क्या ‘केजरीवाल फॉर्मूला’ बदलेगा राजनीति का चेहरा..?

ऋतुपर्ण दवे
क्या भारतीय राजनीति में दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 के नतीजों ने वायदों को नकारने और हकीकत को स्वीकारने एक नई शुरुआत कर दी है? या भारतीय मतदाता ने अपनी परिपक्वता पर मुहर लगा बता दिया कि कौन कितने पानी में है? निश्चित रूप से धड़कनें तो सभी दलों की बढ़ गईं हैं क्योंकि कथनी और करनी के बीच फरक करने की मतदाताओं की निपुणता ने दिग्गजों की अटकलों को ध्वस्त जरूर कर दिया।

दिल्ली नतीजों के ट्रेन्ड ने अक्टूबर-नवंबर में होने वाले बिहार व अप्रेल-मई 2021 में प. बंगाल में संभावित विधानसभा चुनावों को लेकर वहां राजनीतिक दलों की परेशानी खासी बढ़ा दी है।

जिसका काम दिखेगा, सत्ता तक वही पहुंचेगा की नई शुरुआत ने जुबानी जमा खर्च और जुमलों के सहारे जीतने के मंसूबों को बुरी तरह से ध्वस्त कर खलबली मचा दी है। आम आदमी पार्टी की लगातार तीसरी और 2015 सरीखे भारी, भरकम सफलता ने देश ही नहीं दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को सोचने को तो मजबूर कर ही दिया।

वहीं कांग्रेस के लिए अस्तित्व बचाए रखने की नई चुनौती भी पेश कर दी। इसके साथ ही केन्द्र और राज्य की राजनीति का असली फर्क भी जतला दिया तथा हर कहीं व्यक्ति केन्द्रित राजनीति, मतदाताओं का ध्रुवीकरण, जात-पांत की खाई, और नकारात्मकता के प्रवाह के जरिए वोट हासिल करने वालों को आगाह भी कर दिया है। दिल्ली में वोट प्रतिशत के लिहाज से भी एक अलग नजारा दिखा जिसका अलग बारीकी से विश्लेषण होगा व नतीजों को दूसरे दृष्टिकोणों से भी देखा जाएगा।

अलबत्ता केजरीवाल की जीत को लेकर संदेह किसी को नहीं था, हां सारे सर्वेक्षणों का निचोड़ भी सभी को जोड़कर औसत ही दिखा। यानी चुनाव के पहले ही जीत की सच्चाई सबको पता थी पर आंकड़ों की सच्चाई हमेशा ऊपर नीचे दिखी है।

दिल्ली के नतीजों से इतना तो साफ हो गया है कि केन्द्र हो या राज्य सभी सरकारों को जनता की कसौटी पर खरा उतरना ही होगा वरना हिसाब-किताब करने में माहिर मतदाता जरा सी भी चूक नहीं करेगा। इसके अलावा केन्द्र और राज्य की राजनीति का फर्क भी उसी मतदाता ने समझा दिया है जिसने पिछले आम चुनाव में दिल्ली में लोकसभा की सभी सातों सीट पर भाजपा को बड़े बहुमत से वोट देकर झोली भरी थी उसे ही महज 9 महीनों में हासिए पर पहुंचा दिया।

विकास के मुद्दे और जनसरोकारों से सीधे जुड़ने की आम आदमी पार्टी की हकीकत ने केन्द्र में अपने दम पर पूर्ण बहुमत पा चुकी भाजपा को विधानसभा में औंधे मुंह गिरने को मजबूर कर दिया।

वायदों और क्रियान्वयन को लेकर आम आदमी पार्टी की एक नई केमेस्ट्री की शुरुआत हो चुकी है जो विधानसभा के रास्ते लोकसभा के सफर पर निकल सकती है। दिल्ली के चुनाव में न नकारात्मक राजनीति ही चली और न ही मतदाताओं का ध्रुवीकरण दिखा। यदि ऐसा होता तो पूर्वांचल के मतदाताओं की 40 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ नतीजे कुछ और ही होते तथा भाजपा को और ज्यादा सीटें मिलती। जाहिर है दिल्ली विधानसभा के इस चुनाव ने राजनीति की नई परिभाषा गढ़ी है और वह है वायदे, जो हकीकत में पूरे होते दिखे।

जाहिर है दिल्ली में सरकारी स्कूलों के बदले रंग रूप और बेहतरीन पढाई, मोहल्ला क्लीनिकों की असरदार स्वास्थ्य सुविधा, लंबे-चौड़े बिजली बिलों से छुटकारा ऊपर से 200 यूनिट फ्री बिजली का तोहफा,  महिलाओं को सम्मान के साथ डीटीसी की बसों में मुफ्त सवारी की सुविधा, पानी के बिलों में कटौती और नए जमाने में युवाओं को लुभाने फ्री वाई-फाई यानी करीब आधा दर्जन वो हकीकत जो सीधे-सीधे आम आदमी से जुड़ी हैं और जेब पर असर डालती हैं।

