इजराइल-हमास की लड़ाई से किसकी होगी कमाई?

राम यादव

मंगलवार, 21 नवंबर 2023 (23:12 IST)
Israel-Hamas war : जब दो आपस में लड़ते हैं, तब कोई ऐसा तीसरा-चौथा भी होता है जिसके मुंह से लार टपकने लगती है। इजराइल और हमास के बीच 7 अक्टूबर से चल रही लड़ाई भी इस नियम का अपवाद नहीं है। अंत में फ़ायदा उनका होगा, जो आग में घी डालने की ताक में रहते हैं।
 
इजराइल और हमास लड़ने में व्यस्त हैं और कई देशों की गुप्तचर सेवाएं यह बूझने में कि यह हुआ कैसे कि हमास के आतंकी 7 अक्टूबर को इजराइल में घुस गए और दुनिया की सबसे तेज़-तर्रार इजराइली गुप्तचर सेवा 'मोसाद' को भनक तक नहीं लगी?
 
यही प्रश्न अमेरिकी गुप्तचर सेवा CIA के अधिकारियों और अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो सैन्य बठबंधन के देशों को भी परेशान कर रहा है। किसी को रत्तीभर भी भनक नहीं थी कि गाज़ा और इजराइल के बीच की सीमा पर ऐसा कुछ होने जा रहा है, जो एक बड़े युद्ध की भूमिका बन सकता है।
 
गोपनीयता में मोसाद को मात दी : 7 अक्टूबर के बाद से पश्चिमी गुप्तचर सेवाएं क्या कुछ जान पाई हैं, इस बारे में खुलकर तो कुछ नहीं कहा जा रहा है, पर दबी ज़बान यह सुनने में आ रहा है कि हमास के भीतर भी केवल 50 ऐसे लोग थे, जो इस बार इजराइल को बुरी तरह झकझोर देने की गुप्त योजना को बनाने और कार्यान्वित करने में शामिल थे।
 
आपसी बातचीत के लिए एक 'तालिबानी तरीका' अपनाया गया था : आधुनिक डिजिटल तकनीक का रत्तीभर भी उपयोग नहीं। जो कुछ कहना-सुनना है, वह पुराने ज़माने के हरकारों वाले तरीके से हाथोहाथ चिट्ठियां भेजकर या कानोकान फूंककर बताया गया। इजराइल की गुपतचर सेवा 'मोसाद' आधुनिक डिजिटल तकनीक की कायल है। हरकारों की चुप्पी के आगे उच्च कोटि की आधुनिक तकनीक वाले 'मोसाद' के सारे उपकरण धरे-के-धरे रह गए।
 
भूल-भुलावे में रखा : इजराइल पर हमले से पहले हमास के रणनीतिकारों ने इजराइल को भूल-भुलावे में रखने के लिए एक व्यापक आडंबर रचा। उन्होंने अपने आचार-व्यवहार से ऐसा आभास दिया, मानो अब वे उतने उग्रवादी नहीं रहे जितना उन्हें बताया जाता है। यह दिखावा करते हुए इजराइल से वार्तालाप भी करने लगे कि वे फ़िलस्तीनियों की आर्थिक हालत बेहतर बनाना चाहते हैं इसलिए चाहते हैं कि इजराइल में फ़िलस्तिनियों के काम करने के लिए दी जाने वाली अनुमति का कोटा बढ़ा दिया जाए।
 
सामने वाले को भुलावे में रखने की यह रणनीति ज़ारकालीन रूस में काफ़ी प्रचलित रही है। रूस में इसे 'मास्किरोव्का' कहा जाता है। बताया जाता है कि चीन के प्राचीन दार्शनिक सुन त्सू ने भी आज से क़रीब 2,500 वर्ष पूर्व इस रणनीति का उल्लेख करते हुए कहा था, 'हर युद्ध धोखाधड़ी पर ही आधारित होता है।' पश्चिमी गुप्तचर सेवाएं चकित हैं कि बाबा आदम के ज़माने की हमास की यह चाल दुनिया के एक ऐसे भाग में चल गई, जहां दुनिया के किसी भी दूसरे हिस्से की अपेक्षा कहीं अधिक जासूसों की भरमार है। 
 
