निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 22 अगस्त के 112वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 112 ) में श्रीकृष्ण और बलराम को गुप्तचर आकर बताता है संभरासुर और उसका पुत्र मयासुर दोनों की सेना द्वारिका पर आक्रमण के लिए निकल चुकी है। यह सुनकर बलराम जी कहते हैं कि उससे पहले में उन दोनों को नष्ट करके हटा दूंगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं दाऊ भैया, यदि वह युद्ध करना चाहते हैं तो हम अवश्य युद्ध करेंगे परंतु पहला वार हमारा नहीं होगा।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
दैत्यराज संभरासुर और उसका पुत्र तीनों लोकों पर आधिपत्य की इच्छा से सबसे पहले द्वारिका पर आक्रमण कर देते हैं। दोनों ही मायावी युद्ध में कुशल होते हैं। बलराम और श्रीकृष्ण उन दोनों से भयंकर युद्ध लड़ते हैं। दोनों ही यादव सेना में हड़कंप मचा देते हैं तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि इन दोनों से नीति की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अनीति से राज्य करना और अनीति से युद्ध करना यही इन मायावी पिता और पुत्र की नीति है।
संभरासुकर कहता है अब मुझे कोई नहीं रोक सकता ग्वाले। फिर मायासुर कहता है- इसलिए हे कृष्ण! तुम हमारी शरण में आ जाओ, हम तुम्हें क्षमा देंगे। बलरामजी मायासुर को कई तरह से मारने का प्रयास करते हैं परंतु वह अपनी माया से सभी को हैरान कर देता है। श्रीकृष्ण संभरासुर से लड़ते हैं तो वह भी अपनी माया के जाल में श्रीकृष्ण को उलझा देता है। तब मायासुर कहता है- कृष्ण अपने दाऊ भैया को समझाओ की असुर सम्राट संभरासुर की शरण में आने मैं ही उसकी भलाई है। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- संभरासुर अपने इस मायावी पुत्र के साथ तुम भी अपनी नगरी लौट जाओ वर्ना तुम भी मेरे क्रोध की आग में जल जाओगे।
फिर चारों में भयंकर मायावी युद्ध होता है कभी श्रीकृष्ण का तो कभी संभरासुर का पलड़ा भारी रहती है। एक समय ऐसा आता है कि संभरासुर के सारे अस्त्र असफल हो जाते हैं तब संभरासुर एक भयंकर अस्त्र का आह्वान करता है। यह देखकर श्रीकृष्ण बलराम की ओर देखने लगते हैं बलराम भी श्रीकृष्ण की ओर देखकर फिर संभरासुर की ओर दोनों देखते हैं। संभरासुर का पुत्र मायासुर यह देखकर प्रसन्न होता है।
फिर वह उस अस्त्र को श्रीकृष्ण की ओर छोड़ देता है। वह अस्त्र सीधा श्रीकृष्ण के हृदय में जाकर लगता है और श्रीकृष्ण दर्द से कराहने लगते हैं। यह देखकर बलरामजी चीखते हैं- कन्हैया। दोनों असुर जोर-जोर से हंसने लगते हैं। श्रीकृष्ण कराहते हुए रथ में गिरकर मर जाते हैं। बलरामजी अपने रथ से उतरकर श्रीकृष्ण के रथ पर जाते हैं और उन्हें जगाने का प्रयास करते हैं। बलराम कहते हैं ये कैसे हुआ कन्हैया? तुम तो संसार में सबसे अधिक शक्तिशाली हो भगवान हो, तुमको कैसे इस मायावी राक्षस के आगे मृत्यु आ गई? अब मैं द्वारिका को क्या मुंह दिखाऊंगा? कैसे उन्हें समझाऊंगा? कन्हैया जिस संसार में तुम नहीं, उस संसार में मेरा मर जाना ही बेहतर है। अब मैं भी एक पल भी जीना नहीं चाहता।
