जंगल से एकतरफा संवाद- भाग 4

बुधवार, 8 अक्टूबर 2014 (12:41 IST)
- नेपाल के हिमालयी धौलागिरी अंचल से लौटकर सचिन कुमार जैन

भूगोल का अध्यात्म 
 

 
ये जंगल, ये पर्वत और झरने हमें अध्यात्म का विषय लगते हैं, परंतु इससे पहले ये भूगोल का विषय हैं और अध्यात्म भूगोल का विषय भी है। जब इन इन दृश्यों को मैंने भूगोल के साथ जोड़ा तो इन पर्वतों की ऊंचाई से ज्यादा गहराई का अंदाजा हुआ।

वास्तव में आज भारत पृथ्वी के जिस हिस्से पर है (यानी एशिया में) बहुत साल पहले ये यहां नहीं थे। 22.5 करोड़ साल पहले यह ऑस्ट्रेलियाई तटों के आसपास तैरता एक द्वीप था। टेथिस महासागर इसे एशिया से अलग करता था। इसका जुड़ाव एशिया से नहीं था। मैं धौलागिरी अंचल के जिन ऊंचे पहाड़ों को देख रहा था, वे लाखों साल पहले कहीं अस्तित्व में थे ही नहीं। भारत तब गोंडवाना या गोंडवाना भूमि का हिस्सा था। गोंडवाना भूमि में शामिल थे- दक्षिण के दो बड़े महाद्वीप और आज के अंटार्कटिका, मेडागास्कर, भारत, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका जैसे देशों से मिलकर बनी हुई भूमि।
 
गोंडवाना अंचल का अस्तित्व 57 से 51 करोड़ साल पहले माना जाता है। ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक एडवर्ड सुएस ने यह नाम दिया था जिसका मतलब होता है गोंडों का जंगल। एक बात और जानने लायक है कि आज जिस जमीन, जिस सीमा रेखा और राजनीतिक नक्शे के लिए लोग लड़ रहे हैं, वह पहले ऐसा नहीं था और आगे भी ऐसा नहीं होगा। भू-भाग बदलते रहे हैं और आगे भी बदलते रहेंगे। फिर यह बदलाव चाहे 1 या 2 करोड़ सालों में ही क्यों न हो। यह कैसा राष्ट्रवाद, जबकि राष्ट्र की कोई स्थायी सीमारेखा ही नहीं है। बस जंगल, पहाड़, हवा, बूंद की बात कीजिए, वही हमारे अस्तित्व को जिंदा रखेंगे; हमारे न होने के बाद भी।
 
अपनी इस धरती की ऊपरी सतह को भू-पटल कहते हैं। इसमें एल्युमीनियम, सिलिकॉन, लोहा, कैल्शियम, सोडियम, पौटेशियम और ऑक्सीजन सरीखे तत्व होते हैं। भू-पटल के नीचे की सतह को स्थल मंडल कहते हैं। यही महाद्वीपों और महासागरों को आधार देता है। इसकी मोटाई साधारणतः 100 किलोमीटर या इससे कुछ ज्यादा हो सकती है। इस आवरण में मजबूत चट्टानें होती हैं। धरती में स्थल मंडल के नीचे की परत को दुर्बलता मंडल कहते हैं। यह परत द्रवीय या तरल होती है।


 
मजबूत चट्टानों वाला स्थल मंडल इसी परत पर तैरता रहता है। स्थल मंडल में बहुत मजबूत चट्टानें होती हैं, जो तश्तरियों या प्लेट के रूप में होती हैं। ये तश्तरियां (जिन्हें टेक्टोनिक प्लेट कहते हैं) स्थिर न होकर गतिमान होती हैं यानी भू-गर्भीय घटनाओं और परतों की चारित्रिक विशेषताओं के कारण खिसकती रहती हैं। टेक्टोनिक प्लेटों की गतिशीलता के कारण कई महाद्वीप मिलकर 3 लाख साल पहले विशाल पेंजिया महाद्वीप (उस समय का सबसे बड़ा महाद्वीप, जो कई द्वीपों से मिलकर बना था) बन गए थे।
 
