अयोध्या के सदियों पुराने विवादित स्थल स्वामित्व वाद पर फैसला सुनाने वाली पीठ में शामिल न्यायाधीश न्यायमूर्ति सिबगत उल्ला खान ने फैसले के प्राक्कथन में विवादित भू-भाग को संवेदनाओं के बारूद से युक्त सुरंगों से भरी जमीन करार देते हुए कहा कि कहने को तो यह भूमि का छोटा-सा टुकड़ा है, लेकिन यहाँ कदम रखने से पहले फरिश्ते भी सौ बार सोचेंगे।
खान ने कहा कि वह जमीन संवेदनाओं के बारूद से बनी अनगिनत सुरंगों से भरी है, जिन्हें हमें अपने साथी न्यायमूर्तियों के साथ मिलकर साफ करना है। उन्होंने लिखा कि कुछ बेहद सचेत और बुद्धिमान लोगों ने हमें सलाह दी कि हम यह खतरा न उठाएँ, जल्दबाजी करने का ऐसा जोखिम नहीं उठाना चाहिए कि संवेदनाओं के विस्फोट में हमारे चीथड़े उड़ जाएँ।
बहरहाल, हमें तो जोखिम लेना ही था क्योंकि कहते हैं कि कोई जोखिम उठाने का साहस न दिखा पाना ही जीवन में सबसे बड़ा जोखिम है और खासकर तब जबकि वह आँख से आँख मिलाकर रूबरू हो।
अपने 285 पृष्ठों के निर्णय से पहले लिखे प्राक्कथन में न्यायमूर्ति खान ने लिखा कि कोई भी न्यायाधीश स्वयं यह निर्णय करने की स्थिति में नहीं होता कि वह न्याय करने के प्रयास में सफल हुआ है अथवा नहीं।
उन्होंने कहा कि कभी ऐसा भी होता है कि फरिश्तों को इन्सान के आगे झुकना पड़ता है और कभी-कभी व्यक्ति को इस सम्मान को न्यायसंगत साबित करना पड़ता है। हम कुछ वैसे ही मुकाम पर हैं, जहाँ मालूम नहीं कि हम कामयाब हुए हैं या नाकाम। कोई भी व्यक्ति अपने कृत्यों पर न्यायाधीश की भूमिका नहीं निभा सकता।
खान ने अपने प्राक्कथन को इन शब्दों के साथ समाप्त किया है कि ...और यह मेरा वह निर्णय है जिसके लिए पूरा देश साँसें थामकर इंतजार कर रहा है।
मंदिर को ध्वस्त नहीं किया : न्यायमूर्ति खान ने अपने फैसले में कहा कि विवादित स्थल पर मस्जिद का निर्माण करने के लिए किसी मंदिर को ध्वस्त नहीं किया गया था। उन्होंने कहा कि मस्जिद का निर्माण मंदिर के भग्नावशेषों पर बाबर के आदेश पर किया गया था। मंदिर के भग्नावशेष राज्य में काफी लंबे समय से ऐसे ही पड़े थे।
अपने अवलोकन में न्यायाधीश ने कहा कि मस्जिद के निर्माण से काफी समय पहले हिंदुओं का मानना था कि विवादित क्षेत्र के बेहद थोड़े से हिस्से में भगवान राम की जन्मस्थली थी। हालाँकि यह मान्यता विवादित स्थल पर बड़े क्षेत्र के भीतर किसी विशिष्ट लघु क्षेत्र से जुड़ी हुई नहीं है।
उन्होंने कहा कि 1855 से काफी पहले राम चबूतरा और सीता रसोई अस्तित्व में आ गई थी और हिंदू प्रतिमाओं की पूजा कर रहे थे। यह काफी अद्भुत और बिलकुल बेमिसाल स्थिति थी कि मस्जिद की चहारदीवारी और परिसर के भीतर वहाँ हिंदू धार्मिक स्थल थे, जहाँ पूजा की जा रही थी तो दूसरी ओर मस्जिद में मुस्लिम नमाज अदा कर रहे थे।
न्यायमूर्ति खान ने कहा कि दोनों पक्ष इस बात को साबित करने में विफल रहे हैं कि उनके मालिकाना हक की शुरुआत कब से हुई और इसलिए साक्ष्य अधिनियम की धारा 110 के अनुसार दोनों पक्षों को संयुक्त कब्जे के आधार पर संयुक्त मालिक ठहराया जाता है।
न्यायमूर्ति खान ने कहा कि वर्ष 1949 से कुछ दशक पहले हिंदुओं ने मस्जिद के मध्य गुंबद के नीचे के स्थल (जहाँ फिलहाल अस्थायी मंदिर है) को भगवान राम का सटीक जन्मस्थल मानना शुरू कर दिया। पहली बार 23 दिसंबर 1949 के तड़के मध्य गुंबद के नीचे प्रतिमा रखी गईं।
अपने आदेश में न्यायाधीश ने कहा कि सभी तीनों पक्षों हिंदुओं, मुस्लिमों और निर्मोही अखाड़ा को विवादित परिसर का संयुक्त मालिक घोषित किया जाता है और पूजा के लिए इस्तेमाल करने और प्रबंधन करने के लिए प्रत्येक का एक बटा तीन-एक बटा तीन हिस्सा होगा।
हालाँकि उन्होंने साफ कर दिया कि अंतिम निर्णय में मध्य गुंबद के नीचे वाला हिस्सा, जहाँ फिलहाल प्रतिमा रखी हुई है उसे हिंदुओं को आवंटित कर दिया जाएगा। न्यायाधीश ने निर्देश दिया कि निर्मोही अखाड़े को राम चबूतरा और सीता रसोई वाला हिस्सा आवंटित किया जाएगा।
उन्होंने स्पष्ट किया कि अगर भूमि का आवंटन करने के दौरान थोड़ा बहुत मामूली समायोजन किया जाता है तो प्रभावित पक्ष को केंद्र सरकार द्वारा पास में अधिग्रहीत की गई भूमि में से कुछ हिस्सा देकर इसकी भरपाई की जानी चाहिए। (भाषा)