर ही मैनेज करना होता है। मैंने नर्सिंग होम पर ही सब व्यवस्था कर रखी है, पर आई को सतत सेवा करनी पड़ती है उसके श्रम देखे नहीं जाते। प्रफुल्ल ने कहा - मैंने कहा आत्या का तो जीवन ही त्याग व सेवा का पर्याय रहा है, ईश्वर उसे शक्ति दे। मैं सुबह उससे बात करती हूं, कहकर फोन बंद किया।
 
आभा ने पूछा ''क्या हुआ?'' तो मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं थी। काकाजी...आत्या के देवर, मेरा उनसे कोई नजदीकी रिश्ता नहीं, फिर भी आंखो की कोर गीली हो ही उठी। शायद आत्या के जीवन की कहानी याद करके।
 
आत्या पापा की छोटी बहन, तीन भाईयों व तीन बहनों में पापा व काका के बाद आत्या का नंबर था। देखने में गोरी चिट्टी सुंदर अपने नाम ''गुलाब'' की सार्थकता सिद्ध करती, साथ ही अपने सरल सहज स्वभाव व प्रेमपूर्ण व्यवहार की वजह से सभी की लाड़ली थी। मैं पापा की सबसे बड़ी बेटी अतः सभी आत्याओं व काकाओं ने आजी आजोबा के साथ बहुत लाड़ प्यार दिया था। मेरे बचपन का हर किस्सा सुनाए बिना उनका मायके आना सार्थक नहीं होता व उसे सुन-सुन मेरे बाकी भाई बहन कभी खीजते, तो कभी मुझे चिढ़ाते। उन दिनों की सुनहरी यादें जीवन की अनमोल पूंजी हैं। बचपन में परीक्षाओं के खत्म होते ही इंतजार रहता, आत्याओं का अपने अपने बच्चों के साथ मायके आने का। घर पर हम छोटे बड़े मिलकर 10-11 बच्चे तो इकट्ठे होते ही, साथ में कोई छोटा गोद में खिलाने जैसा भाई या बहन होता जिसे खींच-खींच कर एक दूसरे से लड़-झगड़कर गोद में लटकाने की होड़ लगी रहती। सबका साथ खाना-पीना, मौज मस्ती, छोटे-छोटे सुख, छोटी-छोटी ख्वाहिशें एक रू. की भेल या गन्ने का रस पीकर तृप्त हुआ बचपन, आज की चकाचौंध व महंगे खिलौनों के न होने पर भी अधिक सुखी था। उन दिनों की यादें ही शायद चचेरे, ममेरे, मौसेरे, फुफेरे भाई बहनों के बीच गहरी आत्मीयता व अपनत्व बनाए रखने में सक्षम हैं। वरना आज के बच्चे तो हर रिश्ते को ''कजिन'' कहकर प्रारंभ होने से पूर्व ही दूरियां बना बैठते हैं।
 
खैर तब बड़ी आत्या के साथ हर साल उनके देवर भी आते व हम सब उन्हें काकाजी कहकर बुलाते। काकाजी मेंटली रिटारडेड हैं यह समझ आने के बहुत पहले ही हम सब उनसे प्रेम व स्नेह के बंधन से इतने अधिक जुड़ गए थे कि उसमें उनकी इस कमजोरी का कोई स्थान नहीं था। उस समय मैंने 11 वीं का इम्तिहान दिया था और आत्या मायके आई हुई थीं। तब बातों ही बातों में उनका जीवन वृत्तांत उनसे सुनने को मिला था।
 
बड़ी आत्या ने एम.ए. प्रथम श्रेणी में उर्त्तीण कर लिया था व उनके लिए लड़कों की तलाश जारी थी। मेरे जन्म के समय वे आजी के साथ पापा के यहां रहने आईं,  तो पड़ोस में रहने वाले डॉ. आरस की मां को, वो भा गईं। पढ़ी-लिखी उच्च शिक्षा प्राप्त लड़की की इतनी सादगी व शांत स्वभाव देख उन्होंने पापा के पास आत्या से अपने बेटे के रिश्ते का प्रस्ताव रखा।
 