स्पष्ट अर्थों में भारत तब अफ्रीका से सटा हुआ था। 20 करोड़ साल पहले धरती के अंदर ताप संचरण की क्रियाओं के फलस्वरूप होने वाली भू-गर्भीय घटनाओं के कारण ये महाद्वीप टूटने लगे और छोटे-छोटे द्वीपों में बंटकर अलग-अलग दिशाओं में जाने लगे। तब 8.40 करोड़ साल पहले भारत ने उत्तर दिशा में बढ़ना शुरू किया। अपने तब के स्थान से शुरू करके इसने 6 हजार किलोमीटर की दूरी तय की और 4 से 5 करोड़ साल पहले एशिया के इस हिस्से से टकराया। इस टक्कर के चलते भूमि का वह हिस्सा ऊपर की ओर उठने लगा। दो महाद्वीपों के टकराने से प्लेटें एक-दूसरे पर चढ़ने के कारण हिमालय बना। जरा सोचिए कि ऊपर उठने का मतलब क्या है? इन पर्वतों पर समुद्री जीवों के अवशेष मिलते हैं। हिमालय श्रृंखला के पर्वतों पर समुद्री जीवों के अवशेष... इन पहाड़ों की ऊपरी सतह के खिरने से जो पत्थर निकलते हैं, वे भी ऐसे गोल होते हैं, जैसे नदियों या बहते पानी में आकार लेते हैं यानी यह हिस्सा कभी न कभी पानी में रहा है।
 
माना जाता है कि भारत का भू-भाग ज्यादा ठोस था और एशिया का नरम, इसलिए एशिया का भू-भाग ऊपर उठना शुरू हुआ और हिमालय पर्वतीय श्रृंखला की रचना हुई। अन्य दूसरे पर्वतों की तुलना में यहां के पर्वतों की ऊंचाई ज्यादा तेज गति से बढ़ी और यह अब भी हर साल 1 सेंटीमीटर की दर से बढ़ रही है। इनकी ऊंचाई बढ़ती रहेगी, क्योंकि भारतीय विवर्तनिक प्लेट (टेक्टोनिक प्लेट) भूकंपों के कारण अब भी धीमी गति से किंतु लगातार उत्तर की तरफ खिसक रही है; यानी हिमालय अब भी और ऊंचा होगा। तथ्य यह है कि हमेशा से हिमालय की ऊंचाई 1 सेंटीमीटर की गति से नहीं बढ़ रही थी।


 
यदि यह गति होती तो 4 करोड़ सालों में हिमालय की ऊंचाई 400 किलोमीटर होती। पर्यावरणीय कारणों और अनर्थकारी मानव विकास की लोलुपता के चलते विवर्तनिक प्लेटों में ज्यादा गतिविधि हो रही है और भूकंपों के नजरिए से यह क्षेत्र बहुत संवेदनशील हो गया है। प्रकृति विरोधी विकास हमें विनाश की ओर ले जा रहा है। किसी को संकेतों में बात समझ आती है तो इसका मतलब यह है कि पहाड़ों को काटने, नदियों को बांधने और जंगलों को मिटाने का मतलब विकास नहीं है, यह खुद को मिटाने की भौतिक तैयारी है।
 
जब किसी आधुनिक वाहन में सपाट सड़क के रास्ते हम पर्यटन के लिए निकलते हैं, तब क्या हमें कभी यह अहसास होता है कि धरती के जिस हिस्से पर हम चल रहे हैं, उसका जीवन 4 से 5 करोड़ साल का हो चुका है। वह पर्वत दो महाद्वीपों की टक्कर के कारण पैदा हुआ और ये कभी पानी में डूबा रहा होगा? यह तब तक पता नहीं चलता, जब तक कि हम इसके साथ अपने भीतर के तत्वों को जोड़ नहीं लेते। अपने भीतर के वही तत्व, जिन्हें हम सुबह-शाम पंच तत्व कहते हैं।
 
 

साल 2013 में उत्तराखंड के बद्रीनाथ में बाढ़ आई थी। खुद तो देखी नहीं, पर सुना बहुत और चित्र-चलचित्र भी खूब देखे। 300 गांवों को बहा ले जाने वाली धाराओं से उसकी भयावहता का अच्छे से अंदाजा लग गया। मैं समझ नहीं पाता था कि पहाड़ पर बाढ़ कैसे आएगी? वहां तो बारिश के पानी को रोकने के लिए कहीं कोई बाधाएं ही नहीं हैं। वहां तो पानी आना चाहिए और बह जाना चाहिए। बाढ़ यदि आए तो भी समतल इलाकों में आए, पहाड़ों में कैसे? परंतु बात इतनी सीधी सी नहीं है।

