जरा याद करो कुर्बानी...

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कितना मुश्किल होता होगा वह क्षण जब एक तरफ परिवार की खु‍शियाँ पुकार रही हों और दूसरी तरफ देश के प्रति आपका फर्ज सामने खड़ा हो। और बिना एक पल गँवाए वे चुनते हैं देश के प्रति अपने कर्तव्य को। लाखों सुहाग को बचाने की खातिर भूल जाते हैं वे कि वे भी किसी के सुहाग हैं। ये हैं हमारे देश के जाँबाज सिपाही जिनकी शहादत पर हमारी आँखें तो नम होती हैं पर सोच के स्तर पर हममें वैसी‍ हलचल नहीं मचती जैसी मचनी चाहिए। 26 नवंबर का काला दिन हमारे कितने हवीर और कुशल पुलिस अधिकारियों-सेना के जवानों को निगल गया।

आतंकवाद का जो विभत्स चेहरा सारी दुनिया ने देखा उसके बाद लगा था कि शायद बरसों तक यह पीड़ा हमारे दिलों से नहीं मिट सकेगी लेकिन हुआ क्या। सारी मुंबई में सब कुछ सामान्य हो गया सिवाय शहीदों के परिवारों को छोड़कर, सिवाय उन निर्दोष नागरिकों के परिवारों को छोड़कर। आम जन-जीवन का सामान्य होना उसकी मजबूरी है लेकिन राजनीतिक स्तर पर और प्रशासनिक स्तर पर जो दृढ़ता और मुस्तैदी सामने आनी थी वह नह‍ीं आई। राजनीतिक और प्रशासनिक ‍शीथिलता ना सिर्फ अखरने वाली है बल्कि चुभने वाली है। यही वजह है कि शहीदों के परिवार से यह आह निकलती है कि क्यों हुए शहीद हमारे सपूत ऐसे कृतघ्न लोगों के लिए?

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क्या चाहता है आखिर एक शहीद का परिवार इस देश से? इस देश के लोगों से? महज इतना ही ना कि उनके सपूतों की शहादत मजाक बन कर ना रह जाए। उनकी शहादत से कोई नेता खिलवाड़ ना कर सकें। उनके नाम पर सम्मान और गौरव से हमारा मन श्रद्धानत हो जाए। कितना और कैसा बिलखता होगा उन माता-पिता का मन जिनके बेटों को अभी 40-50 साल और जीना था। जीवन के कितने ही सुंदर रंगों से वंचित रह गए उन बेटों की स्मृतियाँ हर माह दस्तक देते त्योहारों पर घर के हर कोने से गूँजती होगी। ईमानदारी से जवाब दीजिए कि पिछले दिनों के कितने त्योहारों पर एक बार भी, एक पल के लिए भी हमारा मन शहीदों के लिए द्रवित हुआ? क्यों हम इतने संवेदनहीन और स्वार्थी हो गए हैं कि जब तक हमारा अपना इन हादसों का शिकार ना हो मानवता के धरातल पर हमारा मन गीला नहीं होता?

नहीं मिले हैं मुआवजे
मुबंई हमलों में शहीद हुए सिपाहियों के परिवारों को घोषित 'आकर्षक' मुआवजे अब तक नहीं मिल सकें हैं। लंबी सरकारी प्रक्रियाओं से गुजर कर थके इन मायूसों का दर्द चेहरे की लकीरों में छलकता है। पर किसे फुर्सत अब इन्हें देखने की, इनके साथ वेदना को साझा करने की? अब हमें इनकी पीड़ा से क्या लेना-देना? अपनी संतान, सुहाग और सहारे को खो चुके इन परिवारों की भला अब इस स्वार्थी समाज को जरूरत ही क्या है? शर्म से हमें डूब मरना चाहिए अगर शहीदों के परिवारों को अपनों को खोने के बाद उस पैसों के लिए परेशान होना पड़ें जो किसी भी रूप में शहीदों की भरपाई कर ही नहीं सकता। मगर संवेदना के सतह पर सवाल उमड़ते हैं कि क्या यही है हमारी भारतीयता? क्या यही है हमारा शहीदों के प्रति गौरव भाव? क्या यही है हमारी संस्कृति कि हमारी सुरक्षा के लिए अपनी खुशियों, सुरक्षा, परिवार और जान को कुर्बान कर देने वाले शहीदों के प्रति हम अहसानफरामोश हो जाए? अब तक मुआवजा नहीं मिलने की लगातार आ रही खबरों से तो यही लगता है कि हमें अपने शहीदों और उनके परिवारों की वैसी चिंता नहीं है जैसी होनी चाहिए।

कौन संदीप उन्नीकृष्णन?
मुंबई हमले में शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता का दिल उस समय छलनी हो गया जब हमले के बाद की प्रक्रिया के दौरान अपने शहीद बेटे के बारे में एक सीनियर अधिकारी और बाद में एक नेता के मुँह से सुना कि कौन संदीप उन्नीकृष्णन? है ना दुख और गुस्से से स्तब्ध कर देने वाली बात? मेजर संदीप की शहादत के बाद जब मुख्यमंत्री ने अपशब्द कहे थे तब भी मेजर संदीप के पिता का क्रोध मुखर होकर निकला था।

एक चैनल में साक्षात्कार के दौरान मेजर के पिता ने स्वीकारा कि वे नहीं चाहते थे उनका बेटा आर्मी ज्वाइन करें और इसकी एकमात्र वजह यह थी कि उनका मानना है कि संदीप में जो अतिरिक्त संवेदनशीलता और देशभक्ति का जुनून था यह निहायत स्वार्थी समाज उसके लायक नहीं है। देश के लिए वो मर मिटेगा यह वे जानते थे मगर बाद में उसकी शहादत राजनीतिक हथकंडों का शिकार होगी यह वे कतई नहीं चाहते थे। अफसोस कि उन्हीं के इकलौते चिराग के साथ वह सब हुआ।

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अब बारी है देश की जनता की
जी हाँ, अब वक्त है देश की जनता जो आए दिन अपनी सुख-सुविधा और अधिकारों के लिए सड़क पर उतर आती है, वह अब अपने कर्तव्यों का विश्लेषण करें। देश के प्रति अपने दायित्व-बोध को जाग्रत करें। आत्म-मूल्यांकन करें कि जितना हम इस देश से लेते हैं उसका कितना चौथाई लौटाते हैं। अगर लौटाने में सक्षम नहीं हैं तो इतना तो कर ही सकते हैं ना कि जो इस देश को अपना सर्वस्व लूटा कर चल दिए उनका सम्मान और उनके परिवार की सुरक्षा बनी रहे। देश पर जान लूटा देने के बदले यह तो बहुत कम कीमत है। शहीदों और उनके परिवारों के प्रति सम्मान भाव के लिए तो कम से कम हम देश की सरकार के 'मोहताज' नहीं है!!

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