Shri Krishna 25 August Episode 115 : संभरासुर फेंक देता है प्रद्युम्न को समुद्र में, बलराम हो जाते क्रोधित

अनिरुद्ध जोशी
मंगलवार, 25 अगस्त 2020 (22:05 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 25 अगस्त के 115वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 115 ) में संभरासुर सत्यभामा बनकर श्रीकृष्ण रुक्मिणी के पुत्र बालक प्रद्युम्न का हरण करके अपने विमान में ले जाता है। रास्ते में वह उसका वध करने का सोचता है तभी श्रीकृष्ण नारदमुनि को इशारा करते हैं तो नारदमुनि तुरंत ही संभरासुर के विमान में ही प्रकट होकर कहते हैं- असुरेश्वर ये आप क्या करने जा रहे हैं? तब संभरासुर कहता है कि मैं अपने शत्रु को नष्ट करने जा रहा हूं देवर्षि। तब नारदजी कहते हैं- शत्रु और ये बालक? नारायण नारायण। 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
तब नारदजी कहते हैं- शत्रु और ये बालक? नारायण नारायण। एक बालक आपका शस्त्रु कैसे हो सकता है? तब संभरासुर कहता है कि अपने शत्रु का वंशज अपना ही शत्रु होता है देवर्षि, यही नीति है। इस पर नारदजी कहते हैं कि आपका कहना उचित है परंतु इसे क्या पता की शत्रुता क्या होती है, ये तो नि:श्छल है। यह सुनकर संभरासुर कहता है- परंतु ये बालक पापी है देवर्षि। क्योंकि ये ग्वाले कृष्ण का पुत्र है। कृष्ण ने मेरे पुत्र मायासुर का वध किया था, अब मैं उसके पुत्र का वध करूंगा, यही मेरी प्रतिज्ञा है।
 
इस पर नारदमुनि कहते हैं कि असुरेश्वर एक बालक की हत्या करना पाप है। इस पर वह कहता है कि परंतु प्रतिज्ञा की पूर्ति करना ये तो कोई पाप नहीं देवर्षि। मुझे मत रोकिये, मुझे मेरी प्रतिज्ञा पूरी करने दीजिये। यह सुनकर देवर्षि नारद कहते हैं- असुरेश्वर आपकी कीर्ति तीनों लोकों में वास करती है। पातल और पृथ्‍वीलोक में ही नहीं बल्कि स्वर्गलोक में भी। संभरासुर का नाम सुनते ही देवता भय से कांप उठते हैं।...यह सुनकर संभरासुर प्रसन्न हो जाता है तब नारदजी कहते हैं कि आपको साक्षात आदिमाता पार्वती का आशीर्वाद प्राप्त है। आप कभी किसी से परास्त हो ही नहीं सकते। फिर एक बालक को अपना शत्रु समझकर उसकी हत्या करना चाहते हैं। आप जैसे परमप्रतापी महावीर को ये शोभा नहीं देता असुरेश्वर। 
 
यह सारा घटनाक्रम भगवान श्रीकृष्ण और देवी रति देखते रहते हैं।
 
यह सुनकर संभरासुर पहले तो खुश हो जाता है परंतु बात में कहता है- देवर्षि मुझे भ्रमित करने का प्रयास ना करें। मैं आपकी बातों में आने वाला नहीं, मैं अपनी प्रतिज्ञा अवश्य पूरी करूंगा। आज इस कृष्ण पुत्र का वध निश्‍चित ही करूंगा। ऐसा कहकर वह फरसा उठाकर वध करने ही जाता है कि तभी नारदजी उसे रोककर कहते हैं- असुरेश्वर क्या आप मुझे विश्वास दिला सकते हैं कि ये कृष्ण का ही पुत्र है?...यह सुनकर संभरासुर चौंक जाता है और फिर कहता है- यही कृष्‍ण पुत्र है देवर्षि यही। मैंने इसे रुक्मिणी की गोद से उठाया है। 
 
यह सुनकर नारदजी कहते हैं कि रुक्मिणी की गोद में यदि कोई बालक सो रहा हो तो क्या वह कृष्ण पुत्र होगा? यह सुनकर संभरासुर कहता है- अर्थात? तब नारदजी कहते हैं- अर्थात यह कि कंस ने भी तो देवकी के आठवें बालक की हत्या करने के लिए जिसे बालक समझकर उठाया था वह बालक ना होकर एक बालिका थी। आठवां बालक अर्थात श्रीकृष्ण उस समय वहां से दूर गोकुल में नंद की पत्नी यशोदा की गोद में सो रहा था।.... नारायण नारायण... अब मेरी बात समझ में आई की नहीं?
 
