भक्ति का प्रारंभ तब होता है जब आप संतों का, भक्तों का संग करते हैं लोग पूछते हैं महाराज, भक्ति कैसे आए जीवन में? तो यहीं से शिक्षा लीजिए न। सब कुछ करिए लेकिन एक काम जरूर करिए, अगर संत बनना है तो संतों का साथ करिए, अच्छा बनना है तो अच्छे का साथ करिए और डाकू बनना है तो डाकू का साथ करिए।
पहला काम है संग। संत-ऋषि कहते थे पहले विचार करो कि तुम्हारी कंपनी कैसी है, तुम किन लोगों में बैठते-उठते हो, तुम्हारे साथी संगी कैसे हैं? पता नहीं लगेगा किस दिन कितना असर हो जाएगा? पर ध्यान रखना जैसे लोगों का संग करोगे एक दिन वैसे ही हो जाओगे।
प्रथम भक्ति है संतन कर संगा यानी भक्ति के रास्ते में आना है तो महात्माओं का संग करना प्रारंभ कर दो। और दूसरी भक्ति क्या होगी, जब संतों का संग करोगे, संतों के जीवन में मस्ती देखोगे तो आपको भी वैसी ही मस्ती मिलेगी। संत के जीवन को दुख, द्वंद्व, द्वेष कभी स्पर्श नहीं कर सकते। प्रत्येक परिस्थिति को जो आनंदमय बना देते हैं, प्रत्येक घटना को जो आनंद में बदल देते हैं, वे संत होते हैं।
आज आप साधु का संग करेंगे तो साधु का रहन-सहन देखेंगे, उनके जीवन की मस्ती देखेंगे तो जरूर यह जिज्ञासा होगी कि यह मस्ती आई कहां से इनके पास? जो उनकी साधना है, उनका भजन है, उनके कथा प्रवचन हैं उसमें जाने की रुचि होगी और जब वे विरक्त महापुरुष मस्ती से कथा करेंगे, तब उसमें रस आएगा, आनंद आएगा। कहने का तात्पर्य यह है कि जब मन को रस मिलेगा, तब आपसे रहा ही नहीं जाएगा।
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तीसरी भक्ति में दो बातों पर ध्यान देना है- एक है सेवा और दूसरा अपमान। सेवा तो सब लोग कर रहे हैं। कोई बच्चों की सेवा कर रहा है, कोई समाज की सेवा कर रहा है। किसी न किसी रूप में सब सेवा कर रहे हैं लेकिन संसार की सेवा करने का फल कुछ मिलने वाला है नहीं। तो प्रश्न है कि सेवा करें तो किसकी करें?
इसका जवाब है कि गुरु की सेवा करें। सेवा समझनी पड़ेगी। भरतजी जब प्रभु को मनाने के लिए चित्रकूट जा रहे थे तब घोड़े उनके साथ में थे लेकिन वे पैदल जा रहे थे-
इसर पर जाउं उचित उस मोरा। सर ते सेवक धरमु कठोरा।
बड़ा विलक्षण प्रसंग है। घोड़े साथ में जा रहे थे, भरतजी पैदल जा रहे थे। माताओं की पालकियों को आगे भेज दिया था। पहले दिन के पड़ाव पर लोगों ने देखा कि भरती जी के पैरों में छाले पड़े हैं। माताओं ने कहा कि लाल, तुम्हारे पैरों में अभी से छाले पड़े हैं तो तुम यात्रा कैसे पूरी करोगे? भरतजी की आंखों में आंसू आ गए।
बोले मां, सेवक का जो धर्म है वह पूरा तो मैं पालन नहीं कर रहा हूं, पर मैं जितना कर रहा हूं उतने में भी आप व्यवधान क्यों डालती हैं। आप कहेंगी तो मुझे घोड़े पर बैठना पड़ेगा, इसलिए आप ऐसा मत कहिए और वहां पर भरतजी ने सेवा धर्म को सबसे कठोर धर्म बताया है। वे कहते हैं, मां, मेरे प्रभु, चित्रकूट की यात्रा में पैदल गए और मैं उनका सेवक घोड़े पर चढ़कर जाऊं, रथ में बैठकर जाऊं? मुझको तो सिर के बल जाना चाहिए-
सिर पर जाउं उचित अस मोरा। सर ते सेवक धरमु कठोरा।
कहने का आशय यह है कि आप अपनी मान्यता के अनुसार आराध्य की सेवा करते हैं, यदि आपको पता है कि यह आपके आराध्य को पसंद नहीं है तो आप उसे बंद कर दीजिए। यदि पता नहीं है तो पता लगाने की बुद्धि रखिए कि हमारे आराध्य को क्या पसंद है और क्या पसंद नहीं है। सावधान रहिए! अगर आपको गुरु के पास जाना है, आराध्य के पास जाना है तो अपनी मान्यताओं को छोड़ दीजिए।