हर साल के अंत में और नए साल की शुरुआत में हम सभी को बेहतर स्वास्थ्य और खुशहाल जीवन की शुभकामनाएं देते हैं, क्योंकि साल दर साल वक्त जरूर गुजरता जाता है, लेकिन बेहतर सेहत ही पूंजी के रूप में हमारे पास होता है। शरीर है तो सेहत है, और सेहत है तो उससे जुड़ी बीमारियां भी हैं, जिनमें यह 10 बीमारियां रहीं साल 2016 की प्रमुख बीमारियां...
1 जीका - साल 2016 की सबसे खतरनाक और कौतूहल भरी बीमारी का नाम है जीका वायरस, जिसने अपने भयावह असर से दुनिया भर कर को चौंका का रख दिया। जीका संक्रमण का केंद्र रहे ब्राजील से विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इसे लेकर आपात चेतावनी भी जारी की गई और और इसका असर लंबे समय तक रहने की संभावना चजाते हुए गर्भवती महिलाओं को इससे सबसे अधिक खतरा बताया। जीका वायरस की भयावहता को इसी से समझा जा सकता है, कि इसने गर्भ से अजन्मे शिशुओं को अपना शिकार बनाया।
गर्भावस्था में जीका वायरस का असर नवजात शिशुओं पर देखने को मिला, जिसमें नवजात का सिर असामान्य रूप से छोटा होता है जिसे माइक्रोस्फैली कहते हैं। यह लक्षण शिशु के मानसिक विकास के लिए तो खतरनाक है ही, शिशु को मौत के मुंह में ले जाने में भी इसका हाथ हो सकता है। सबसे बड़ी चिंताजनक बात यह रही, कि विशेषज्ञों एवं चिकित्सकों के पास इससे निपटने का कोई पुख्ता हल नहीं मिल सका। लेकिन बाद में एमबीबीएस की पढ़ाई के सिलेबस को अपडेट कर इसमें जीका और ईबोला को शामिल किए जाने पर जरूर चर्चा की गई।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के अनुसार जीका एक किस्म का वायरल इंफेक्शन है, जिससे बुखार, रैश, जोड़ों में दर्द, आंखों में लाली होना आम है। आंसुओं में भी इस वायरस की मौजूदगी की संभावना जताई गई। मच्छर की वजह से फैलने वाला यह वायरस अगर गर्भावस्था में यह हो जाए तो यह भ्रूण में ही माईक्रोस्फैली का कारण बन सकता है।
जीका का सबसे अधिक संक्रमण अफ्रीका, साउथ एशिया, पैसिफिक आयलैंड, सेंट्रल और साउध अमेरीका, मैक्सिको, कैरेबियन, प्योरिटो रीको और यूएस वर्जिन आयलैंड में पाया गया। भारत में इसका मामला सामने नहीं आया। 80 प्रतिशत तक लोगों में इसके नाम मात्र या बहुत मामूली लक्षण देखे गए जो मच्छर के काटने के 2 से 12 दिन के अंदर यह लक्षण नजर आने लगते हैं।
इलाज : 1 इसका कोई खास इलाज नहीं हैं लेकिन मरीज को पूरी तरह से आराम करने, अधिक मात्रा में पानी पीने और बुखार पर नियंत्रण करने के लिए डॉक्टर की सलाह से दवा लेने की सलाह दी जाती है। इस दौरान एस्प्रिन जैसी दवा का सेवन बेहद खतरनाक हो सकता है।
2 मच्छरों से बचाव बेहद जरूरी है, इसके लिए सुबह सूरज निकलने से पहले एवं सूरज डूबने के बाद मच्छरों से सतर्कता अति आवश्यक है। जीका वायरस एडिस मच्छर के जरिए फैलता है।
3 बाहर जाते वक्त जूते, पूरी बाजू के ढंके हुए कपड़े पहनें। डीट या पीकारिडिन वाले बग्ग सप्रे या क्रीम लगाएं। कपड़ों पर पर्मिथ्रीन वाले कीट रोधक का प्रयोग करें।
4 रूके हुए पानी से सतर्क रहें एवं घर में पानी का जमाव न होने दें। अगर आप को पहले से जीका है तो खुद को मच्छरों के काटने से बचाएं, ताकि यह और न फैल सके।
