फल्गुन मास की कृष्ण दशमी के दिन स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म हुआ था। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार उनकी जयंती 15 फरवारी 2023 को मनाई जा रही है। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती के लाखों अनुयायी हैं। अधिकतर पंजाब, हरियाणा और उत्तर भारत में उन्हें मानने वाले लोगों की संख्या अधिक है। हालांकि देशभर में ही उनके आर्य मंदिर और आश्रम हैं।
1. समाज-सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म मोरबी के पास काठियावाड़ क्षेत्र जिला राजकोट, गुजरात में 12 फरवरी सन् 1824 में हुआ। तिथि के अनुसार फल्गुन मास की कृष्ण दशमी के दिन उनका जन्म हुआ था।
2. मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण उनका नाम मूलशंकर रखा गया था। उनकी माता का नाम अमृतबाई और पिता का नाम अंबाशकर तिवारी था।
3. स्वामीजी ने 1846, 21 वर्ष की आयु में सन्यासी जीवन का चुनाव किया और अपने घर से विदा ली। उनके गुरु विरजानंद थे।
4. स्वामी दयानंद सरस्वतीजी ने सन् 1875 में 10 अप्रैल गुड़ी पड़वा के दिन मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी। 1892-1893 ई. में आर्य समाज में दो फाड़ हो गई।
5. आर्य समाज में फूट के बाद बने दो दलों में से एक ने पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन किया। इस दल में लाला हंसराज और लाला लाजपत राय आदि प्रमुख थे। इन्होंने 'दयानन्द एंग्लो-वैदिक कॉलेज' की स्थापना की। इसी प्रकार दूसरे दल ने पाश्चात्य शिक्षा का विरोध किया जिसके परिणामस्वरूप विरोधी दल के नेता स्वामी श्रद्धानंद जी ने 1902 ई. में हरिद्वार में एक गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की। इस संस्था में वैदिक शिक्षा प्राचीन पद्धति से दी जाती थी। इससे स्वामी श्रद्धानंद, लेखाराम और मुंशी राम आदि जुड़े थे।
6. स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिन्दू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया। दयानंद सरस्वती द्वारा चलाए गए 'शुद्धि आन्दोलन' के अंतर्गत उन लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में आने का मौका मिला जिन्होंने किसी कारणवश इस्लाम या ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। आज भी यदि कोई ईसाई या मुस्लिम पुन: अपने पूर्वजों के धर्म में आना चाहता है तो उसके लिए आर्य समाज के दरवाजे खुले हैं जहां किसी भी प्रकार का जातिवाद, बहुदेववाद, मूर्तिपूजा आदि नहीं है। शायद इसीलिए एनी बेसेंट ने कहा था कि स्वामी दयानन्द ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि 'भारत भारतीयों के लिए हैं।'
7. आर्य समाज के अनुसार ईश्वर एक ही है जिसे ब्रह्म कहा गया है। सभी हिन्दुओं को उस एक ब्रह्म को ही मानना चाहिए। देवी और देवताओं की पूजा नहीं करना चाहिए। स्वामीजी ने अपने उपदेशों का प्रचार आगरा से प्रारम्भ किया तथा झूठे धर्मों का खण्डन करने के लिए पाखण्ड खण्डनी पताका लहराई। स्वामी जी के विचारों का संकलन इनकी कृति 'सत्यार्थ प्रकाश' में मिलता है, जिसकी रचना स्वामी जी ने हिन्दी में की थी। दयानंद जी ने वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते हुए 'पुनः वेदों की ओर चलो का नारा दिया।' सत्यार्थ प्रकाश' में चौदह अध्याय हैं। स्वामी दयानंद सरस्वती की इस रचना (सन 1875) का मुख्य प्रयोजन सत्य को सत्य और मिथ्या को मिथ्या ही प्रतिपादन करना है।
8. सुधार आंदोलन :भारत में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए 1876 में हरिद्वार के कुंभ मेले के अवसर पर पाखण्डखंडिनी पताका फहराकर पोंगा-पंथियों को चुनौती दी थी। आर्य समाज एक हिन्दू सुधार आंदोलन है। इस समाज का उद्देश्य वैदिक धर्म को पुन: स्थापित कर संपूर्ण हिन्दू समाज को एकसूत्र में बांधना है। जातिप्रथा, छुआछूत, अंधभक्ति, मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद, पशुबलि, श्राद्ध, जंत्र, तंत्र-मंत्र, झूठे कर्मकाण्ड आदि के सख्त खिलाफ है आर्य समाज। आर्य समाज के लोग पुराणों की धारणा को नहीं मानते हैं और एकेश्वरवाद में विश्वास करते हैं।
9. कहा जाता है कि 1857 में स्वतंत्रता-संग्राम में भी स्वामी जी ने राष्ट्र के लिए जो कार्य किया वह सदैव मार्गदर्शन का काम करता रहेगा। स्वामी दयानंद जी का कहना था कि विदेशी शासन किसी भी रूप में स्वीकार करने योग्य नहीं होता। दयानंद सरस्वती जी ने अंग्रेजों के खिलाफ कई अभियान चलाए "भारत, भारतीयों का है' उन्हीं में से एक आंदोनल था। उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से भारतवासियों को राष्ट्रीयता का उपदेश दिया और भारतीयों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करते रहे। यही कारण था कि अंग्रेज उनसे नाराज हो गए थे।
10. स्वामी दयानंद सरस्वती जी 62 वर्ष की आयु में 30 अक्टूबर 1883 में वह दिवंगत हो गए थे। बता दें कि उन्हें धोखे से विष पिला दिया गया था। लेकिन इसके बाद भी उन्होंने विष पिलाने वालों को माफ कर दिया था। ये विचार स्वामी दयानंद सरस्वती जी के ही थे। कहा था कि, 'वेदों में वर्णित सार का पान करने वाले ही ये जान सकते हैं कि 'जिन्दगी' का मूल बिन्दु क्या है।' शायद इसलिए उन्होंने विष देने वाले को माफ कर दिया।