नेहरू कप की खिताबी जीत से उत्साहित भारतीय फुटबॉल जगत ने वर्ष 2007 में अपनी पुरानी बीमार हालत से मुक्त होकर कामयाबी की नई उड़ान भरने का संकल्प जताया और इस कोशिश में उसे फीफा का भी भरपूर सहयोग मिला।
भारतीय फुटबॉल के लिए यह साल अपनी पिछली नाकामियों को भूलकर नई सुबह की तरफ देखने के लिए प्रेरित करने वाला साबित हुआ। इसका श्रेय गत अगस्त में मिली नेहरू कप की खिताबी जीत को जाता है। 45 वर्ष के लंबे इंतजार के बाद किसी अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट में भारत को मिली पहली कामयाबी है। इससे पहले भारत ने वर्ष 1962 के एशियाई खेलों का स्वर्ण पदक जीता था।
हालाँकि आलोचक कह सकते हैं कि भारत ने फीफा की रैंकिंग में 100 से नीचे स्थानों पर मौजूद टीमों की भागीदारी वाले इस टूर्नामेंट को जीतकर कौन सा बड़ा कारनामा कर दिखाया है, लेकिन भारतीय फुटबॉल की लगातार बिगड़ती जा रही दशा और कमजोर ढाँचागत सुविधाओं को देखते हुए यह जीत भी कोई कम उल्लेखनीय नहीं है।
भारतीय कप्तान बाईचुंग भूटिया ने नेहरू कप की ट्रॉफी को चूमते हुए कहा था कि यह भारतीय फुटबॉल के लिए एक बदलाव का आगाज है। भूटिया की अगुवाई और अंग्रेज कोच बॉब हॉटन के मार्गदर्शन में भारतीय टीम ने जिस तरह का सकारात्मक खेल दिखाया उसे खिताबी जीत के रूप में उसी का इनाम भी मिला।
लेकिन 2010 विश्व कप के क्वालीफाइंग मुकाबले में लेबनान के हाथों मिली शिकस्त कामयाबी से भरे इस साल में भूटिया एंड कंपनी को निराश भी कर गई। भारत को लेबनान की जमीन पर खेले गए मैच में 1-4 से हार का मुँह देखना पड़ा था।
बहरहाल, भारत इस साल अपनी रैंकिंग में 14 स्थानों की छलाँग लगाने में सफल रहा। पिछले साल के अंत में भारत जहाँ 157वें स्थान पर मौजूद था। वहीं इस साल वह फीफा रैंकिंग में 143वें पायदान पर खड़ा है। यह सफलता भूटिया की उम्मीदों के परवान चढ़ने का इशारा कर रही है।
शायद इसी से उत्साहित होकर एआईएफएफ ने एएफसी चैलेंज कप की मेजबानी का दावा भी पेश कर दिया। एशियाई फुटबॉल परिसंघ ने भी उसकी भावना समझते हुए उसे न केवल वर्ष 2008, बल्कि वर्ष 2010 में भी होने वाले एएफसी चैलेंज कप की मेजबानी सौंप दी। एशिया की दूसरे दर्जे की 20 टीमों के बीच होने वाले इस टूर्नामेंट में उत्तर कोरिया और तुर्कमेनिस्तान के बाद भारत को तीसरी वरीयता मिली है और इसमें उसका दावा काफी मजबूत होगा।
यूँ तो भारत ने शुरुआत में 2011 एएफसी एशिया कप के आयोजन की भी मंशा जताई थी, लेकिन जरूरी ढाँचागत सुविधाएँ न होने के कारण एआईएफएफ ने इससे हाथ खिंचना ही बेहतर समझा।
एएफसी के अध्यक्ष मोहम्मद बिन हम्माम ने भारत में स्तरीय स्टेडियम और अन्य सुविधाओं की कमी की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि इस पर अगर भारत ने ध्यान नहीं दिया तो उसे विश्व कप के लिए क्वालीफाई करने में अभी सौ साल और लग जाएँगे।
फीफा के अध्यक्ष जोसेफ सेप ब्लाटर की गत अप्रैल में हुई पहली भारत यात्रा के दौरान भी यहाँ पर फुटबॉल का स्तर उठाने की यही चिंता दिखाई दी थी। ब्लाटर ने भारत को इस खेल का निंद्राग्रस्त महारथी करार देते हुए कहा था कि फीफा एएफसी के साथ मिलकर इसे व्यापक आर्थिक और तकनीकी मदद मुहैया कराएगा।
फीफा और एएफसी के सहयोगपूर्ण रवैये से प्रोत्साहित होकर एआईएफएफ ने भी भारतीय फुटबॉल को पेशेवर रूप देने की मंशा से आई लीग की शुरुआत कर दी। आई लीग पहले होते आ रहे राष्ट्रीय फुटबॉल लीग का ही परिष्कृत और पेशेवर रूप है।
एआईएफएफ के अध्यक्ष प्रियरंजन दासमुंशी ने गत दिनों कहा कि वह आई लीग का इस्तेमाल प्रतिभावान राष्ट्रीय टीम के निर्माण के लिए करना चाहते हैं और इसी कारण क्लबों को आई-लीग तथा स्थानीय लीग के लिए अलग-अलग टीम बनाने को कहा गया है। उम्मीद है कि इससे क्लबों के बीच प्रतिस्पर्द्धा और बढ़ेगी।
घरेलू मोर्चे पर गोवा के फुटबॉल क्लबों ने बंगाल के वर्चस्व को जबर्दस्त चुनौती पेश की है। गोवा के डेम्पो स्पोर्ट्स क्लब ने जहाँ एनएफएल पर कब्जा किया, वहीं गोवा के ही एक अन्य क्लब चर्चिल ब्रदर्स ने डूरंड कप का खिताब अपने नाम कर लिया। हालाँकि ईस्ट बंगाल ने फेडरेशन कप जीतकर अपनी मौजूदगी का अहसास कराया, जबकि पंजाब 20 साल के लंबे इंतजार के बाद संतोष ट्रॉफी जीतने में सफल रहा।
भारत की अंडर-16 टीम ने भी अपने सीनियर खिलाड़ियों के प्रदर्शन से प्ररेणा लेते हुए अगले साल होने वाली एएफसी अंडर-16 चैंपियनशिप के लिए क्वालीफाई करके उल्लेखनीय कामयाबी हासिल की। भारत की अंडर-19 टीम ऐसा ही कारनामा दिखाने में नाकाम रही।
पूरे वर्ष का यह लेखा-जोखा देखने के बाद कहा जा सकता है कि भारतीय फुटबॉल ने नेहरू कप की ऐतिहासिक जीत के साथ नींद से जागकर महारथी बनने के अपने अभियान की तरफ धीमा ही सही लेकिन एक कदम जरूर बढ़ा दिया है।