कविता: भार तो केवल श्वासों का है...

स्वप्न जो देखा था रात्रि में हमने 
सुबह अश्रु बन बह किनारे हो गए हैं
चांद और मंगल पर विचरने वाले हम 
आज कितने बेसहारे हो गए हैं
विकास की तालश में हमने हमेशा 
जंगलों, पहाड़ों, पठारों को गिराया 
विकसित से अति विकसित बनने के सफर में
सृष्टि के किताब के अनमोल पृष्ठों को जलाया
बरगद, नीम, पीपल को काटकर 
प्राणवायु दाता का उपहास उड़ाया
कंक्रीट के जंगलों में कैक्टस और  
बोगनवेलिया उगाया
मंगल और चंद्रमा पर बसने के प्रयास में 
धरती को मिट्टी मानुष का उपहास उड़ाया
स्वार्थ, लालच और अभिमान के मार से गर्वित हो
तमाम पशु-पक्षियों का नामो निशान मिटाया
लेकिन आज तुम हे मानव 
ऑक्सीजन सिलेंडर लगाए 
हांफ रहे हो भाग रहे हो 
और उद्घाटित कर रहे हो 
इस सत्य को कि 
भार तो केवल श्वांसो का है 
बाकी सब मिथ्या है।

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