शायद बड़े-बड़े लोकलुभावन वायदों की फेहरिस्त से ऊब चुका मतदाता थोड़े से ही लेकिन असर डालने वाले वायदों पर अमल से कितना खुश हो जाता है। निश्चित रूप से चाहे फ्री बिजली हो या पानी यह केवल जेब की बचत नहीं बल्कि बचत की आदत को बढ़ाने जैसा रहा। वरना कई राज्यों में फ्री लैपटॉप, रंगीन टीवी, सस्ता खाना और हाल में घर-घर शौचालय, सस्ता और अनिवार्य बीमा, उज्ज्वला के तहत मुफ्त सिलेण्डर, किसानों को नकद सहायता जैसी तमाम सुविधाओं के मुकाबले दिल्ली से निकला महज आधा दर्जन मदद फॉर्मूला ज्यादा असर दिखा गया। निश्चित रूप से सरकारी स्कूल, अस्पताल, दवा, बिजली, पानी वो अहम मुद्दे होंगे जो अगले चुनावों में हर राज्य में सभी दलों के लिए खास होने वाले हैं।

यह वही आम आदमी पार्टी है जो 26 नवंबर 2012 को  दिल्ली के जंतर-मंतर में भारतीय संविधान अधिनियम की 63 वीं वर्षगांठ के अवसर पर सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के लोकपाल आन्दोलन से जुड़े तमाम सहयोगियों के आन्दोलन से उपजी और दिल्ली में मजबूत पकड़ बनाई तथा अनेकों नामी, गिरामी हस्तियां जुड़ती गईं। बाद में उसी तेजी से तमाम हस्तियों ने आम आदमी पार्टी से खुद को अलग भी कर लिया या फिर पार्टी ने ही बाहर जाने को मजबूर कर दिया।

एक बार तो यह भी लगने लगा था कि अकेले केजरीवाल कब तक चल पाएंगे। लेकिन दिल्ली की नब्ज को पकड़ चुके केजरीवाल ने चंद भरोसेमंद सहयोगियों के सहारे ही भारतीय राजस्व सेवा की अपनी काबिलियत का इस्तेमाल किया और वायदों की फेहरिस्त के बजाए जनसाधारण से सीधे जुड़कर असर डालने वाले गिने-चुने अहम मुद्दों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया और बिना भटके जुटे रहे। उन्होंने यह साबित कर दिया कि मजबूत इच्छा शक्ति और काम करने की नीयत के आगे चुनौती कुछ हो ही नहीं सकती।

शायद तमाम राज्य सरकारों के लिए केजरीवाल फॉर्मूले को अब गंभीरता से देखना और समझना जरूरी होगा। इस बात को लेकर भी कोई चूक नहीं करनी होगी कि मतदाता घोषणा, वचन या आश्वासन के फेर में अब उलझता नहीं दिखता बल्कि उसे ऐसी गारण्टी चाहिए जो कार्यकाल पूरा होने से पहले धरातल पर दिखे। केजरीवाल ने जनता के इसी मर्म को समझा तभी तो वह तमाम दलों के दलदल और पार्टी में आयाराम-गयाराम से बेफिक्र होकर अपने किए कामों के ब्यौरों का ताल दिल्ली चुनाव के दौरान ठोंकते रहे और विरोधियों की उत्तेजना, बड़बोलेपन, जात-पात का खेल या असंतुलित जुबान पर भी अपनी चिर परिचित मुस्कान बिखेर दिल्ली वासियों का दिल जीत ले गए। हां अब तमाम उन राज्य सरकारों के लिए जरूर नई चिन्ता की लकीर माथे पर है जो जनता से वायदे तो लंबे-चौड़े कर देती है पर अमल वह अमल से कोसों दूर रहते हैं।

संभव है कि चुनावी राजनीति में काम करने के नए सफल फॉर्मूले के सफल प्रयोग से उत्साहित अरविन्द केजरीवाल अपनी बढ़ी लोकप्रियता और संतुलित बोलने की कला के सहारे 2024 के आम चुनावों के डगर पर भी चल निकले हैं और मिस्ड काल के जरिए जुड़ने का आव्हान कर पूरे देश में अपनी पार्टी के लिए नया जनाधार की तैयारी अभी से करते दिख रहे हैं। सबसे बड़ी बात जो इन नतीजों के बाद सामने आई उसमें आप की चुनावों से कई महीने पहले उम्मीदवारों की घोषणा और उनको अपने क्षेत्रों में लग जाने की हिदायत रही। इतना तो तय है कि राजनीति की दशा को बदलने के लिए दिल्ली के 2020 मुकाबलों ने नई इबारत गढ़ी दी है जो अगले चुनावों में साफ दिखेगी।

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