यह सुनकर संभरासुर सच में ही भ्रमित हो जाता है। फिर नारदमुनी कहते हैं कि वासुदेव श्रीकृष्‍ण मायावी है यह तो आप जानते ही हैं ना? उसने कंस को धोखा दिया तो क्या आपको धोखा नहीं दे सकता? क्या आपकी प्रतिज्ञा का ज्ञान श्रीकृष्ण को नहीं होगा? और क्या आपकी प्रतिज्ञा का ज्ञान होने के बाद वे अपने पुत्र की सुरक्षा के बारे में विचार नहीं करेंगे? क्या आप अपने मायावी और प्रलयासुर की मृत्यु इतनी जल्दी भूल गए? इसीलिए में कह रहा हूं कि ये बालक श्रीकृष्ण का ही पुत्र है इसका क्या विश्वास है?
 
इतने सारे प्रश्न सुनकर संभरासुर कहता है कि आप ठीक कह रहे हैं देवर्षि परंतु यदि ये बालक कृष्ण का ही पुत्र हुआ तो? इसलिए मैं इस बालक का वध अवश्‍य करूंगा। यदि ये कृष्‍ण पुत्र नहीं हुआ तो भी मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए कृष्‍ण पुत्र का भी वध करूंगा। तब नारदमुनि उसे समझाते हैं कि यदि आपके लिए इसकी हत्या अनिवार्य है तो अवश्‍य करिये परंतु जरा सोचिये की आप जैसे प्रतापी, तीनों लोकों में जिसकी वीरता के गुण गाए जाते हैं और स्वर्ग में भी देवता लोग जिससे भयभित होते हैं जिसकी तलवार बड़े-बड़े घमंडियों का सर तोड़ देती है वो तलवार एक नि:सहाय बालक पर उठेगी तो तीनों लोक क्या कहेंगे जरा सोचिये। एक हाथ के बालक पर तीन हाथ की तलवार का प्रहार, नहीं नहीं नहीं। इससे आपकी कीर्ति बदनाम हो जाएगी। आपकी ‍वीरता पर बट्टा लग जाएगा असुरेश्वर। 
 
यह सुनकर संभरासुर कहता है कि फिर मैं क्या करूं देवर्षि? तब देवर्षि कहते हैं कि आप अपने हाथ से उसका वध ना करें। यदि इस बालक को यदि किसी घने जंगल में ही छोड़ देंगे तो जंगली पशु ही इसका वध कर देगे, नारायण नारायण। तभी देवर्षि नारद नीचे समुद्र देखकर कहते हैं कि असुरेश्वर इस समुद्र में भी आप इस बालक को फेंक सकते हैं। इतनी ऊंचाई से यह बालक यदि समुद्र में गिर गया तो इसके जीवित रहने की कोई संभावना नहीं है।
 
यह सुनकर संभरासुर हंसने लगता है और कहता है- आप ठीक कह रहे हैं देवर्षि, मैं ऐसा ही करूंगा। ऐसा कहकर वह उस समुद्र में बालक प्रद्युम्न को फेंक देता है। बालक समुद्र में डूब जाता है तब नारदमुनि नारायण नारायण कहते हुए वहां से चले जाते हैं। संभरासुर अपने इस कृत्य पर प्रसन्न होकर जोर-जोर से हंसता रहता है। उधर, समुद्र के भीतर बालक को एक बड़ी-सी मछली निगल जाती है। 
 
इधर, रात्रि में जब रुक्मिणी की नींद खुलती है तो पालने में प्रद्युम्न को नहीं पाकर सोचती है प्रद्युम्न को कहीं सत्यभामा उसे अपने कक्ष में तो नहीं ले गई? हां सत्यभामा ही लेकर गई थी। फिर वह उठकर सत्यभामा के कक्ष में जाकर सत्यभामा को नींद से जागती है। सत्यभामा जागकर कहती है- दीदी आप यहां? रुक्मिणी इधर-उधर देखती है तो उसे प्रद्युम्न नहीं दिखाई देता है तब सत्यभामा पूछती हैं- दीदी क्या बात है? आप कुछ परेशान लग रही हैं और आप ढूंढ क्या रही हैं? तब रुक्मिणी पूछती है- प्रद्युम्न कहां हैं? यह सुनकर सत्यभामा कहती है- प्रद्युम्न? तब रुक्मिणी कहती हैं- हां तुम उसे अपने ही कक्ष में लेकर आई थी ना? यह सुनकर सत्यभामा कहती हैं- नहीं दीदी मैंने उसके रोने की आवाज अवश्य सुनी थी तो मैं आपके कक्ष में गई अवश्य थी परंतु उसे सोता हुआ देखकर वापस मैं अपने कक्ष में आ गई थी। प्रद्युम्न तो आपके पास ही था दीदी। 
 
यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- प्रद्युम्न मेरे पास नहीं है सत्यभामा। यह सुनकर सत्यभामा कहती है- क्या प्रद्युम्न आपके पास नहीं है अर्थात? तब रुक्मिणी कहती है- अर्थात ना वो मेरे पास है और न तुम्हारे पास, मुझे बहुत डर लग रहा है सत्यभामा। कहीं किसी ने प्रद्युम्न का हरण तो नहीं कर लिया? यह सुनकर सत्यभामा कहती है- नहीं दीदी ऐसा नहीं हो सकता प्रद्युम्न प्रद्युम्न। तभी वहां पर सत्यभामा की आवाज सुनकर जामवंती भी आ जाती है। 
 
फिर तीनों श्रीकृष्ण के पास जाती है तब रुक्मिणी रोते हुए कहती हैं- प्रद्युम्न कहीं दिखाई नहीं दे रहा है द्वारिकाधीश। वासुदेव कहीं आप उसे अपने पास तो लेकर नहीं आए। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं मैं, नहीं तो। फिर तीनों कहती हैं कि कुछ भी कीजिये वासुदेव हमें हमारा प्रद्युम्न लौटा दीजिये। हम प्रद्युम्न के बिना नहीं जी सकेंगे वासुदेव। यह कहकर तीनों रोने लगती हैं।... 
 
यह देखकर और सुनकर संभरासुर जोर-जोर से हंसने लगता है। तभी वहां पर नारदमुनि आकर पूछते हैं- असुरेश्वर आप यहां? तब वह कहता है कि हां मैं यहां आकाश में ही हूं दे‍वर्षि। यहां से द्वारिका देख रहा हूं। प्रद्युम्न के हरण के बाद द्वारिका में जो हलचल मच गई है वही देख रहा हूं देवर्षि। 
 
उधर, श्रीकृष्ण विलाप कर ही तीनों रानियों को कहते हैं कि शांत हो जाइये। रुक्मिणी कहती हैं- कैसे शांत हो जाऊं त्रिलोकीनाथ। मैंने अपना पुत्र खोया है और आप मुझे शांत होने का कह रहे हैं? जब तक मुझे मेरा प्रद्युम्न नहीं मिल जाता मैं शांत नहीं रहूंगी। वासुदेव आप तो ब्राह्मण के पुत्र को यमलोक से लाए थे फिर आपने मेरे प्रद्युम्न की रक्षा क्यों नहीं की द्वारिकाधीश? 
 
यह सुनकर संभरासुर प्रसन्न होकर जोर-जोर से हंसता है और नारदमुनि से कहता है कि हरण नहीं मैंने उस बालक को यमलोक भेज दिया है। देवर्षि आज मैंने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की है। 
 
तभी वहां पर श्रीकृष्‍ण के कक्ष में बलरामजी आकर कहते हैं कि कन्हैया क्या बात है? इतनी रात गए ये कैसा शोर है? कन्हैया इतनी रात गए किस विषय पर बहस हो रही है बताओ? और तुम सब यहां हो तो प्रद्युम्न के पास कौन है?... यह सुनकर तीनों रानियां रोने लगती है तो बलरामजी कहते हैं- ये रो क्यों रही है कन्हैया कुछ...कन्हैया मेरा प्रद्युम्न कहां है? कोई कुछ जवाब नहीं देता है तो बलरामजी समझ जाते हैं। 
 
यह देखकर संभरासुर कहता है- देवर्षि मेरे पुत्र मायासुर के हाथों जिसका वध होने वाला था वो बलराम अब अपने छोटे भाई कृष्ण की मदद करने आया है वो देखो। अब संभरासुर का कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता संभरासुर बलवान है देवर्षि। ऐसा कहकर वह जोर-जोर से हंसकर वहां से चला जाता है। तब नारदमुनि श्रीकृष्ण से कहते हैं- प्रभु आपके और देवी रुक्मिणी के नाटक का महत्व मेरी समझ में आ गया है। संभरासुर का विस्मरण मुझे हुआ था परंतु आपको नहीं भगवन। प्रद्युम्न के हरण के बाद देवी रुक्मिणी शोकाकुल हो गई। इसका विश्वास आपने उस संभरासुर को दिलाया। आपकी माया के प्रभाव में वो संभरासुर आ गया है भगवन। धन्य है प्रभु, धन्य है आपकी माया। प्रभु अब नाटक का अगला प्रवेश क्या होगा? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस प्रवेश के सूत्रधार दाऊ भैया हैं देवर्षि। प्रद्युम्न को ढूंढ निकालने सैनिक और गुप्तचरों को आदेश दे रहे हैं।
 