ऐसा कहकर बलरामजी अपनी तलवार निकालकर अपनी गर्दन काटने ही वाले रहते हैं कि तभी श्रीकृष्ण उनका हाथ पकड़कर उन्हें रोककर कहते हैं- दाऊ भैया रुको। यह देखकर बलरामजी आश्चर्य करते हैं कि ये कैसी माया! श्रीकृष्ण तो रथ में पड़े हैं और ये दूसरे श्रीकृष्ण उन्हें रोक रहे हैं। दाऊ भैया कहते हैं- कन्हैया...ऐसा कहकर वो दोनों कृष्ण को देखकर हैरान रह जाते हैं तब वे श्रीकृष्ण को हाथ लगाकर कहते हैं- कन्हैया तुम जीवित हो? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां दाऊ भैया, ऐसे मायावी असुर के हाथ से मरने के लिए हमने इस पृथ्वीलोक पर जनम नहीं लिया है। यह सुनकर बलरामजी अतिप्रसन्न होकर कृष्ण को गले लगा लेते हैं। अरे कन्हैया तुम्हें जीवित देखकर मैं कितना खुश हूं ये तुम नहीं समझ सकते। फिर बलरामजी रथ में मृत पड़े कृष्ण को देखकर कहते हैं- परंतु कन्हैया ये कौन है?
इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- वो! वो मायावी संभरासुर की माया है। अरे, आपको भ्रम में डालने के लिए संभरासुर ने ये माया रचाई थी और आप उसके मायाजाल में फंस गए दाऊ भैया। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- ये देखिये और वह मृत श्रीकृष्ण गायब हो जाते हैं। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- अब आप जान गए संभरासुर की नीति। मृत्युलोक में माता, पिता, भ्राता, पुत्र, कन्या, पौत्र इस तरह के अटूट नाते बन जाते हैं। उसी का लाभ उठाने का प्रयास ये मायावी संभरासुर करता है। अपनी माया से अपने शत्रु को शोकाकुल कर देता है। फिर ऐसे शत्रु पर उसे विजय प्राप्त करने में किसी भी तरह की कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता है। दाऊ भैया आप रणभूमि पर हैं। यदि मुझे सचमुच ही मृत्यु आ जाती तो भी आपको शस्त्र नीचे नहीं रखना चाहिए।
फिर बलरामजी कहते हैं- मुझसे भूल हो गई कन्हैया। परंतु अब में इन मायावी पिता और पुत्र को ऐसा दंड दूंगा कि ये द्वारिका की ओर आंख उठाने का साहस भी नहीं करेंगे। ऐसा कहकर बलरामजी अपने रथ पर चले जाते हैं। दोनों असुर जोर-जोर से उनकी हंसी उड़ाते हैं। फिर बलराम क्रोधित होकर अपनी गदा फेंकते हैं जो आसमान में जाकर दो रूप लेकर दोनों असुरों के रथ को तोड़ देती हैं। फिर बलरामजी अपने हल को विशालकाय बनाते हैं और उससे असुरों की सेना का संहार करने लगते हैं। यह देखकर संभरासुर घबरा जाता है और अपने पुत्र से कहता है- मायासुर! बलराम तो साक्षात मृत्यु दाता नजर आने लगा है। अब हमें निकल चलना चाहिए। यह सुनकर मायासुर कहता है- नहीं पिताश्री! मैं तो इस युद्ध में विजय प्राप्त करके ही लौटूंगा। फिर मायासुर शिवजी का आह्वान करता है तब उसके पास एक दिव्य धनुष आ जाता है जिसमें बाण के रूप में त्रिशूल होता है।
