भगवान शिव की थीं चार पत्नियां?

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हिन्दू पुराणों में भगवान शिव के ‍जीवन का जो चित्रण मिलता है वह बहुत ही विरोधाभासिक और न समझ में आने वाला लगता है, लेकिन शोधार्थियों के लिए यह मुश्किल काम नहीं है। हालांकि समाज के मन में उनके नाम, जीवन और अन्य बातों को लेकर कोई स्पष्ट तस्वीर नजर नहीं आती।
पुराणों को पढ़ने पर पता चलता है कि सदाशिव और महेश दोनों अलग-अलग सत्ताएं थीं। शिव के जिस निराकार रूप की चर्चा की जाती है दरअसल वे पार्वती के पति नहीं है वे तो परब्रह्म सदाशिव हैं। उसी तरह शंकर को ही महेश कहा गया है। उक्त सभी से पहले हमें रुद्र के बारे में वेदों से ज्ञान प्राप्त होता है। खैर, यह एक अलग विषय है। अभी तो यह समझे कि ब्रह्मा के पुत्र राजा दक्ष की बेटी सती के पति भगवान शिव की कितनी पत्नियां थीं...
 
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माता सती के ही हैं शक्तिपीठ : पुराणों के अनुसार भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक प्रजापति दक्ष कश्मीर घाटी के हिमालय क्षेत्र में रहते थे। कुछ लोग इनका स्थान कहीं ओर बताते हैं। प्रजापति दक्ष की दो पत्नियां थी- प्रसूति और वीरणी। प्रसूति से दक्ष की चौबीस कन्याएं जन्मी और वीरणी से साठ कन्याएं। इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां और हजारों पुत्र थे। दक्ष की सभी पुत्रियों को किस न किसी रूप में भारत में पूजा जाता है और सभी को माता दुर्गा से जोड़ कर देखा जाता है।
राजा दक्ष की पुत्री 'सती' की माता का नाम था प्रसूति। यह प्रसूति स्वायंभुव मनु की तीसरी पुत्री थी। सती ने अपने पिती की इच्छा के विरूद्ध कैलाश निवासी शंकर से विवाह किया था।
 
हालांकि प्रजापति दक्ष ने ब्रह्मा की सलाह से ही भगवान शंकर को अपनी पुत्री ब्याही थी। लेकिन दक्ष इस विवाह से संतुष्ट नहीं थे।
 
दक्ष ने एक विराट यज्ञ का आयोजन किया लेकिन उन्होंने अपने दामाद और पुत्री को यज्ञ में निमंत्रण नहीं भेजा। फिर भी सती अपने पिता के यज्ञ में पहुंच गई। लेकिन दक्ष ने पुत्री के आने पर उपेक्षा का भाव प्रकट किया और शिव के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें कही। सती के लिए अपने पति के विषय में अपमानजनक बातें सुनना हृदय विदारक और घोर अपमानजनक था। यह सब वह बर्दाश्त नहीं कर पाई और इस अपमान की कुंठावश उन्होंने वहीं यज्ञ कुंड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए।
 
सती को दर्द इस बात का भी था कि वह अपने पति के मना करने के बावजूद इस यज्ञ में चली आई थी और अपने दस शक्तिशाली (दस महाविद्या) रूप बताकर-डराकर पति शिव को इस बात के लिए विवश कर दिया था कि उन्हें सती को वहां जाने की आज्ञा देना पड़ी। पति के प्रति खुद के द्वारा किए गया ऐसा व्यवहार और पिता द्वारा पति का किया गया अपमान सती बर्दाश्त नहीं कर पाई और यज्ञ कुंड में कूद गई। बस यहीं से सती के शक्ति बनने की कहानी शुरू होती है।
 
दुखी हो गए शिव जब : यह खबर सुनते ही शिव ने वीरभद्र को भेजा, जिसने दक्ष का सिर काट दिया और यज्ञ भूमि को तहस नहस कर दिया। बाद में दुखी होकर सती के जले हुए शरीर को शिव ने अपने सिर पर धारण कर तांडव नृत्य किया और धरती पर भ्रमण करने लगे। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देख कर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र द्वारा सती के शरीर के टुकड़े करने शुरू कर दिए। 
 
शक्तिपीठ : इस तरह सती के शरीर का जो हिस्सा और धारण किए आभूषण जहां-जहां गिरे वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आ गए। देवी भागवत में 108 शक्तिपीठों का जिक्र है, तो देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का जिक्र मिलता है। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों की चर्चा की गई है। वर्तमान में भी 51 शक्तिपीठ ही पाए जाते हैं, लेकिन कुछ शक्तिपीठों का पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में होने के कारण उनका अस्तित्व खतरें में है।
 