घर में आई बाबा व आजी के बीच काफी विचार विमर्श हुआ, क्योंकि डॉ. आरस विधुर थे व उनकी 1 साल की बच्ची थी। उनकी पत्नी का दस माह पहले ही देहांत हुआ था। सारी चर्चाओं का पटाक्षेप करने के लिए जब आत्या से राय मांगी गई तो उनका जवाब था ‘अगर बाकी सब बातें आपके हिसाब से ठीक हैं तो केवल एक बच्ची के पिता होने से मुझे लड़के में कोई खोट नहीं लगती। अगर मेरा विवाह 2 वर्ष पूर्व हुआ होता तो क्या मेरी इतनी बड़ी बेटी नहीं होती? फिर उस बच्ची को भी तो मां चाहिए। मैं उसकी मां बनने को तैयार हूं। और फिर आत्या डॉ. आरस की पत्नी बन गईं। एक और जिम्मेदारी आत्या पर थी, मानसिक रूप से कमजोर ‘‘ देवर‘‘ जिसे उन्होंने छोटे भाई के रूप में, प्रथम दिन से ही स्वीकारा था। केवल भाऊजी‘ कहती ही नहीं, मानती भी रही। काकाजी ने लक्ष्मण की तरह सदा भाभी को मान दिया। आत्या जब शादी होकर आईं तो उन्हे समझ में आया कि उनकी सास ने बेटे के लिए पत्नी व अपने लिए बहू के रूप में तो उन्हें स्वीकार कर लिया था, लेकिन उस छोटी बच्ची को अपने पल्लू से बांधे रखती व उसे उनके पास फटकने नहीं देती। बार-बार उसे यह एहसास दिलाती कि आत्या उसकी सौतेली मां है। दादी के लाड़ प्यार के कारण जब बेटी बिगड़ने लगी, तो आत्या ने अपना वह रूप भी दिखा दिया व बच्ची की सही अर्थो में मां बनने के लिए, कठोर भी बन बैठी। धीरे-धीरे प्यार से व अनुशासन से बच्ची को सही राह पर लाकर, संस्कार व स्नेह दे अपना बना लिया।
 
फिर आत्या के 2 बेटे हुए। मां के संस्कारों के कारण दोनों ने दीदी को कभी अपनी सौतेली बहन नहीं समझा व उन तीनों का आपसी प्यार हमारे परिवार में मिसाल बन गया। तीनों बच्चों ने मानसिक रूप से कमजोर काका को सहजता से स्वीकारा व घर में पूर्ण आदर सम्मान दिया था। दिन बीतते गए, हम सब बड़े हुए। आत्या की बेटी की शादी हो गई, एक बेटा डॉक्टर व दूसरा इंजिनियर हो गया। सबकी शादियां हो गयी व मिलना जुलना केवल पारिवारिक सुख दुख के अवसरों पर ही होता रहा। तभी खबर मिली की सुहास, आत्या की बेटी गैस से दूध का बर्तन आंचल से उतारते वक्त जल गई हैं। तब उसके जुड़वा बच्चे मात्र 2 साल के थे। आत्या अपने बेटों की पढाई व परिवार की अन्य समस्याओं को अलग रख तुरं सुहास के ससुराल पहुंची उसके वृध्द सास-ससुर की असहायता को समझ स्वयं उसके घर पर 6 माह तक रहकर उसकी सेवा की। उसका आत्मबल बढ़ाया, उसके बच्चों की, सास ससुर की देखभाल की व उसे फिर जीने की राह दिखाई। सुहास सदा कहती है - इतनी सेवा तो शायद मेरी सगी मां भी नही कर पाती। आत्या कहती तुझे सिर्फ जनम भर नहीं दिया, है तो तू मेरी ही बेटी। इस सब में साथ दिया आत्या के देवर, काकाजी ने। वे खामोशी से भाभी की छाया बन उनके हर आदेश का पालन करते। आजोबा कहते सीता लक्ष्मण की जोड़ी है। मेरी गुलाब ही ऐसा कर सकती है और गर्व से उनकी आंखें भर आती।
 