उधर, बलरामजी सभी सैनिकों और गुप्तचरों से कहते हैं कि जाओ जंगल, पर्वत, समुद्र, नगर सभी जगह तलाश को। कुछ भी करो लेकिन मुझे मेरा प्रद्युम्न लौटा दो जाओ।...फिर द्वारिका की सारी सेना प्रद्युम्न को ढूंढने में लग जाती है।
 
फिर सत्यभामा, रुक्मिणी, जामवंती सभी श्रीकृष्‍ण के पास खड़ी रहती है और बलरामजी बैचेन हो इधर-उधर घुमते रहते हैं तब सत्यभामा पूछती है क्या बात है दाऊ भैया अभी तक आपके गुप्तचर प्रद्युम्न का पता लगाकर नहीं आए। तब बलरामजी कहते हैं कि आते ही होंगे। तभी एक गुप्तचर को आते हुए देखकर बलरामजी कहते हैं कि सत्यभामा गुप्तचर सुरजित आ रहा है अब हमारे प्रद्युम्न के बारे में अवश्य जानकारी मिलेगी। तब वह गुप्तचर आकर कहता है कि प्रद्युम्न का पता लगाने के लिए पूर्व दिशा में प्रयास किया परंतु प्रद्युम्न कहीं नजर नहीं आए। राजपुत्र प्रद्युम्न को ढूंढने में मैं असफल रहा हूं। बलरामजी कहते हैं- ठीक है जाओ।, प्रयास जारी रखो। 
 
उधर, आसमान से नारदजी कहते हैं- प्रभु दाऊ भैया को समझाइये कि वे प्रद्युम्न को ढूंढने का व्यर्थ ही प्रयास कर रहे हैं। इस पर कृष्‍ण कहते हैं कि अपने अपने कर्तव्य को हर एक को निभाना पड़ता है देवर्षि। बलराम मेरे बड़े भाई हैं और बड़े भाई होने के नाते प्रद्युम्न को ढूंढने का दिल से प्रयास कर रहे हैं। तब नारद जी कहते हैं परंतु प्रभु दाऊ भैया कैसे पता लगा पाएंगे? 
 
इधर, दो गुप्तचर आकर कहते हैं कि हमें खेद है कि हम राजपुत्र प्रद्युम्न का पता लगाने में असफल रहे हैं। बलरामजी कहते हैं- ठीक है जाओ, प्रयास जारी रखो। फिर सत्यभामा कहती हैं- दाऊ भैया यदि आप इसी तरह स्त्रियों में बैठे खेद प्रकट करते रहेंगे तो वह पापी हमारे कुल के दीपक को बुझा डालेगा। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- नहीं नहीं, यदि उस पापी ने ऐसा किया तो मैं सारी पृथ्‍वी को उलट दूंगा। नष्ट कर दूंगा मैं सारे संसार को। नष्ट कर दूंगा...ऐसा कहकर बलरामजी वहां से चले जाते हैं। रुक्मिणी उन्हें पीछे से रोकती ही रह जाती है। 
 
बलरामजी अपने कक्ष में जाकर अपने हल को देखते हैं।... नारदमुनि और श्रीकृष्‍ण यह देखते रहते हैं कि अब वे क्या करेंगे। तब बलरामजी अपने हल को धरती पर दबाने लगते हैं तो धरती हिलने लगती है भूकंप आ जाता है।...यह देखकर देवर्षि नारद कहते हैं प्रभु दाऊ भैया को रोकिये। रोकिये प्रभु वर्ना अनर्थ हो जाएगा। बलरामजी के क्रोध के आगे पृथ्‍वीलोक और पाताललोक के निष्पाप प्राणी मारे जाएंगे प्रभु मारे जाएंगे। 
 