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गणेश और कार्तिकेय की माता पार्वती : दक्ष के बाद सती ने हिमालय के राजा हिमवान और रानी मैनावती के यहां जन्म लिया। मैनावती और हिमवान को कोई कन्या नहीं थी तो उन्होंने आदिशक्ति की प्रार्थना की। आदिशक्ति माता सती ने उन्हें उनके यहां कन्या के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। दोनों ने उस कन्या का नाम रखा पार्वती। पार्वती अर्थात पर्वतों की रानी। पार्वती को ही गौरी या महागौरी कहा जाता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि इन्हें ही उमा कहा गया है।

इसी को गिरिजा, शैलपुत्री और पहाड़ों वाली रानी कहा जाता है। माता पार्वती ने ही शुम्भ, निशुम्भ, महिषासुर आदि असुरों का वध किया था और इनकों की नवदुर्गा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। हालांकि आदि दुर्गा माता को परब्रह्म सदाशिव की अर्धांगिनी के रूप में चित्रित किया गया है जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश के माता-पिता हैं। उक्त दुर्गा के रूप में ही माता पार्वती को भी चित्रित किया गया है।
 
माना जाता है कि जब सती के आत्मदाह के उपरांत विश्व शक्तिहीन हो गया। उस भयावह स्थिति से त्रस्त महात्माओं ने आदिशक्ति देवी की आराधना की। तारक नामक दैत्य सबको परास्त कर त्रैलोक्य पर एकाधिकार जमा चुका था। ब्रह्मा ने उसे शक्ति भी दी थी और यह भी कहा था कि शिव के औरस पुत्र के हाथों मारा जाएगा।
 
शिव को शक्तिहीन और पत्नीहीन देखकर तारक आदि दैत्य प्रसन्न थे। देवतागण देवी की शरण में गए। देवी ने हिमालय (हिमवान) की एकांत साधना से प्रसन्न होकर देवताओं से कहा- 'हिमवान के घर में मेरी शक्ति गौरी के रूप में जन्म लेगी। शिव उससे विवाह करके पुत्र को जन्म देंगे, जो तारक वध करेगा।' 
 
भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए उन्होंने देवर्षि के कहने मां पार्वती वन में तपस्या करने चली गईं। भगवान शंकर ने पार्वती के प्रेम की परीक्षा लेने के लिए सप्तऋषियों को पार्वती के पास भेजा। 
 
सप्तऋषियों ने पार्वती के पास जाकर उन्हें हर तरह से यह समझाने का प्रयास किया कि शिव औघड़, अमंगल वेषभूषाधारी और जटाधारी है। तुम तो महान राजा की पुत्री हो तुम्हारे लिए वह योग्य वर नहीं है। उनके साथ विवाह करके तुम्हें कभी सुख की प्राप्ति नहीं होगी। तुम उनका ध्यान छोड़ दो। अनेक यत्न करने के बाद भी पार्वती अपने विचारों में दृढ़ रही।
 
उनकी दृढ़ता को देखकर सप्तऋषि अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने पार्वती को सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद दिया और वे पुन: शिवजी के पास वापस आ गए। सप्तऋषियों से पार्वती के अपने प्रति दृढ़ प्रेम का वृत्तान्त सुनकर भगवान शिव अत्यन्त प्रसन्न हुए और समझ गए कि पार्वती को अभी में अपने सती रूप का स्मरण है।
 
सप्तऋषियों ने शिवजी और पार्वती के विवाह का लग्न मुहूर्त आदि निश्चित कर दिया। निश्चित दिन शिवजी बारात ले कर हिमालय के घर आए। वे बैल पर सवार थे। उनके एक हाथ में त्रिशूल और एक हाथ में डमरू था। उनकी बारात में समस्त दैत्य और देवताओं के साथ उनके गण भूत, प्रेत, पिशाच आदि भी थे। सारे बाराती नाच-गा रहे थे। यह बारात अत्यंत ही मनोहारी और विचित्र थी। इस तरह शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिव और पार्वती का विवाह हो गया और पार्वती को साथ लेकर शिवजी अपने धाम कैलाश पर्वत पर चले गए।
 
मान्यता अनुसार राजा हिमवान ने पार्वती के मन की इच्‍छा जानकर एक पुरोहित और एक नाई को कैलाश पर्वत भेजकर शिव से अपनी पुत्री का विवाह प्रस्ताव भेजा। शिव के पास विवाह का प्रस्ताव लेकर पहुंचे पुरोहित और नाई के सामने शिव ने अपनी निर्धनता और साधुता इत्यादि की ओर संकेत करके कहा कि इस विवाह के औचित्य पर पुन: विचार करना चाहिए। पुरोहित के बार-बार आग्रह पर शिव मान गए।
 
शिव ने पुरोहित और नाई को विभूति प्रदान की। नाई ने वह विभूति मार्ग में ही फेंकते हुए क्रोधित भाव से पुरोहित से कहा- बैल वाले अवधूत से राजकुमारी का विवाह पक्का कर आए हो तुम, तुम्हें कुछ तो सोचना था। नाई ने ऐसा ही कुछ जाकर राजा से कह सुनाया।
 