हमास का रूस से संबंध : अटकलें लगाई जा रही हैं कि सोवियत रूस के समय की गुप्तचर सेवा KGB के लिए काम कर चुके रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, हमास की इस अनोखी चाल के बारे में ज़रूर जानते रहे होंगे। हमास के प्रमुख खालेद मशाल 2006 में पुतिन से मिल चुके हैं। उनका उस समय मॉस्को में हार्दिक स्वागत हुआ था।
 
मशाल बाद में रूसी विदेशमंत्री सेर्गेई लावरोव से अनगिनत बार मिले हैं। इस कारण पश्चिमी देशों में मना जा रहा है कि 7 अक्टूबर को इजराइल पर हमले से पहले हो न हो, दोनों पक्षों ने मिलकर हमले की योजना बनाई हो। पश्चिमी देशों के अनुसार ऐसी कई बातें हैं, जो इस मिलिभगत की तरफ़ इशारा करती हैं।
 
एक महोत्सव को निशाना बनाया : हमास के लड़ाकों और आतंकवादियों ने 7 अक्टूबर को गाज़ा की सीमा के पास इजराइल में चल रहे नाच-गानों के जिस महोत्सव पर अकस्मात हमला बोला था। वहां उन्होंने मर्दों, औरतों और बच्चों को गाजर-मूली की तरह काट-मारकर अपूर्व पशुता का परिचय दिया। इजराइल का कहना है कि इस नरसंहार के पहले 3 दिनों में ही 1200 मौतें हो चुकी थीं, 1,600 से अधिक लोग घायल हुए थे और कम से कम 239 स्त्री-पुरुषों का अपहरण कर उन्हें गाज़ा पट्टी में बंधक बनाया गया था।
 
गाज़ा पट्टी पर इस समय चल रही इजराइली बमबारी का एक मुख्य कारण 7 अक्टूबर के अपहृत बंधकों का पता लगाना और हमास से चंगुल से उन्हें छुड़ाना है। उस दिन के क़त्लेआम के लिए फ़िलिस्तीनी हत्यारों को न केवल मज़हबी घुट्टी पिलाकर धर्मांध बनाया गया था, प्लास्टिक की ढेर-सारी थैलियों में उन्हें 'कैप्टागॉन' नाम की एक सिंथेटिक मादक दवा की गोलियां भी दी गई थीं ताकि वे सारी मानवता भूलकर बस अंधाधुंध ख़ून बहाएं। हमलावरों ने इजराइल द्वारा गाज़ा पट्टी के साथ वाली सीमा पर बनाई गई बाड़ से जुड़े अलार्म आदि को 'साइबर अटैक' से निकम्मा कर दिया था।
 
हमास का तकनीकी स्तर : जर्मनी के सैन्य विशेषज्ञों का कहना है कि 'इस तकनीकी स्तर पर हमास पहले कभी नहीं था। यह तो इस समय चल रहे यूक्रेनी युद्ध वाला तकनीकी स्तर है।' संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि इसके पीछे पश्चिमी देशों का विराधी कोई ऐसा ग़ैरसरकारी गठजोड़ है, जो हमास द्वारा बड़े पैमाने पर ख़ून-ख़राबे को तकनीकी तौर पर न केवल संभव बनाता है, बल्कि उसे इसके लिए प्रेरित भी करता है। यदि ऐसा कोई गठजोड़ है, तो यह भी संभव है कि यूक्रेन के बाद अब मध्यपूर्व 'तीसरे विश्वयुद्ध का दूसरा मोर्चा' बन जाएगा।
 
फ़िलहाल यह मानकर चला जा रहा है कि पश्चिम विरोधी कोई ग़ैरसरकारी गठजोड़ सचमुच हो या न हो, रूस, चीन, ईरान और उत्तर कोरिया के बीच एक ऐसा तालमेल ज़रूर है, जो दुनिया पर अपना राजनीतिक वर्चस्व चाहता है। इस चौकड़ी का साझा लक्ष्य यही हो सकता है कि उसे अमेरिका, यूरोपीय संघ और पश्चिमी सैन्य संगठन नाटो को झकझोर देना, और हो सके तो छिन्न-भिन्न कर देना है।
 
पश्चिमी विशेषज्ञों का दृष्टिकोण : पश्चिमी विशेषज्ञों की दृष्टि से रूस, चीन, ईरान और उत्तर कोरिया स्वयं भी अपने यहां किसी न किसी चुनौती का सामना कर रहे हैं इसलिए अपनी जनता का ध्यान कहीं और भटकाना चाहते हैं। उदाहरण के लिए 71 वर्षीय रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने यूक्रेन के विरुद्ध युद्ध छेड़कर अपनी जनता का ध्यान उसकी अपनी समस्याओं के बदले यूक्रेन और देशप्रेम की तरफ मोड़ दिया है।
 
