हुर्रियत को वार्ता में शामिल करवाने की खातिर हर हथकंडा अपना रही सरकार

सुरेश एस डुग्गर

मंगलवार, 7 नवंबर 2017 (09:11 IST)
श्रीनगर। यह एक सत्य कथन और तथ्य है कि हुर्रियत कांफ्रेंस की भागीदारी के बिना कश्मीर में होने वाले प्रत्येक चुनाव बेमायने ही माने जाते रहे हैं, ठीक उसी प्रकार कश्मीर को सुलझाने की खातिर होने वाली हर बातचीत में से हुर्रियती नेताओं की गैर मौजूदगी वार्ता के मकसद को ही खत्म करती आई है। यही कारण है कि इस बार सरकार की ओर से नवनियुक्त वार्ताकार दिनेश्वर शर्मा से बातचीत के लिए हामी भरवाने के लिए ‘हर हथकंडा’ अपनाया जा रहा है।
 
इस हथकंडे में दबाव की रणनीति सबसे प्रमुख है। यह दबाव एनआईए अर्थात राष्ट्रीय जांच एजेंसी के माध्यम से हुर्रियती नेताओं पर डाला जा रहा है। टेरर फंडिंग के नाम पर पिछले कुछ हफ्तों के भीतर होने वाली गिरफ्तारियों तथा एनआईए के आफिस में आकर हाजिरी देने संबंधी जारी किए जाने वाले नोटिस भी इसी दबाव की रणनीति के हिस्सा हैं।
 
कल दिनेश्वर शर्मा के कश्मीर पहुंचने से पहले और उसके बाद भी यह दबाव की रणनीति जारी रही थी। खुद हुर्रियत प्रवक्ता ने बयान जारी कर कहा था कि सरकार के प्रतिनिधि ने शर्मा से बातचीत के लिए दबाव बनाते हुए दो बार सईद अली शाह गिलानी से मुलाकात भी की। हालांकि जेकेएलएफ के चीफ यासीन मलिक तो कहते थे कि उन्हें वार्ता में शामिल न होने की सूरत में एनआईए के जरिए केसों में ‘फंसवा’ देने की धमकियां दी जा रही हैं।
 
याद रहे दिनेश्वर शर्मा की वार्ताकार के तौर पर नियुक्ति का कुछ ही हल्कों में स्वागत किया गया है। खास कर सरकार समर्थक हल्कों में। उनकी नियुक्ति के प्रति एक कड़वी सच्चाई इस बार यह है कि जम्मू तथा लद्दाख की जनता पहले के वार्ताकारों की नियुक्ति का हमेशा स्वागत करती रही है लेकिन वे भी इस बार इसलिए मायूस नजर आ रहे हैं क्योंकि उनका सवाल था कि पहले के वार्ताकारों की संस्तुतियों को लागू न कर नए वार्ताकार को क्यों नियुक्त किया गया है।
 
यही सोच हुर्रियती नेताओं की है। वे कहते थे कि वार्ताकारों की नियुक्ति कश्मीर मसले को नहीं सुलझा सकती। शर्मा के राज्य के दौरे से दो दिन पहले ही सईद अली शाह गिलानी ने बातचीत से समस्या का हल निकालने की बात कही थी लेकिन वे सीधे केंद्र सरकार के साथ बिना शर्त बातचीत के पक्ष में थे।
 
यही नहीं अब तो वे प्रधानमंत्री से कम किसी से भी बात करने को राजी इसलिए भी नहीं हैं क्योंकि उनका मानना था कि पहले भी वार्ताकारों से बातचीत तो हुई पर नतीजा शून्य ही निकला है जिस कारण वार्ताकारों से बात करना बेमायने है और समय की बर्बादी है। ऐसा ही कथन नेशनल कांफ्रेंस के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. फारूक अब्दुल्ला का भी है। उन्हें भी लगता है कि वार्ताकारों की नियुक्ति सिर्फ समय बर्बाद करने की कवायद है।

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