फिर क्रोध में भरे बलरामजी अपने हाल को उपर उठा लेते हैं और अपने कंधे पर रखकर चल पड़ते हैं। वे बाहर निकलकर नगर में पहुंच जाते हैं। सभी नगरवासी उन्हें इस रूप में देखकर हैरान हो जाते हैं। आसमान में सभी देवी और देवता उन्हें देखने लगते हैं। वह नगर से बाहर एक विशालकाय जल सरोवर किनारे पहुंच जाते हैं और फिर वे अपने हल को पूरी ताकत से भूमि पर मारते हैं जिससे भूकंप सा उत्पन्न हो जाता है और धरती कांपने लगती है। वे अपना हल भूमि में धंसाने लगते हैं। ब्राह्मा और शंकर सहित सभी देवी और देवता ये देखते हैं। 
 
तभी वहां श्रीकृष्‍ण आकर कहते हैं- रुक जाओ दाऊ भैया, रुक जाओ। परंतु दाऊ भैया कुछ नहीं सुनते हैं तब श्रीकृष्‍ण दौड़ते हुए आकर उनका हाथ पकड़ते हैं तो दाऊ भैया कहते हैं- छोड़ों मुझे मैं बहुत क्रोध में हूं। तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि इसीलिए तो मैं आपको रोकना चाहता हूं। हम क्रोध के आवेश में आकर हम जो कुछ करते हैं उसके परिणाम भयंकर होते हैं। कदाचित आप जो करने जा रहे हैं आप उसका परिणाम जानते नहीं। 
 
बलरामजी श्रीकृष्ण का हाथ झटककर कहते हैं- अरे मैं सब परिणाम अच्छे से जानता हूं कन्हैया। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- फिर भी आप ये करने जा रहे हैं क्यों? तब बलरामजी कहते हैं- क्यों! तुम जानकर भी अनजान बन रहे हो कन्हैया। मेरा भतीजा और तुम्हारा पुत्र प्रद्युम्न कहां है? कहां है प्रद्युम्न बताओ? किसने उसका हरण करने का दु:साहस किया है कन्हैया? कन्हैया जब तक हमारा प्रद्युम्न हमें नहीं मिलता मैं किसी की भी बात नहीं सुनूंगा। यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- मेरी भी नहीं सुनेंगे दाऊ भैया? तब बलरामजी कहते हैं- हां हां तुम्हारी भी नहीं सुनूंगा।... अब मैं सारे संसार को दिखा दूंगा कन्हैया की हम से दुश्‍मनी मोल लेने का दंड क्या मिलता है। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप तो पृथ्‍वीलोक और पाताललोक के समस्त प्राणियों को दंड देने जा रहे हैं। उनका क्या अपराध है? आपने तो ये अस्त्र चला दिया है दाऊ भैया परंतु क्या आप इस अस्त्र का दुष्परिणाम जानते हैं? तब बलरामजी कहते हैं कि जानता हूं कन्हैया जानता हूं। अरे मैंने तो अपना ये अस्त्र समस्त नदियों का पानी रोकने के लिए ही चलाया है। मेरे इस हल के प्रथम प्रहार से सारी नदियों के पानी मैंने रोक दिए हैं कन्हैया। तब मैं इस अस्त्र को खींचूगा तो समस्त नदियों के प्रवाह द्वारिका की ओर मुड़ जाएंगे और द्वारिका के पास समुंदर में विलिन हो जाएंगे। तब सारी सृष्‍टि एक मछली की तरह पानी के लिए तड़पेगी कन्हैया और मैं ये प्रभाव द्वारिका की ओर तब तक रखूंगा तब तक की हमें हमारा प्रद्युम्न वापस नहीं लौटा दिया जाता।
 
यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि दाऊ भैया ऐसा करने से तो अनर्थ हो जाएगा। तब बलरामजी कहते हैं कि अरे अनर्थ तो हो चुका है कन्हैया, जब हमारे प्रद्युम्न का हरण हुआ है। तुम हट जाओ कन्हैया। ऐसा कहकर बलरामजी अपने हल को पकड़कर खींचने लगते हैं तो श्रीकृष्‍ण उनका हाथ पकड़कर कहते हैं- नहीं दाऊ भैया नहीं। आप तो महाज्ञानी है और क्रोध आपका शत्रु है। 
 