पश्चिमी विशेषज्ञों का अनुमान है कि पुतिन शायद यह सोचते हैं कि यूक्रेन युद्ध लंबा खिंचने पर पश्चिमी देशों की जनता और सरकारें भी यूक्रेन की सहायता करते-करते ऊब जाएंगी। इसी तरह नाटो वाले पश्चिमी देशों को यदि गाज़ा में भी लंबे समय के लिए उलझा दिया जाए तो उनकी अपनी जनता की ऊब और झल्लाहट भी उनकी राह का रोड़ा बन सकती है। तब यूक्रेन में या स्वयं रूस में भी अपनी नीतियां चलाना और जनविरोध को दबाना पुतिन के लिए और भी आसान हो जाएगा।
 
ईरान की अवसरवादिता : ईरान के 84 वर्षीय सर्वोच्च इस्लामी धर्माधिकारी अयातोल्ला अली ख़मेइनी की गद्दी 2022 में बहुत हिलने लगी थी। हिज़ाब का विरोध कर रही वहां की महिलाएं सड़कों पर उतर आई थीं। भारी धरपकड़ हुई और कई फांसियां भी दी गईं। गाज़ा में चल रहे युद्ध के बहाने से ख़मेइनी के लिए ईरानियों को भड़काना और भटकाना आसान हो गया है। वे यही गुहार लगाएंगे कि इस्लाम और ईरान के 'परम शत्रु' इजराइल और उसके साथियों को तहस-नहस करने के लिए ईरानी जनता को एकजुट होना पड़ेगा। 
 
उत्तरी कोरिया के 39 वर्षीय तानाशाह किम जोंग उन ने अमेरिका को 'सबक सिखाने' की मानो क़सम खा रखी है। आए दिन मिसाइल परीक्षण करवाते हैं। उनका समझना है कि लोकतांत्रिक दक्षिणी कोरिया के सिर पर से अमेरिका का वरदहस्त यदि हट जाए तो उसे हथियाने का रास्ता साफ़ हो जाएगा। दक्षिणी कोरिया की आर्थिक प्रगति और लोकतांत्रिक उदारता, उत्तरी कोरिया की दमन पीड़ित जनता के मन में किम जोंग उन के प्रति विरोध जगाती है।
 
चीन का विस्तारवाद : कुछ ऐसा ही हाल चीन के तानाशाह शी जिनपिंग का भी है। छोटे-से लोकतांत्रिक देश ताइवान को हड़प जाने के लिए वे लंबे समय से व्याकुल हैं। चीन में कम्युनिस्टों का राज होने से पहले ताइवान भी चीन का ही एक टापू हुआ करता था। जिनपिंग सोचते हैं कि क्षेत्रफल में तिब्बत जैसे एक बड़े देश को चीन ने जब 7 दशक पहले ही निगल लिया, तो छोटे-से ताइवान की भला क्या हैसियत है? वे अपने जीवनकाल में ही ताइवान पर चीन का झंडा फ़हराना चाहते हैं। किंतु ताइवान के सिर पर जब तक अमेरिका का वरदहस्त है, तब तक यह मनोकाना पूरी होना टेढ़ी खीर है।
 
इन्हीं दिनों रूस के एक सरकारी टेलीविज़न चैनल पर प्रसारित एक राजनीतिक समीक्षा में कहा गया कि मध्यपूर्व में जो संकट देखने में आ रहा है, 'वह हमारे राष्ट्रपति की बताई पतनोन्मुख प्रक्रिया की ही अभिव्यक्ति है। ...अब केवल ताइवान का पतन ही बाक़ी है। ताइवान आग की भेंट चढ़ जाएगा और तब यह दुनिया निश्चित रूप से सदा के लिए बदल जाएगी।' 
 
वर्चस्ववाद का टकराव : इस समीक्षा से यही संकेत मिलता है कि अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी देश रूस, चीन, ईरान और उत्तर कोरिया वाले चौगुटे पर जिस वर्चस्ववाद का आरोप लगाते हैं, वह पूरी तरह निराधार या खोखला नहीं है। पर पश्चिमी देश भी दूध के धुले नहीं हैं। उनकी समस्या यह है कि दुनिया पर अब तक रहा उनका वर्चस्व अब घट रहा है। इसीलिए अमेरिकी विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन ही नहीं, अतीत में दुनिया में कहीं भी अनचाही सरकारें गिराने और मनचाही सरकारें बनाने में माहिर अमेरिकी गुप्तचर सेवा CIA के निदेशक विलियम बर्न्स भी इन दिनों घूम-घूमकर आग बुझाने में लगे हैं।
 