2 डेंगू - 2015 से सेहत के दायरे में हलचल मचाने वाली यह बीमारी, साल 2016 में भी पैर पसारे। डेंगू जिसे बैकबोन फीवर के नाम से भी जाना जाता है, मच्छर में पैदा होने वाला एक रोग है, जो डेंगू वायरस के कारण होता है। इसे फैलाने का कार्य ऐडीज मच्छर की विभिन्न प्रजातियों द्वारा किया जाता है।
इसके लक्षणों में बुखार, सिरदर्द, मांसपेशियों और जोड़ों में दर्द के अलावा त्वचा में लाल रंग के रेशेज निशान होना शामिल हैं। कुछ मामलों में यह घातक डेंगू रक्तस्रावी बुखार में तब्दील हो जाता है जिससे खून बहना, खून में ब्लड प्लेटलेट्स के स्तर में कमी आना, ब्लड प्लाज्मा में रिसाव और डेंगू शॉक सिंड्रोम जिसमें रक्तचाप बहुत कम हो जाने जैसे लक्षण सामने आते हैं।
इस बीमारी के लिए कोई टीका उपलब्ध नहीं है और मच्छर के काटने से बचना- इसके प्रकोप से बचने के उपायों में शामिल है। डेंगू के शुरुआती स्तर पर नमक, चीनी के घोल को पीना या अन्य किसी तरीके से शरीर में पहुंचाना एवं डेंगू के गंभीर मामलों में तरल पदार्थों और खून की बोतल चढ़ाना शामिल है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में हर साल डेंगू के 20,500 मामले सामने आते हैं, परंतु एक रिपोर्ट के अनुसार वास्तविक आंकड़े सरकारी आंकड़ों से 300 गुना अधिक हैं। इस रिपोर्ट के हिसाब से भारत में हर साल करीब 5.8 मिलियन लोग डेंगू की गिरफ्त में होते हैं। भारत में विश्व के अन्य किसी देश के मुकाबले डेंगू के सबसे ज्यादा मरीज होते हैं।
इलाज : डेंगू साल की गंभीर बीमारियों में से एक है लेकिन इसके लिए कोई प्रभावकारी दवा उपलब्ध नहीं हो पाई है। ऐलोपैथिक विकल्पों के साथ-साथ कुछ घरेलू दवाओं के जरिए भी डेंगू की रोकथाम में काफी मदद मिली। गिलोय, पपीते के पत्ते, एलोवेरा और अनार का जूस को डेंगू के उपचार के तौर पर अपनाया गया, जो काफी हद तक कारगर भी रहा।
3 चिकनगुनिया - साल 2016 में चिकनगुनिया का प्रकोप कुछ कम जरूर हुआ लेकिन इसकी उपस्थिति ने लोगों को परेशान भी कर रखा। प्रमुख रूप से रात के वक्त सक्रिय होने वाले एडिस मच्छर के काटने पर होने वाला यह बुखार सीधे नहीं फैलता, बल्कि मच्छरों द्वारा ही यह संक्रमण एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक फैलता है।
चिकनगुनिया बुखार जोड़ों ओर शरीर के अंगों में असहनीय दर्द पैदा सकता है और इसका प्रभावी असर महीने भर तक महसूस किया जा सकता है। चिकनगुनिया के प्रमुख लक्षणों में जोड़ों का दर्द, सूजन, सिर दर्द, आंखों में दर्द, अनिंद्रा, उल्टी होना, जी मिचलाना, भूख में कमी, त्वचा का खुश्क होना शामिल है। चिकनगुनिया के प्रति सतर्क और जागरूक रहना ही इससे बचाव का एक सबसे बेहतर तरीका है एवं इसके लक्षण नजर आने पर तुरंत डॉक्टर की सलाह आवश्यक है।
चिकनगुनिया में निर्धारित टेस्ट - चिकनगुनिया की जांच के लिए 4 तरह के टेस्ट निर्धारित हैं -
1. जीनोमिक टेस्ट पीसीआर विधि - चिकनगुनिया के लक्षण दिखने के एक सप्ताह के अंदर ही यह टेस्ट कराया जा सकता है लेकिन बुखार की शुरुआत के एक सप्ताह बाद यह टेस्ट नहीं कराया जा सकता क्योंकि इस स्थिति में वायरस के DNA को पकड़ना और पहचान पाना मुश्किल होता है। यह चिकनगुनिया होने या न होने की पुष्टि करता है।