बलराम और श्रीकृष्ण यह देखकर अचंभित हो जाते हैं। फिर मायासुर कहता है- पिताश्री ये अस्त्र मुझे महादेव शंकर दे दिया था। ये कभी विफल नहीं होगा। बलराम को इस अस्त्र के कारण निश्चत ही मृत्यु आएगी। यह सुनकर श्रीकृष्ण बलराम की ओर देखने लगते हैं। फिर वे आंखें बंद करके भगवान शिव से कहते हैं- हे जगत के पालनहार कैलाशपति निलकंठ महादेव शंकर कृपाकर आप मुझे दर्शन दीजिये।
फिर भगगवान शंकर कहते हैं- हे वासुदेव आंखें खोलिये। कहिये आप हमसे क्या चाहते हैं? भगवान श्रीकृष्ण आंखें खोलते हैं तो उन्हें शिवजी दिखाई देते हैं तब वे उन्हें प्रणाम करके कहते हैं- हे महादेव! संभरासुर का पुत्र मायासुर आपका दिया हुआ अस्त्र दाऊ भैया पर छोड़ने वाला है जिसे केवल आप ही विफल कर सकते हैं। आप ही दाऊ भैया की रक्षा कर सकते हैं। यह सुनकर भगवान शंकर कहते हैं- नहीं देवकीनंदन! हमारा दिया हुआ अस्त्र कभी विफल नहीं हो सकता। परंतु हमारे अस्त्र के प्रभाव से बलराम को मृत्यु नहीं आएगी। हां, उन्हें मूर्च्छा अवश्य आएगी। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हे महादेव आपकी कृपा और आशीर्वाद जिस पर हो उसे मृत्यु कैसे आ सकती है। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण उन्हें प्रणाम करते हैं और महादेव अदृश्य हो जाते हैं।
उधर, मयासुर धनुष पर लगे त्रिशूल से कहता है- जाओ और अपना लक्ष्य साधो। वह त्रिशूल धनुष से निकलकर सीधा बलरामजी के हृदय में जाकर लगता है और बलरामजी कन्हैया कहते हुए मूर्च्छित हो जाते हैं। यह देखकर मायासुर चीखकर कहता है- हे ग्वाले ये मेरी माया नहीं है, ये मेरा पराक्रम है। अपने बड़े भाई की मृत्यु से कुछ बोध लो और हमारी शरण में आ जाओ। हम तुम्हें अभय देंगे। नहीं तो तुम भी इसी प्रकार मृत्यु के आधीन हो जाओगे।
यह सुनकर श्रीकृष्ण अपनी अंगुली ऊपर करते हैं तो तुरंत ही उनके हाथ में सुदर्शन चक्र घर्राने लगता है। यह देखकर संभरासुर और मायासुर घबरा जाते हैं। तब श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र को मायासुर की ओर छोड़ देते हैं। तक्षण ही मायासुर की गर्दन से सिर अलग हो जाता है यह देखकर संभरासुर चीखता है- मायासुर। मायासुर धरती पर गिर पड़ता है और सुदर्शन चक्र पुन: लौटकर श्रीकृष्ण की अंगुली पर विराजमान होकर गायब हो जाता है।
उधर, संभरासुर चीखना हुआ अपने पुत्र के पास जाता है तो इधर श्रीकृष्ण बलराम के पास। फिर श्रीकृष्ण अपने दाऊ भैया को मूर्च्छा से जागते हैं। जागकर बलरामजी कहते हैं- कन्हैया क्या मैं मूर्च्छित हो गया था? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां दाऊ भैया परंतु अब कोई चिंता करने की आवश्यकता नहीं। संभरासुर परास्त हो गया है और मायासुर का मैंने वध कर दिया है। यह सुनकर बलरामजी आश्चर्य करने लगते हैं।
