मकर संक्रांति : सूर्य के स्वागत में सजता सृजन और समर्पण का उत्सव

सेहबा जाफ़री
बहुत सुन्दर त्योहारों की मनोहर धरा का नाम है भारत। सकारात्मकता एवं सहज अनुभूतियों को समेट कर जीने वाले भोलेभाले लोग एवं उनकी रग रग में बसी रंग बिरंगी परम्पराएं। इन परम्पराओं की सुन्दर रंगोली का सबसे प्रखर एवं प्रकीर्णित रंग है मकर संक्रांति। धरती के ठिठुरे, ठिठके मटमैले आँचल के फिर से धानी हो उठने का सुन्दर उत्सव। कच्ची कचनारी धरा के कौमार्य वसन का रवि के किरण किरण हाथों द्वारा प्रथमत: स्पर्श किये जाने का उत्सव; धरती के कोरे कपोलों पर सूरज द्वारा प्रथम प्रणय आकृतियों के अंकन का उत्सव। सृजन का उत्सव, समर्पण का उत्सव; धरती के रोम रोम में सूरज के स्पर्श से जन्मे स्पन्दन का उत्सव। 
 
हेमंत की हिमाद्रियां अपनी वाक् विदग्धता से जब प्रोषितपतिका पृथ्वी की ऊष्मा को पाले सा ठंडा कर देती हैं, परदेस को पलायन किये बैरी पिया के वियोग में उत्तर की उत्तरा चीत्कार उठती है। उस चीत्कार की मार्मिकता प्रकाशमयी पिया को तिल तिल कर उत्तरायण होने पर विवश कर देती है, तब शीत का ऊष्णता से प्रथम मिलन होता है और सारी प्रकृति झूम उठती है। कहीं खिचड़ी, कहीं माघी, कहीं पोंगल, कहीं बिहू, कहीं लोहड़ी तो कहीं मकर संक्रांति। कितना सहज रहस्योदघाटन है, "जब सांसारिक प्रणय का वासनामयी प्रेम आकार लेता है तो अंधकार लंबा हो जाता है और जब परमात्मा के प्रकाश का आत्मा की ऊष्मा से मिलन होता है तो दिवस स्वतः लम्बे हो जाते हैं।” दिवस अर्थात अनंत सत्ता की स्वीकारोक्ति, दिवस अर्थात आत्मा में प्रकाश का आलोढन।

कश्मीर से कन्याकुमारी हो अथवा हमारा प्रतिवेशी नेपाल,  उत्तर में जम्मू हो या दक्षिण में केरल, संक्रांति की छटा हर एक प्रांत में बड़ी ही मनोहारी होती है। कहीं यह उत्तरैण है, कहीं अत्री, कहीं माघी संगरांद तो कहीं लोहरी।  उत्तर और दक्षिण की संस्कृतियों में भरपूर वैषम्य होने पर भी तीज की छटाएं और दूज के अंकुर सब जगह समान ही होते हैं। सभ्यताएँ बनती है, मिटती हैं, छंटती हैं और पुनः आकार ग्रहण कर लेती हैं, संस्कृति की अबाध धारा बहती जाती है, काल, योजन, संवत और सहस्त्राब्दियाँ सबकुछ उसमें प्रवाहित हो जाता है और जो बचा रह जाता है वह है जिजीविषा। बनने मिटने के दर्द को मन से मिटाने के लिए यही अदम्य जिजीविषा पुनः अपने पग में घुंघरु बाँध नर्तन करने लगती है फिर चाहे सृजन हो अथवा विध्वंस। काल से ताल मिलाना ही इन त्यौहारों का उद्देश्य बन जाता है।
 