2. एंटीबाडीज की जांच - चिकनगुनियाहोने पर शरीर में इस वायरस से लड़ने के लिए एंटीबाडीज बनना शुरू हो जाती है। जिनकी जांच कर चिकनगुनिया के लिए टेस्ट किये जाते हैं। यह जांच दो तरीकों से की जा सकती है, जिसमें इम्यूनोलॉजी और एलिसा विधि शामिल है।
3. वायरस को अलग करना - यह तरीका परिणाम की गुणवत्ता के हिसाब से सबसे बेहतर माना जाता है, जिसे बुखार होने के एक सप्ताह के भीतर ही किया जा सकता है। इस विधि में परिणाम कई बातों पर निर्भर होता है जैसे - सैंपल लेने का समय, सैंपल लाने की व्यवस्था, सैंपल लाते समय तापमान को बराबर सही रखना और सैंपल को सही ढंग से स्टोर करके सही विधि से टेस्ट करना आदि।
4. सीबीसी परीक्षण - यह टेस्ट खून में सफेद रक्त कणिकाओं और प्लेटलेट्स की कमी आने पर किया जाता है, जिससे चिकनगुनिया के होने की आशंका का पता लगाया जा सकता है। लेकिन यह सभी जांचें डॉक्टरी परामर्श द्वारा ही करवाई जानी चाहिए।
हालांकि चिकनगुनिया से बचने के लिए अभी तक कोई टीका यानि वैक्सीन नहीं बनाया जा सका है, लेकिन डॉक्टरी परामर्श के साथ-साथ कुछ घरेलू उपायों और सावधानियों को अपनाकर भी चिकनगुनिया से बचा जा सकता है। जैसे - प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने हेतु बेहतर खानपान, व्यायाम और फलों का सेवन। इसके अलावा चिकनगुनिया के मरीजों को नीम के पत्तों का रस पिलाना, करेला और पपीते का सेवन, साफ-सफाई का विशेष ध्यान, पानी के जमाव से परहेज, मच्छरों से बचाव, खुले में रखे पानी एवं खानपान से परहेज आदि उपायों के जरिए भी इस पर काफी हद तक नकेल कसी जा सकती है।
4 मानसिक रोग - आधुनिकता और लगातार बदलती व भगदौड़ भरी जीवनशैली का प्रभाव मानसिक सेहत पर भी देखा गया। 2016 में मानसिक रोग, देश की र्शीर्ष स्वास्थ्य समस्याओं की सूची में ऊपर रहा और मनोरोगियों की तादाद में तेजी से इजाफा हुआ। चिंताजनक बात यह है कि मनोरोगियों की तादाद अन्य रोगियों की अपेक्षा 50 फीसदी से भी अधिक पाई गई।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के हिसाब से सिर्फ 2012 में ही 1,35,445 लोगों ने देश में आत्महत्या की। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार भारत में हर व्यक्ति के जीवनकाल में अवसादग्रस्त होने की 9 प्रतिशत संभावना होती है। साल 2020 के आने तक होने वाली कुल मौतों के लिए जिम्मेदार कारणों में अवसाद दूसरा सबसे बड़ा कारण होगा। भारतीयों में अवसाद की गिरफ्त में आने वाले मरीज ज्यादातर 30 साल पार कर चुके होते हैं।
नेशनल कमीशन ऑन मैक्रोइकॉनामिक्स एंड हेल्थ 2015 की रिपोर्ट के अनुसार साल 2015 तक करीब 1-2 करोड़ भारतीय (कुल आबादी का एक से दो फीसदी) गंभीर मानसिक विकार के शिकार रहे, जिसमें सिजोफ्रेनिया और बाइपोलर डिसआर्डर प्रमुख है। करीब 5 से 6 करोड़ आबादी (कुल आबादी का पांच फीसदी) सामान्य मानसिक विकार जैसे अवसाद और चिंता से ग्रस्त है, जो चिंतनीय है।
मानसिक रोगों में हुए इस इजाफे को देखते हुए सरकार ने नेशनल इंस्टीट्यूट आफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज (एनआईएमएचएएनएस) बेंगलुरु के माध्यम से राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण कराया था, ताकि देश में मानसिक रोगियों की संख्या और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के उपयोग के पैर्टन का पता लगाया जा सके।