उधर, संभरासुर अपने पुत्र के शव को अपने नगर ले जाता है और वहां मायासुर की माता अपने पुत्र के शव के पास विलाप करती है और अपने पति को कहती है कि धिक्कार है आप पर और आपके बल पर। आपके सामने आपके पुत्र का वध होता है और आप उसकी रक्षा भी नहीं कर सके, कैसे पिता हैं आप? जिस कृष्ण ने मेरे पुत्र का वध किया है आप उसे क्या दंड देंगे? जब आप उसे दंड देंगे तभी मेरा शोकग्रस्त्र मन शांत होगा। यह सुनकर संभरासुर कहता है कि मायावती ये संभरासुर प्रतिज्ञा करता है कि जिस प्रकार कृष्ण ने मेरे पुत्र को मुझसे छीना है उसी प्रकार मैं भी उसके पुत्र को उससे छीन लूंगा। पुत्र के वियोग में जिस तरह मेरी पत्नी शोक मना रही है उसी तरह कृष्ण की पत्नी भी शोकाकुल हो जाएगी। ये मेरी प्रतिज्ञा है।
उधर, नारादमुनि कामदेव से कहते हैं- कामदेव देख लिया ना। आपके जन्म लेने के पूर्व ही आपके शत्रु ने जनम ले लिया है जो अब आपकी मृत्यु की तैयारियां कर रहा हैं। यह सुनकर रति कहती हैं कि मुनिवर कम से कम ऐसी घड़ी पर तो अशुभ बातें न किया करें। लाखों वर्षों से मैं इसी शुभ घड़ी की प्रतीक्षा कर रही थी वो शुभ घड़ी जब प्रद्युम्न का जन्म होगा और मेरे सुहाग को शरीर मिल जाएगा। फिर कामदेवजी कहते हैं कि परंतु प्रद्युम्न के रूप में मेरा जन्म कब और कैसे होगा होगा? तब नारदमुनि कहते हैं कि श्रीकृष्ण की आज्ञा से ही रुक्मिणी के गर्भ से होगा। इसके लिए आपको उनकी आज्ञा लेने के लिए धरती पर जाना होगा।...
फिर कामदेव और रति श्रीकृष्ण के पास जाते हैं और वे देखते हैं कि भगवन तो ध्यानस्थ बैठे हैं और रुक्मिणी माता सो रही है। कामदेव रति से कहते हैं कि तो क्या हुआ मैं उन्हें अभी जगा देता हूं। यह सुनकर रति कहती है- नहीं नहीं, फिर वही भूल करना चाहते हैं क्या, जिस भूल ने आपसे आपका शरीर छीन लिया था। याद रखिये आप यहां अपना शरीर पाने आए हैं खोने नहीं। तब कामदेवजी कहते हैं कि परंतु मेरे पास अब शरीर तो रहा नहीं तो अब मैं क्या खोऊंगा? तब रति कहती हैं कि शरीर न सही पर शरीर की यह निशानी तो है जिसे अब मैं नहीं खोना चाहती।
तभी श्रीकृष्ण की आंखें खुल जाती है। वह उन दोनों को देखकर मुस्कुराते हैं। यह देखकर वे दोनों श्रीकृष्ण को प्रणाम करते हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- सुखीभव:। यह सुनकर रति कहती है कि भगवन! आपने हमें सुखी होने का आशीर्वाद दिया है ना। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां देवी मेरा कहा सत्य है। इस पर रति कहती हैं- तो बताइये जब मैं मेरे पतिदेव के दर्शन नहीं कर सकती। उनका मेरा मिलन लाखों वर्षों से अधूरा है। ऐसे में मैं और मेरे पतिदेव कैसे सुखी हो सकते हैं?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि कामदेव तुम भाग्यवान हो जो तुम्हें देवी रति जैसी पत्नि मिली है। पति से मिलन की आस में इसने लाखों वर्षों तक किसी जोगन की भांति तपस्या की है। युग-युगों तक प्रतीक्षा की है और अब ये प्रतीक्षा समाप्त होने जा रही है। यह सुनकर कामदेवजी कहते हैं सच भगवन! मुझे नया शरीर मिल जाएगा? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां कामदेव जिस घटना का समय यहां तक की पल भी लाखों वर्ष पूर्व शिवजी ने स्वयं निश्चय कर दिया था। उस घटना के घटने का वो पल अब आ गया है।