जम्मू के प्रसिद्ध डोगरा घराने के लोग इस दिन माह दी दाल की खिचड़ी का दान कर पुण्य कमाते हैं तदोपरांत स्वयं भी उस ही खिचड़ी का उपयोग करते हैं इसलिए इसको 'खिचड़ी वाला पर्व' भी कहा जाता है। उत्तर के शांत हिमाच्छादित प्रांत संक्रांति की हलचल से रुनझुन कर उठते हैं। जम्मू के हिमशिखर बावा आम्बो का डोला निकाल उनका जन्मदिवस मनाते हैं तो देविका के तट पर दीपदान की टिमटिम बातियाँ ऐसी प्रतीत होती हैं मानो आकाश अपने तारामंडल समेत धरा पर उतर आया हो। उत्तरबैह्नी और पुरमण्डल के साथ ही धगवाल और उधमपुर, सब के सब उत्सवों मे डूब जाते हैं। जम्मू के सघन देवदारों के झुरमुटों में घिरा, बर्फ से ढंका और सघन चिनारों के लाल हुए पत्तों की ललछौंही रहस्यमयता समेटे भद्रवाह के वासुकी मन्दिर की रत्नजडित नाग प्रतिमा आज के दिन घृत-भोग से अघा जाती है। 
 
उत्तर प्रदेश की संस्कृति में इस दिन दानपुण्य का बड़ा महत्व है। खरमास के समापन के पश्चात संगमस्नान के साथ सूर्य के नए आभामण्डल के स्वागत पूजन के उत्सव के तौर पर ही यहां मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है। 14 जनवरी यानी मकर संक्रान्ति से पृथ्वी पर अच्छे दिनों की शुरुआत होती है इसी मान्यता के अनुसार यहाँ चौदह दिसंबर से चौदह जनवरी  तक संगम तीरे बड़े से माघी मेले का आयोजन किया जाता है। मेले का पहला स्नान मकर संक्रान्ति से शुरू होकर शिवरात्रि के आख़िरी स्नान तक चलता है। बागेश्वर का मेला, जागीश्वर का मेला, रामेश्वर का गंगा स्नान, चित्रशिला का मेला, गंगा और रामगंगा क्षेत्र के स्नान और मेले, बंगाल में गंगा सागर, तमिलनाडु में पोंगल स्नान, और असम में बिहू स्नान के साथ समूचे आर्यावर्त में स्नान की लहर सी चलती हुई प्रतीत होती है। अंतस के प्रकाश को अंतस के अमृत पर केन्द्रित कर मनीषियों के उस सूत्र को सार्थक करते हैं जिसके लिए ऋषियों द्वारा कहा गया है, “सदा दीप्तिः अपार अमृत वृत्तिः स्नान्म”। ‘अंतस प्रकाश में तथा अंतस अमृत में निरंतर केंद्रित रहना ही पूजा की तैयारी के लिए स्नान है’। संक्रांति और स्नान, संक्रांति और दान, संक्रांति और तिलगुड़ , संक्रांति और पतंगों का साथ होना क्या महज सुन्दर संयोग है?
 
प्रकाश इस मृत्यु जगत की सबसे रहस्यमयी वस्तु है; वह जो बिना जीवन के भी संभव है किंतु जिसके बिना जीवन संभव नहीं; वह जिसका गमन निर्वात में भी हो सकता है किन्तु जो निर्वात के बोध के लिए भी आवश्यक है ; वह जो अस्तित्व के लिए शुद्धतम ऊर्जा है, जिसके बिना किसी पदार्थ का कोई पार्थिव रूप नही। वही प्रकाश जो अपने प्रकीर्णन की दिशा के परिवर्तन के साथ ही स्वयं पर निर्भर बहुत से चरों की ऊर्जा की दिशा में भी गहन परिवर्तन कर देता है उसी प्रकाश के शुद्ध रूप के द्वारा शरीर में होने वाले परिवर्तनों को संतुलित करने हेतु मनीषियों ने स्नान को संक्रांति से जोड़ा था। प्रकाश की वह शुद्धतम ऊर्जा जो धरती पर सृजन का कारण होती है कई अर्थों में मानव शरीर इस शुद्ध ऊर्जा का वहन नहीं कर पाता, परिणामस्वरूप यह विध्ध्वंस का कारक भी हो सकती है। 
 