बाद में बच्चे अपनी अपनी प्रगति की राह पर चल पड़े, लेकिन आत्या फूफाजी व काकाजी, तीन प्राणियों की गृहस्थी स्वतंत्र रूप से चलती रही। बुआजी को कभी ‘‘ काकाजी बोझ नहीं लगे, न ही स्वतंत्रता में बाधक। एक बार मैंने पूछा ‘‘आपको काकाजी का हमेशा साथ रहना खलता नहीं?  तो कहने लगी - मैने उन्हें सदा से पहले तो भाई माना था, लेकिन सास ने मरते समय जब इनका ख्याल रखने का वचन मांगा तबसे इन्हें बेटा ही समझती हूं। सारी उम्र वे भी मेरे साथ, मेरे परिवार के लिये खटते रहे हैं। फिर उनका हमारे सिवा है भी कौन? वे मुझे वहिनी कहते हैं लेकिन मानते मां ही हैं। रिश्तों की गरिमा क्या हो, कैसी हो, इसकी मिसाल आत्या है।
 
फूफाजी डाक्टर थे सारी उम्र सबको अपने कड़े अनुशासन में रखा। इतने त्याग, सामंजस्य, आत्मसमर्पण व समझदारी से सारे रिश्ते निभाने के बावजूद उन्होंने कभी आत्या की तारीफ नहीं की, बल्कि सारा श्रेय स्वयं लेते रहे व आत्या में नुक्स निकालते रहे थे। मैं कभी-कभी उनसे भिड़ लेती थी, व आत्या की तरफदारी करती पर वे कभी मानने को तैयार नहीं होते।
 
पिछले साल जब फूफाजी की तबि‍यत देखने हम कोटा गए थे, तब फूफाजी ने मुझसे अकेले में कहा - तेरी आत्या सचमुच धन्य है, जिसने मेरे जैसे जिद्दी व अहंकारी का साथ निभाया व मेरी सारी जिम्मेदारियां खामोशी व शांति से चुपचाप निभाती रही। मैं उससे शायद कभी कह नहीं पाऊं लेकिन तेरे सामने स्वीकारोक्ती करता हूं कि तेरी आत्या बहुत महान है। मुझ विधुर से शादी करने के लिए तैयार हुई। मेरी मां के कठोर व्यवहार को सहती रही, मेरे मंद बुध्दि भाई को प्यार व स्नेह दे उसका ख्याल आज तक रख रही है। मेरी बेटी को मां से बढ़कर प्यार दे अपना लिया है, यहां तक कि, उसके आग से झुलस जाने पर भी उसकी सेवा की हमारे बेटों को भी अच्छे संस्कार दिए। पर मैं अपनी अहंकार व घमंड में सदा उसे नीचा दिखाता रहा। वह मेरे जुल्म भी सहती रही पर कभी किसी से शि‍कायत नहीं की। उसकी सुंदरता से मैं मन ही मन आशंकित रहता कि अगर इसकी तारीफ करूंगा तो कहीं घमंड व अभिमान से सिर पर न बैठ जाए। अपनी शिक्षा व व्यवसाय को सदा श्रेष्ठ समझता रहा। मेरा पुरूषी अहम मुझे उसके व्यवहार त्याग व समर्पण की सराहना करने से सदा रोकता रहा और चाहकर भी मैं कभी खुलकर उसकी प्रशंसा नहीं कर पाया। 
 
