- नेपाल के हिमालयी धौलागिरी अंचल से लौटकर सचिन कुमार जैन
जब आस-पास शोर नहीं होता, तो डर क्यों लगता है? सन्नाटे और शांति में, चिंतन और शोर में थोड़ा नहीं, वरन् बुनियादी अंतर होता है। जिस तरह का शोर हमारे भीतर भरा हुआ है, वह हमें चेतना से दूर हटाता है। वह हमें शांति से डरने के लिए तैयार करता है। जंगल जो अहसास पैदा करता है वह भीतर बसी हिंसा की रचना होती है। शायद इसलिए क्योंकि तब हम केवल अपने साथ होते हैं। खुद को देखना और खुद से बात करना, खुद में झांकना डराता है।
मैंने जो जंगल देखा, बिलकुल अनछुआ-सा था। नेपाल में हिमालय के रिश्तेदार पहाड़ों पर बसे यह जंगल इस बात का भी प्रमाण हैं कि जब उन्हें जीने दिया जाता है तो वे कितने विशाल, भव्य और आभावान हो सकते हैं। शुरू में उनकी सघनता से मेरा संघर्ष होता रहा। आखिरकार मैं उनके भीतर झांकने की कोशिश जो कर रहा था। जहां वो सूरज की रोशनी को प्रवेश नहीं करने दे रहे थे, मेरी नजरों को भला कैसे भीतर जाने देते। फिर भी मैं चुपके से उनमें प्रवेश कर गया। पूरा न जा सका। टुकड़ों-टुकड़ों में गया।
हर दरख्त अपने आपमें एक पूरा जंगल, नहीं पूरा जीवन बना हुआ था। कोई पेड़ अकेला नहीं था। किसी पर छोटे पत्तों की बेलें चढ़ी हुई थीं, किसी पर बड़े पत्तों की बेलें। जिनकी बड़ी डगालें टूट गई थीं, वहां डगालें टूटने से गड्ढे़ बन गए थे। उनमें किन्ही दूसरी प्रजाति पेड़ भी उग आए थे। किसी पेड़ ने उन्हें यह कहकर रोका नहीं कि मेरे शरीर पर मत उगो। उन्होंने यह भी नहीं कहा कि तुम्हारा रंग मुझ जैसा नहीं या तुम्हारी जाति कुछ और है।
उनकी वरिष्ठता का अंदाजा मैंने उन पर चढ़ी काई की मोटी परत से लगाया। कुछ पर गहरी हरी काई की परत जम चुकी है। यह काई पेड़ का श्रृंगार करती है। घोंघे, इल्लियां और मकड़ी उन्हें गुदगुदाते रहते हैं। वे पत्ते भी खा लेते हैं। पेड़ नए पत्ते पैदा कर देता। अगर काई संक्रामक बीमारी का स्रोत है, तो जंगल खड़ा कैसे है? उसे तो सूख जाना चाहिए था। अक्सर मैंने देखा अधूरी खाकर छोड़ी गई पत्तियों को, जो छोड़ दी गईं थीं ठीक वैसे ही, जैसे हमारे बच्चे छोड़ देते हैं खाना।
जंगल का मतलब केवल शेर, चीते या भालू जैसे जानवर तक सीमित नहीं हो सकता। यह तो जंगल के कुछ हिस्से हैं। घने जंगल की झाडियों में जंगली मुर्गों की अचानक हुई हलचल ने मुझे उतना ही चौंकाया था, जितना कोई और बड़ा जानवर चौंकाता। सैंकड़ों तरह के पंछी, कुकुरमुत्ते, मकड़ियां, इल्लियां, घोंघे, काई, घांस, मिट्टी, पत्थर, पेड़-पौधे, जमीन से बाहर निकल आई जड़ें, झींगुर, ऊंचाई और गहराई, टुकड़ों में धूप और कुछ टुकड़े छांव, नमी के साथ टहलती हवा, सन्नाटे के बीच तेज ध्वनियां और वहां रहने वाले इंसान, यह सब मिल कर जो दुनिया बनाते हैं, वही तो जंगल है।
जब मैं वहां पंहुचा तो ऐसा लगा मानों अभी थोड़ी देर पहले ही कोई आया था और हर पत्ती को, हर तने को, घांस के हर तिनके को धो-पोंछ कर चमका कर गया है। कोई तो आता है यहां, जिन्होंने पत्थरों को सुन्दर से सुन्दर आकर दिए हैं। हर पत्थर का एक खास आकार, गोल, तिकोना, चतुष्कोण और पता नहीं कितने कोण... यकीन मानिए गोलाई भी एक प्रकार की नहीं होती। गोलाई लिया हर पत्थर दूसरे गोल पत्थर से भिन्न होता है। यहां मुझे पता चला कि हमें तो किताबों में कुछ ही आकारों के बारे में पढ़ाया गया है, यहां तो हजारों-लाखों प्रकार के आकर दिखाई देते हैं। हर पत्थर का एक खास आकार। जरूरी नहीं कि उसे कोई नाम दिया ही जाए।
हरा रंग कोई एक रंग नहीं है। हरा रंग कितनी विविधता से भरपूर है इसका अंदाजा आपको पोखरा से बाग्लुंग के बीच 80 किलोमीटर के पहाड़ चढ़ते हुए हो जाता है। इसकी गणना कर पाना भी संभव न रहा। बिलकुल हल्का हरा, काई का चमकदार हरा, उत्तिस और साल का गहरा हरा हां और भी कई। हर रंग के नाम भी नहीं हो सकते।