क़तर की भूमिका : बर्न्स के बारे में कहा जा रहा है कि वे किसी से भी, ज़रूरत पड़ने पर शैतान से भी स्वयं बात करने को तैयार रहते हैं। बर्न्स और इजराइली गुप्तचर सेवा मोसाद के निदेशक डेविड बार्नेआ नवंबर के दूसरे सप्ताह में क़तर में थे। क़तर को हमास का क़रीबी माना जाता है। हो सकता है कि क़तर के ही कहने पर हमास अपने पास के कुछ इजराइली बंदियों को रिहा कर दे।
 
बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में स्थित नाटो के मुख्यालय में उन संभावित परिदृश्यों की कल्पना और उनके परिणामों का आकलन किया जा रहा है, जो हमास-इजराइली युद्ध के चलते रहने से पैदा हो सकते हैं। सुनने में आता है कि संभावित परिणामों का सही आकलन बहुत कठिन सिद्ध हो रहा है। हर सैनिक कर्रवाई के आर्थिक और राजनीतिक परिणाम इतने भयावह हो सकते हैं कि सब कुछ दांव पर लग जाए।
 
तेल और भी महंगा हो सकता है : उदाहरण के लिए पश्चिमी देशों के किसी छोटे-मोटे क़दम के बदले में ईरान यदि होर्मुज़ जलडमरूमध्य वाला समुद्री रास्ता रोक दे तो तेल की क़ीमतें आसमान छूने लग जाएंगी। भारत सहित वे सभी देश भी प्रभावित होंगे जिनका हमास-इजराइल झगड़े से कुछ भी लेना-देना नहीं है। यही नहीं, हर बात को अपने मज़हब से जोड़कर देखने वाले वे आतंकवादी भी तुरंत सक्रिय हो जाएंगे, जो मानते हैं कि इस्लाम के लिए बलिदान उनका परम कर्तव्य है।
 
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन को एक अलग ही चिंता सता रही है- जनता के बीच उनकी घटती लोकप्रियता। अमेरिकी चैनल CNN के एक मत सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिका के केवल 36 प्रतिशत लोग मानते हैं कि बाइडन विश्व की राजनीति को प्रभावित कर सकने वाले एक नेता हैं।
 
अगले अमेरिकी चुनाव की अभी से पड़ती छाया : 48 प्रतिशत अमेरिकियों का मानना है कि विश्व की राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता तो केवल डोनाल्ड ट्रम्प के पास है। कल्पना करना कठिन नहीं है कि ट्रम्प जैसा एक आत्ममुग्ध सनकी व्यक्ति, जो इस समय कई मुकदमों का सामना कर रहा है, यदि वैश्विक राजनीति की दिशा और दशा तय करने लगा तो दुनिया का क्या हाल होगा? अमेरिका में अगले वर्ष राष्ट्रपति का चुनाव है। बड़बोले ट्रम्प अपने भाषणों में अभी से कहने लगे हैं कि तीसरा विश्वयुद्ध दस्तक दे रहा है। जो लोग उसे नहीं चाहते, उन्हें नवंबर 2024 के चुनाव में जो बाइडन को हराना होगा।
 
इन सारी बातों पर सोच-विचार के बाद तो यही लगता है कि गाज़ा पट्टी पर राज करने वाले हमास का इजराइल पर आतंकवादी हमला इजराइल को ही नहीं, इजराइल के सभी मित्र देशों को भी अपनी लपेट में ले रहा है। लाभान्वित होने वाले मॉस्को, बीजिंग, तेहरान और प्योंगयांग में बैठे हैं। हमास के लोग इस समय और इससे पहले भी हर साल-दो साल पर इजराइल पर जो रॉकेट आदि बरसाते रहे हैं, वे और दूसरे कई हथियार भी उन्हें इन्हीं देशों से मिलते रहे हैं। ये देश तो यही चाहेंगे कि लड़ाई होती रहे, उनकी कमाई चलती रहे। 
 
Edited by: Ravindra Gupta
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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