यह सुनकर रति कहती हैं- अर्थात आप मेरे पतिदेव को अपने पुत्र रूप में स्वीकार करते हैं? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां, कामदेव आज से तुम मेरे पुत्र हो। यह सुनकर रति प्रसन्न हो जाती है। कामदेव कहते हैं- धन्यवाद भगवन। रति कहती हैं- भगवन आपके इस उपकार के लिए मैं सदा आपकी आभारी रहूंगी। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने पुत्र या कुलवधू के लिए कुछ करना उपकार नहीं होता देवी रति। जब कामदेव हमारा पुत्र बनने जा रहा है तो इस नाते तुम हमारी बहू ही तो बनोगी ना? यह सुनकर रति अति प्रसन्न होकर कहती है- आप धन्य हैं प्रभु! आप धन्य हैं।
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- कामदेव मेरा पुत्र बनने के लिए तुम्हें अपनी माता लक्ष्मी के शरीर का एक अंग बनकर जन्म लेना है। इसलिए मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं कि तुम अपनी होने वाली माता के गर्भ में समा जाओ। यह सुनकर कामदेव कहते हैं- धन्यवाद प्रभु।...फिर कामदेव पास ही की पलंग पर सोई माता रुक्मिणी के गर्भ में प्रवेश कर जाते हैं। यह देखकर देवी रति अति प्रसन्न हो जाती है।
फिर देवी रुक्मिणी की गोद भराई की रस्म बताई जाती है। सत्यभामा, जामवंती आदि सभी उनकी आरती उतारती हैं। अर्जुन, बलराम और श्रीकृष्ण आदि सभी सिंहासन पर बैठे हुए ये कार्यक्रम देख कर प्रसन्न होते रहते हैं।
आगे श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र का जन्म होता है। सत्यभामा और जामवंती भी उसको दुलारकर दाई मां को भेंट देती हैं। फिर उस बालक को सभी बारी-बारी अपनी गोद में लेते हैं। फिर बलराम और बाद में श्रीकृष्ण उसे गोद में लेकर दुलारते हैं।... उधर रति भी ये समाचार देवर्षि नारद से सुनकर प्रसन्न हो जाती है।
फिर नारदजी संभरासुर और उनकी पत्नी मायावती को भी ये समाचार सुनाते हैं कि श्रीकृष्ण के यहां पुत्र का जन्म हुआ है और वे आनंद उत्सव मना रहे हैं। यह सुनकर संभरासुर कहता है- नि:संदेह मुनिवर शुभ समाचार है ये, इसी दिन की तो प्रतीक्षा थी। फिर नारदजी वहां से चले जाते हैं।
फिर संभरासुर कहता है- इसी दिन की प्रतीक्षा में तो मेरी तलवार को जंग लग गया था परंतु अब मैं इस तलवार को धार लगाऊंगा। परंतु जल छीड़कर नहीं, कृष्ण पुत्र का रक्त छीड़कर। आज रात में ही कृष्ण पुत्र का वध करूंगा। ये बालवध आज रात ही हो जाना चाहिए। तब उसकी पत्नी मायावती कहती है कि नहीं नाथ, इतनी जल्दी ना करें। इसलिए कि जैसे-जैसे समय बितेगा कृष्ण और रुक्मिणी की अपने पुत्र के प्रति स्नेह भावना बढ़ेगी तो उसके वियोग में उनका शोक भी उतना ही कठिन होगा। इसलिए कुछ दिन और धैर्य रखिये नाथ। कृष्ण और रुक्मिणी को उनके पुत्र के भविष्य के सपने तो सजा लेने दो। शत्रु पुत्र का नाम तो रख लेने दो उन्हें। जय श्रीकृष्णा।
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