सिंहासन खाली करो

मैं जहाँ था, इन्‍हें जाना है, वहाँ से आगे
आसमाँ इनका, जमीं इनकी, जमाना इनका
है कई इनके जहाँ इनके मेरे जहाँ से आगे...
- कैफी आजम
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कैफी आजमी ने इस गीत को काफी पहले से लिखा था शायद उनकी इसी सोच ने शबाना आजमी को महिला होने का गर्व दिया। आज हमारे आसपास कई ऐसी महिलाएँ हैं जो पुराने केचुल को उतारकर अपने महिला होने पर गर्व करती हैं।

राजस्‍थान और महाराष्‍ट्र के आदिवासी इलाकों से बाहर निकलकर, दलित होने के सामाजिक अभिशापों को नकारते हुए महिलाएँ विकास की मुख्‍यधारा से जुड़ रही हैं। राजस्‍थान की साथिन और महाराष्‍ट्र के महिला बचत समूहों ने इसमें कई बड़े काम कर दिखाए, जो आजादी के साठ साल बाद भी नहीं हो सके थे।

इन महिला समूहों ने न केवल अपनी आर्थिक स्‍थिति सुदृढ़ की बल्‍कि कई सामाजिक बुराइयों से डटकर लड़ाई भी की। गत वर्ष महाराष्‍ट्र की दो गरीब, आदिवासी महिलाओं को राष्‍ट्रीय स्‍तर पर उनके काम के लिए पुरस्‍कृत किया गया। वहीं राजस्‍थान की साथिन पूरे देश के लिए रोल मॉडल बनी हुई हैं।

बड़े स्‍तर पर या शहरों की बात नहीं करें तो भी देश के गाँवों में महिलाओं के विकास के रास्‍ते खुल रहे हैं और इससे भी बढ़कर वे साहस के साथ इसमें भाग ले रही हैं।

इसविकाआँधी न कहकप्रगति समृद्धि की बयाकहेअच्‍होगा, ्‍योंकि उन्‍नति गर्सुगंधिहवपूरदेमेरहमहिलउन्‍नति लिप्राण-वायकारहहै

विकास की अवधारणा में यह बात शामिल है कि सकल राष्‍ट्रीय उत्‍पाद में वृद्धि हो या फिर प्रति व्‍यक्‍ति आय बढ़े। लेकिन इसमें वृद्धि के साथ ही देश के सर्वांगीण विकास के लिए नितांत जरूरी है कि इन दोनों का समाज के हर वर्ग के सामाजिक और राजनीतिक विकास में फायदा हो।

भारत में विकास के दौर में सशक्‍तीकरण को असल में 1984 के बाद दिशा मिली। इस दशक में यह सोचा जाने लगा कि विकास के लिए हरेक क्षेत्र में सशक्‍तीकरण जरूरी है। इसके लिए नीचे से ऊपर की ओर तक विकास को प्रवाहित करने पर बल दिया गया। यहाँ हर मोड़ पर वे महिलाएँ मिलीं, जो हाशिए पर थीं। विकास की इबारत इनकी प्रगति के बिना नहीं लिखी जा सकती थी।