कहीं कोई सीमा रेखा नहीं दिखती। ठीक एक ही भू-बिंदु से दो अलग-अलग किस्म के पेड़ उगे और बढ़ते चले गए। कहीं कोई रियासत भी नहीं दिखती। उनके होने का अहसास दिखता है। यह समझ भी कि अकेले होना संभव ही नही, बल्कि असंभव है। आकार से कुछ भी तय नहीं होता वहां। मैंने छुआ अपनी नजरों से इन अनछुए जंगलों को। स्पर्श इन्द्रीय से इन्हें पूरा महसूस कर पाना भी संभव नहीं है। घ्राण-इन्द्रीय अपनी आदत के मुताबिक कुछ हजारों गंध को खोज रही थी, पर पूरा जंगल एक गंध बन चुका था। कोई गंध दूसरी गंध को खत्म करने की साजिश करती नहीं मिली। मैं इन्हें अनछुए इसलिए कहता हूं क्योंकि विकास नाम के राक्षस के हाथ अब तक यहां नहीं पंहुचे हैं।
हर कोने में हर पगडंडी पर जंगल की एक ही सुगंध मिली। जब किसी पेड़ के करीब गए, तो कुछ नई गंध का अहसास भी हुआ। उनके आकार भिन्न हैं, रूप भिन्न हैं, शायद चरित्र भी भिन्न हैं, पर उन्हें पता हैं कब वे एक स्वतंत्र अस्तित्व हैं और कब एक पूरा जंगल, जिसमें कोई अस्तित्व स्वतंत्र नहीं होता। कोई विरोधाभास नहीं। लोग कहते हैं कि कुछ पेड़ जहरीले होते हैं, पर किसी को इन्होंने मारा नहीं। वाह! कितना अच्छा जहरीलापन है ये!
जो जी चुके थे अपनी उम्र, उन दरख्तों का संस्कार कीड़े, घोंघे, चीटियां, पानी और मिट्टी मिल कर कर रहे थे। पेड़ों-पत्तियों का अंतिम संस्कार नहीं होता। उनका वैशिष्ट्य के साथ रूपांतरण होता है। हमारे यहां तो कई हजार पन्ने लिख कर यह बताया गया है कि हम पंच तत्वों से बने हैं और आखिर में उन्ही में मिल जाएंगे। इस जंगल में तो यह यूं ही समझ आता है। होना और मिट जाना और फिर हो जाना कितनी सहजता से चलता रहता है। जंगल राज कोई हिंसक राज नहीं है; वह जीवन का एक चक्र है।
यहां पांच तरह के वन हैं। सदाबहार शंकुधारी वन, जिनके वृक्ष बहुत बड़े हैं और यह समुद्र तल से 1850 मीटर की ऊंचाई पर पहाड़ों में पाए जाते हैं। मिश्रित वन, इसमें चिलौं, कटुस और उत्तिस प्रजाति के पेड़ हैं, जो समुद्र तल से 1220 से 1850 मीटर की ऊंचाई पर पाए जाते हैं। यह अब खतरे में हैं, क्योंकि इन्हें मार कर लोग घरों में सजाने के लिए उपयोग में लाते है। तीसरे वन हैं – मानसून वाले, यह समुद्र तल से 712 से 1219 मीटर की ऊंचाई पर पाए जाते हैं। इनमें साल, सिमल, बार, पीपल सरीखे पेड़ हैं। चौथे वन हैं- झाडीदार वन, जिनमें छोटी पत्ती और फूलों वाले छोटे पेड़ होते हैं। पांचवे वन हैं- जल धारा या नदी के करीबी वन। यह खास तौर पर नदियों या किन्ही जल धाराओं के पास ही पाए जाते हैं। इस श्रेणियों में 31 तरह की प्रमुख प्रजातियां हैं। इनके अलावा 11 तरह की घांस और खरपतवार भी है। 2 सेंटीमीटर से लेकर 80 फुट लंबे पेड़ों-वनस्पतियों के बीच यह जंगल बिलकुल बराबरी में बंटा हुआ है।
भालू, हिरण, ऊदबिलाव, तेंदुआ, साही, लोमड़ी, जंगली छिपकली समेत 21 तरह के स्तनधारी जंगली जानवर इस दुनिया के निवासी हैं। इसी तरह अलग रंग और प्रकृति के 21 तरह के पंछी भी यहां रहते हैं। पेड़ों और जानवरों में हमारी तरह जातियां नहीं, बल्कि प्रजातियां होती है। प्रजातियां समाज को बांटती नहीं हैं, बल्कि विविधता से परिपूर्ण बनाती हैं। यह जंगल इंसानी बस्ती से बेहतर है।
मैं जंगल से संवाद कर पा रहा था, क्योंकि मैं किसी और से संवाद करना ही नहीं चाहता था। सब कुछ भूले बिना यह संवाद असंभव था। दिमाग से बिना कचरा हटाए यह महसूस कर पाना भी असंभव है कि जंगल निर्जीव नहीं होते हैं। जंगल सजीव होते हैं। तभी तो वह मुझमें कुछ चेतना भर पा रहे थे।
बस छोटा-सा अनुभव बांटना चाहता हूं। इन पहाड़ों पर चढ़ते हुए फेंफड़ों का हर कोना धकर-धकर कर रह था। अपनी सामान्य गति से कई गुना ज्यादा। जब भी हम कुछ पलों के लिए रूकते, यही जंगल मुझे मेरी पूरी ऊर्जा तुरंत लौटा देता। जिस यात्रा के बाद हमें थक कर चूर हो जाना चाहिए, वह हमें कुछ ज्यादा सक्रीय कर रही थी।