इस संदर्भ में पारसियों की पुरानी कथाओं में वर्णित मूसा द्वारा ईश्वर को देखने के हठ के फलस्वरूप प्रकाशतीव्रता से पवित्र पर्वत का जल जाना एवं मूसा का मूर्छित हो जाना उल्लेखनीय है कि किस प्रकार सृजनात्मक शक्तियों का अतिरेक विध्वंस का कारण भी हो सकता है। प्राचीन धर्मों ने प्रकाश को ईश्वर कहा है नवीन धर्मों ने ईश्वर को प्रकाश कहा है। मुहम्मद द्वारा कुरान में उल्लेखित ईश्वरीय रूप प्रकाश है। जीसस के यहोवा का प्रकीर्णित रूप प्रकाश है और नानक की गुरुवाणी कहती है ," अव्वल अल्लाह नूर उपाए कुदरत के सब बन्दे"।  प्रकाश का वही रूप जिसका आचमन शक्ति का स्त्रोत है, उस शक्ति के संतुलन का वैज्ञानिक रहस्योद्घाटन सनातन धर्म के परंपराओं से होता है। 
 
घोर सनातनी शाक्य हो सकते हैं किन्तु वे शक्ति के मद में अंधे नहीं हो सकते। शक्ति संचयन उनके लिए सर्जन के रूप में पूजित है किन्तु गरजन के रूप में सर्वथा वर्जित। शक्ति के मद में अंधे प्राणी को वे रावण कहते हैं। इसी से जलअंजुरी का आचमन कर वे सूर्य के ऊष्मातिरेक का सामना कर स्वयं को संतुलित करते हैं। संतुलन की इसी धरती का नाम भारत भूमि है जहां राम पित्रेच्छा से वानप्रस्थ हुए, सर्वस्व त्याग कर सिद्धार्थ बुद्ध कहलाये, अशोक ने शस्त्र त्याग दीक्षा ले ली और आम्रपाली ने वैभव त्याग भिक्षा ले ली। धन, वैभव और शक्ति कुछ भी भारत के मनीषी मस्तिष्क को बांध नहीं पाया अंततः मोक्ष की चाह ही हमारी अंतिम इच्छा रही। मोक्ष अर्थात आत्मा का अंतिम सत्य।
 
 भारत के 72 सफ़लतम लोकतंत्र इस बात के साक्षी हैं की भारतीय नश्वर का मोह नहीं करता फिर चाहे वह यश हो धन हो अथवा सत्ता ही क्यों न हो। हमारे लोकतंत्र ने कभी ऐसा दुर्दिन नहीं देखा जैसा अमेरिकी कैपिटल ने। ट्रैम्प की तरह सिंहासन का मोह हमारे चक्रवर्ती सम्राटों में कभी नहीं रहा। सत्ताएं आईं, सरकारें गिरीं, किंतु लोकतंत्र सर्वोपरि रहा। हम हारे तो विचारों की पतंगों को ऊंचा उड़ाया, हम जीते तो तिलगुड़ खाया। वैभव और शक्ति के आधिक्य ने हमें अंधा कभी नहीं बनाया। हम सदैव उजाले का समर्थन करने वाली संस्कृति रहे। 
 
कितने क्रांतिकारी संक्रांति काल गुज़र गए। पीढ़ियां कितनी बदल गईं। किंतु हम अधोगामी नहीं हुए। हमारे युवाओं के संस्कार सूर्य के स्वागत के ही रहे। लाख लापरवाह हो, कोरोना काल में हमारे युवाओं ने देश की सेवा की।  प्रधान मंत्री राहत कोष में मुक्त हस्त से दान दिया। श्रम, सेवा साधना किसी से नहीं चूके। भले ही वे पृथ्वी को प्रकाशित करने वाली ऊर्जा उत्सर्जित नही कर पाये पर पृथ्वी को जीवित रखने जितना प्रेम तो दे ही गये। अंततः प्रेम प्रकाश का ही तो पर्यायवाची है जिसे हमने कभी राधा के रक्ताभ कपोलों के रूप में पूजा, कभी कृष्ण की बांसुरी के रूप में। हर रूप में आत्मा ने प्रकाश पाया और मैं बारंबार पुकार उठा, "तमसो माँ ज्योतिर्गमय"।

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