पुरोहित का घर विभूति के कारण धन-धान्य रत्न आदि से युक्त हो गया। लेकिन नाई को कुछ नहीं मिला तब नाई को विभूति का राज पता चला और उसने पुरोहित से आधा धन देने का आग्रह किया तब पुरोहित ने कहा कि इसके लिए तो तुम्हें शिव के पास ही जाना होगा।
 
इधर नाई से शिव की दारिद्रय इत्यादि के विषय में सुनकर हिमवान राजा ने शिव के पास संदेश भिजवाया की वह बारात में समस्त देवी-देवताओं सहित पहुंचें। इसके पिछे कारण था कि पता चल जाता कि शिव की शक्ति कितनी है। शिव हंस दिए और राजा के मिथ्याभिमान को नष्ट करने के लिए विवाह के पूर्व उन्हें अपनी माया दिखाई और उनके दंभ तोड़ा।

इन्हीं पार्वती के दो पुत्र और एक पुत्री हैं। पुत्र- गणेश, कार्तिकेवय और पुत्री वनलता। माना जाता है कि जिन एकादश रुद्रों की बात कही जाती है वे सभी ऋषि कश्यप के पुत्र थे उन्हें शिव का अवतार माना जाता था।
 
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माता उमा : पार्वती को ही उमा कहा जाता था या कि उमा नाम से एक अलग देवी थी यह जानना जरूरी है। देवी उमा को भूमि की देवी भी कहा जाता है। मां उमा देवी दयालु और सरल ह्दय की देवी हैं। आराधना करने पर वह जल्द ही प्रसन्न हो जाती हैं। उमा के साथ महेश्वर शब्द का उपयोग किया जाता है। अर्थात महेश और उमा। हो सकता है कि जब शंकर जी महेश रूप में  आए तब पार्वती भी उमा हो गई।
कश्मीर में एक स्थान है उमा नगरी। यह नगरी अनंतनाग क्षेत्र के उत्तर में हिमालय में बसी है। यहां विराजमान है उमा देवी। भक्तों का ऐसा विश्वास है कि देवी स्वयं यहां एक नदी के रूप में रहती हैं जो ओंकार (अर्थात संपूर्ण विश्व) का आकार बनाती है जिसके साथ पांच झरने भी हैं।

माना जाता है कि उमा देवी उत्तराखंड की थीं। उत्तराखंड में चमोली जिले के कर्णप्रयाग नामक स्थान पर उनका एक पौराणिक मंदिर भी बना हुआ है। स्थानीय लोगों की मान्यता अनुसार डिमरी जाति के लोगों को उमा देवी के मायके वाला माना जाता है, जबकि कापरिपट्टी के शिव मंदिर को उनका ससुराल समझा जाता है।
 
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मां महाकाली : भगवान शिव की चौथी पत्नी मां काली को माना जाता है। काली ने भयानक दानवों का संहार किया था। वर्षों पहले एक ऐसा भी दानव हुआ जिसके रक्‍त की एक बूंद अगर धरती पर गिर जाए तो हजारों रक्तबीज पैदा हो जाते थे। इस दानव को खत्म करना किसी भी देवता के वश में नहीं था। तब मां काली ने इस भयानक दानव का संहार कर तीनों लोकों को बचाया था। 
रक्‍तबीज को मारने के बाद भी मां का गुस्सा शांत नहीं हो रहा था, तब भगवान शंकर उनके चरणों में लेट गए गलती से मां काली का पैर भगवान शिव के सीने पर  पड़ गया। इसके बाद उनका गुस्सा शांत हुआ।
 
मांं काली को शिव पर पैर रखने का पश्चाताप हुआ और इस महापाप के कारण ही उन्हें वर्षों तक हिमालय में प्रायश्चित के लिए भटकना पड़ा था। व्यास नदी के किनारे जब माता काली ने भगवान शिव का ध्यान किया तो आखिरकार भगवान शंकर ने उन्हें दर्शन दिए और इस तरह से मां काली को भूलवश हुए अपने महापाप से मुक्ति मिली। देवभूमि हिमाचल के कांगड़ा परागपुर में यह स्थान अब कालीनाथ कालेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। 
 
गुजरात में माता महाकाली का मुख्‍य स्थान है। यह मंदिर गुजरात की प्राचीन राजधानी चंपारण के पास स्थित है, जो वडोदरा शहर से लगभग 50 किलोमीटर दूर है। अब इसे पावागढ़ क्षेत्र कहा जाता है। पावागढ़ मंदिर ऊंची पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। काली का दूसरा मंदिर उज्जैन में और तीसरा मंदिर कोलकाता में है। (समाप्त)