मैंने कहा फूफाजी आप भी आत्या को बहुत चाहते हैं, एक बार कह दीजिए ना, शायद उसे भी सुकून मिले।मुझे लगा काश आत्या यह सुन पातीं, लेकिन वह तो काकाजी को खाना खिलाने में लगी थीं।तभी से काकाजी की तबियत भी बिगड़ती जा रही थी। आत्या को दो-दो लोगों की सेवा करनी पड़ रही थी जबकि वे स्वयं भी 75 वर्ष पूर्ण कर चुकी थीं। उनकी मदद के लिए बेटे के नर्सिंग होम के नौकर, नर्स रहते लेकिन सारी जिम्मेदारियां तो आत्या की ही थी।
 
काकाजी की खबर सुन मन उदास हैं। जो हुआ अच्छा ही हुआ लेकिन आत्या से क्या बात करूंगी, पता नहीं। लाड़ला देवर ही नहीं उसके रूप में बेटा खोया है, पता नहीं कैसे रिएक्ट करें। यादों के कतरन संजोते-संजोते जाने कब नींद लग गई। पंद्रह दिन बीत गए सुबह 5 बजे मोबाईल की घंटी बजने से नींद खुली, डॉ प्रफुल्ल का नाम पढ़कर थोड़ी हैरानी के साथ बैचेनी भी हुई। हड़बड़ाकर उठी और मोबाईल ऑन किया, आवाज आयी दीदी ''दादा'' भी चल बसे।
मैंने पूछा क्या हुआ था? 
 
उसने बताया बीमार तो थे ही। काकाजी का सबकुछ अपने हाथों से करने में असमर्थ, फिर भी 13 दिन तक सबकुछ किया। कल रात को केवल इतना कहा - चलो एक बड़ी जिम्मेदारी से मुक्त हो गया।
 
सुनकर मैं सन्न रह गई। इतना भातृ प्रेम मानो उसकी जिम्मेदारी निभाने के लिए ही सांस रोके थे। सबको खबर की व आत्या से बात करने के लिए फोन लगाया कहा - आत्या स्वयं जल्दी आकर तेरे दुख में शामिल होना चाहती हूं, तूने सारी जिदंगी काकाजी व दादा की खूब सेवा की। आत्या का जवाब था - मैंने क्या किया, सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया। तेरे फूफाजी ने अपने भाई का सारी उम्र खयाल रखा व जाते हुए भी उन्हें सुकून था कि वे अपनी जिम्मेदारी निभा गए। उनकी हालत बहुत खराब हो गई थी इसलिए यही सुकून है कि मेरे प्राण रहते ईश्वर ने उन्हें मुक्ति दे दी, वरना एक बोझ सीने पर रहता कि अपनी जिम्मेदारी बच्चों के सिर पर छोड़े जा रहे हैं। ईश्वर ने उन्हें मुक्त कर मुझे शांति से मरने का रास्ता दिखा दिया है।
 
काकाजी के जाने के बाद ये अत्यंत भावुक हो गए थे। पिछले 13 दिनों में मुझसे बहुत बातें करते थे हर घटना, हर बात याद करके कभी मुझसे माफी मांगते तो कभी मेरा एहसान जताते। इन 13 दिनों में उन्होंने अपने मन की हर बात को मुझसे खुल कर कहा था। आखिरी दिन कह रहे थे - विश्वास न हो तो नीरू से फोन करके पूछ लेना। सच कहूं नीरू इनके मुंह से दो मीठे बोल, दो सराहना के बोल सुनने को तरसते जिंदगी बीत गई। अब तो मैंने सारी उम्मीदें ही छोड़ दी थी, पर चलो देर से ही सही जिंदगी भर की चाहत पूर्ण तो हुई। एक सुकून मन में रहेगा इनकी स्वीकारोक्ति‍ का। 
 
फोन रखते हुए आंखों से बहती हुई अश्रुधारा को पोंछते हुए कोटा जाने की ठान ली। एक तरफ आत्या के वैधव्य का दुख था,  पर दूसरी तरफ फूफाजी की स्वीकारोक्ति‍ से उपजा सुकून आत्या के चेहरे पर देखने की चाहत।
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