तब बलरामजी कहते हैं- कन्हैया मुझे बातों में उलझाने का प्रयास मत करो। मैं अपना निर्णय बदलने वाला नहीं हूं। यह कहने के बाद बलरामजी रोते हुए कहते हैं कि मुझसे रुक्मिणी, जामवंती और सत्यभामा की व्याकुलता नहीं देखी जाती कन्हैया। वो तीनों लगातार रोए जा रही हैं और तुम एकदम शांत हो। तुम शांत कैसे रहे...कन्हैया अवश्य तुम मुझसे कुछ छुपा रहे हो। मेरा अंतरमन कह रहा है कि प्रद्युम्न के हरण के बारे में तुम जानते हो और इसीलिए तुम विचलित नहीं हुए। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्‍ण मुस्कुराने लगते हैं तो बलरामजी कहते हैं कि तुम मुझे बता दो की किस मायावी ने हमारे प्रद्युम्न का हरण करने का दुस्साहस किया है। मैं उसे ऐसा दंड दूंगा कि फिर वह किसी मां की गोद से कोई बच्चा ले जाने का साहस नहीं करेगा। यह सुनकर श्रीकृष्‍ण मुस्कुराने लगते हैं तो बलरामजी कहते हैं कि कन्हैया तुम मुस्कुरा रहे हो क्यों? तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं क्योंकि आप अपने आप को पहचान नहीं रहे हैं दाऊ भैया। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं- पहचान नहीं रहा? 
 
तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं- हां दाऊ भैया आप अपने आप को पहचानिये। ऐसा कहकर श्रीकृष्‍ण आशीर्वाद की मुद्रा में बलरामजी के चक्षु खोलते हैं तो बलरामजी खुद को श्रीकृष्‍ण के साथ समुद्र के भीतर पाते हैं और फिर वे देखते हैं कि वहां देवी लक्ष्मी और विष्णु रूप में श्रीकृष्‍ण एवं रुक्मिणी शेषनाग पर बैठे हैं। 
 
यह देखकर श्रीकृष्‍ण और बलरामजी दोनों उन्हें प्राणाम करते हैं। सभी देवी और देवता भी प्रणाम करते हैं। फिर बलराम दोनों को प्राणम करते हैं तो विष्णुजी कहते हैं- बलराम कदाचित तुम्हें याद नहीं होगा इसलिए मैं तुम्हें याद दिलाना आवश्‍यक समझता हूं कि तुम शेषनाग का अवतार हो। वासुदेव श्रीकृष्‍ण मेरा ही एक रूप है। यह सुनकर बलरामजी कहते हैं कि परंतु भगवन मैं तो आपका भक्त हूं फिर मैं इस रूप में आपका बड़ा भाई कैसे बना तो विष्णुजी कहते हैं कि रामावतार में तुम छोटे भाई थे लक्ष्मण। उस समय तुमने कहा था कि मेरे बड़े भाई होने की तुम्हारी इच्छा है।...यह सुनकर बलरामजी सोच में पड़ जाते हैं और फिर उन्हें सबकुछ याद आ जाता है।
 
फिर विष्णुजी कहते हैं कि तुमने पृथ्‍वीलोक और पाताललोक का पानी रोक दिया। ये तुमने योग्य कार्य नहीं किया बलराम। फिर माता लक्ष्मी कहती है कि प्रद्युम्न की चिंता करने की तुम्हें आवश्यकता नहीं। प्रद्युम्न का हरण हो यही विधि का विधान है। फिर विष्णुजी कहते हैं कि संभरासुर का वध करने के लिए ही प्रद्युम्न का जन्म हुआ है। प्रद्युम्न कामदेव का अवतार है और प्रद्युम्न मेरा ही अंश है।
 
फिर बलरामजी कहते हैं कि परंतु भगवन! क्या श्रीकृष्ण या मैं संभरासुर का वध नहीं कर सकते हैं क्या? तब विष्णुजी बताते हैं कि उसे शक्ति माता दुर्गा ने वर दिया है। यदि तुम वध करोगे तो ये अनुचित होगा। इसीलिए शिवजी के आशीर्वाद से कामदेव ने श्रीकृष्‍ण के रूप में पृथ्‍वीलोक पर संभरासुर का वध करने के लिए जन्म लिया है जो सर्वधा उचित है। मैं अलग अलग माध्यमों से अधर्मियों का संहार करता हूं इस समय में प्रद्युम्न के माध्यम से संभरासुर का वध करूंगा। यही विधि का विधान है बलराम। यही भगवान शिवजी की इच्‍छा है। इसलिए प्रद्युम्न के लिए आतंकित होने की कोई आवश्यकता नहीं है। बलराम वो सुरक्षित है बिल्कुल सुरक्षित। यह सुनकर बलरामजी प्रसन्न हो जाते हैं। जय श्रीकृष्णा। 
 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा

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