आमतौर पर मेघ बूंदें बरसाते हैं, पर जब बादल फटते हैं तो धाराएं बरसती हैं। तो संकट की पहली तैयारी तो यह हुई कि मौसम का चक्र बदलने, जमीन और आकाश के रिश्तों में कड़वाहट आने (अब जमीन आसमान को गर्मी सौंपती है और जहरीली गैसें भी) से मेघ गुस्सा रहे हैं। अब वे बूंदें नहीं तूफान बरसाते हैं। यही उन्होंने बद्रीनाथ में किया। संकट की दूसरी तैयारी हमने उत्तराखंड के पहाड़ों में की, वहां के जंगल काट दिए और जला दिए। अब पानी की धार को कौन रोकेगा? ये धार बांधों से नहीं रुकने वाली। ये धार जल्दी ही बांधों को भी बहाकर ले जाने वाली है।
 
वर्ष 2013 में आई बाढ़ को अपवाद माना गया और सब सोचने लगे कि आपदा टल गई, भले ही 2-4 हजार की जान लेकर; पर वर्ष 2014 में आपदा फिर से आई। इस बार कश्मीर की घाटी में। यहां भी वही बात मन में आई कि कश्मीर तो पहाड़ पर बसा है, पानी आएगा और बहकर नीचे चला जाएगा। यहां रुकेगा थोड़े, पर रुक गया और ऐसा रुका कि बस साढ़े साती की तरह जम गया... लोग कह रहे हैं साढ़े 7 साल तक यह बाढ़ हर रोज दिन और रात हमारे साथ रहने वाली है। 
 
श्रीनगर का उदाहरण लीजिए। यह एक कटोरे के रूप में बसा हुआ शहर है। झेलम नदी इसके बीच से गुजरती है। कहीं एकाध हिस्सा था, जहां से अतिरिक्त मात्रा में आया पानी बहकर निकल जाता था। वहां वर्ष 1902 में कुछ ऐसी की बाढ़ आई थी। फिर राजनीतिक उथल-पुथल हुई और अब भी चल रही है। सबने कहा कि विकास करेंगे, इससे स्थिरता आएगी। बस इसी विकास के चलते वो नहरें और धारा बिंदु मिटा दिए गए, जहां से श्रीनगर का पानी बाहर निकलता था। वहां इमारतें बन गईं। सड़कें बन गईं। तो यह चौथी तैयारी हमने की कि जब आपदा आएगी तो उसे निकलने के स्थान भी बंद कर दिए। हम विकास का यह गीत गाते हुए खुश हो रहे थे कि प्रकृति को उल्लू बनाया, बड़ा मजा आया...! पर यह भ्रम था। 
 
असम और अरुणाचल प्रदेश में भी पिछले साल बाढ़ आई थी और कोई 2 लाख लोग बर्बाद हो गए। इस साल फिर कश्मीर के बाद उत्तर-पूर्व में बाढ़ आ गई। यह जान लीजिए कि बाढ़ या सूखा किसी भी क्षेत्र में यदि चरम की स्थिति में जा रहे हैं और बार-बार हो रहे हैं, तो इसका मतलब है कुछ गंभीर रूप से गड़बड़ है। यह एक्ट ऑफ गॉड (भगवान का किया-धरा) नहीं है। यह एक्ट ऑफ ह्यूमन बीइग है यानी इंसान का किया-धरा। 
 
हम वास्तव में किसी को मूर्ख बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए अब बीमा कराया जाता है और सरकार मुआवजा देती है। राहत कार्यों से नदी की बाढ़, आसमान से बरसने वाले प्रलय और हिमालय की बढ़ती ऊंचाई को कुछ समझ पाएंगे क्या? हर बाढ़ अब पहाड़ों की एक परत को बहा ले जाती है। हर बाढ़ खेत की मिट्टी की सबसे जिंदा परत को उखाड़कर ले जाती है। इसका मतलब यह है कि एक बार की राहत या मुआवजे के अब कुछ न होगा। अगले साल बाढ़ न भी आई, तो खेतों में क्या और कितना उगेगा? किस सरकार या कंपनी में इतनी दम है कि वह उत्तराखंड के पहाड़ों का पुनर्निर्माण करने वाली परियोजना चला सके? या किसान के खेतों के लिए अपने कारखाने में मिट्टी बना सके! 
 
बाढ़ उतना बड़ा संकट नहीं है, संकट यह है कि हम विश्व निर्माण की मूल कथा और उसके विज्ञान को जानना नहीं चाहते हैं। जिस दिन हम यह जान लेंगे कि एक नया घर बनाते समय जो हम फेंक देते हैं, वह मलबा नहीं, बल्कि हमारे अपने अवशेष हैं। हमारा जीवन कुछ सालों का नहीं, बल्कि करोड़ों सालों सालों का है। कोई न्यायालय, कोई समिति और कोई सरकार इतनी ईमानदार नहीं है कि वह यह कह सके कि यह आपदा नहीं, हमारे अपराध हैं।

 

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