यह सर्वेक्षण 1 जून 2015 से 5 अप्रैल 2016 के बीच कराया गया था जिसमें कुल 27,000 प्रतिभागियों को शामिल किया गया था। सर्वेक्षण के अनुसार भारत में मानसिक समस्याओं का समाधान करने के लिए स्वास्थ्य पेशेवरों की कमी है, जो जागरूकता में कमी का भी एक प्रमुख कारण है।
भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार देश की कुल जनसंख्या के 6-7 फीसदी लोग मानसिक बीमारियों से ग्रस्त हैं और इनमें से एक फीसदी गंभीर मानसिक बीमारियों के शिकार हैं। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में साढ़े तीन लाख लोगों पर मात्र 3500 मनोचिकित्सक है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का मेंटल हेल्थ ऐटलस बताता है कि भारत में लोक स्वास्थ्य प्रणाली और मानसिक स्वास्थ्य पर सरकार स्वास्थ्य बजट का मात्र 0.06% खर्च करती है जबकि अन्य देशों में अमेरिका जीडीपी का 6.2%, इंग्लैंड 10.82%, बांग्लादेश 0.44% खर्च करता है। मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लापरवाह रवैया और जागरूकता का अभाव भारत में मनोरोग में होने वाले इजाफे का एक प्रमुख कारण है।
लक्षण व उपाय - अवसाद या मानसिक रोगों के अंतर्गत मानसिक स्थिति में बदलाव होता है जिससे व्यक्ति की कार्यक्षमता प्रभावित होती है। अवसाद के रोगी में चिंता, खालीपन, निराशा, मजबूरी, नाकाबिल होने का एहसास, खुद को दोषी समझना, चिड़चिड़ापन और अशांति जैसे लक्षण उभर आते हैं। रोगी को ऐसे कामों में भी अरुचि उत्पन्न हो जाती है, जो कभी उन्हें बहुत पसंद थे। भूख में कमी आना या जरूरत से ज्यादा खाना, ध्यान भटकना, चीजों को याद करने में परेशानी, आत्महत्या की कोशिश करना या करने की इच्छा होना, निर्णय लेने की क्षमता में कमी आ जाना, नींद न आना या बहुत ज्यादा सोना, उल्टी आना, पाचन संबंधी समस्या उत्पन्न होना और काम करने की इच्छा खत्म हो जाने जैसे लक्षण उभरते हैं।
इससे निपटने के लिए जागरूकता सबसे पहला कदम है। चिकित्सकीय इलाज के अलावा मेडिटेशन एवं योगा भी मानसिक रोगों का बेहतर इलाज है। तनाव, डिप्रेशन एवं मानसिक समस्याओं के निराकरण हेतु ध्यान और योग को भी लोगों ने अपनी जीवनशैली में शामिल किया और 2016 में ज्यादातर लोगों ने व्यस्ततम दिनचर्या के बीच ध्यान को दिनचर्या का अभिन्न अंग के तौर पर अपनाया।
5 यौन रोग - आधुनिक जीवनशैली और सोशल मीडिया के बढ़ते इस्तेमाल का प्रभाव सेहत पर भी बुरी तरह पड़ा है। इसी के साथ मानसिक रोग एवं यौन रोगों में तेजी से वृद्धि हुई और यौन रोग देश की शीर्ष बीमारियों में सबसे ऊपर रहा। न केवल पुरुषों में बल्कि महिलाओं में यौन रोगों का आंकड़ा सबसे अधिक रहा।
डब्लूएचओ के अनुसार अगर विश्व में 340 मिलियन आबादी यौन रोग का शिकार है तो भारत में 23 प्रतिशत महिला व 9 प्रतिशत पुरूष इस रोग से पीड़ित हैं। यूं तो 15 वर्ष से पहले और 45 वर्ष के बाद महिलाओं में इसके संक्रमण का खतरा अधिक होता है, लेकिन आधुनिक जीवनशैली, सोशल मीडिया का प्रभाव, यौन विसंगतियां, जागरूकता की कमी के चलते कई युवा यौन रोग की चपेट में आए हैं।
इसके पीछे प्रमुख कारण अज्ञानता और जागरुकता का अभाव है। सबसे अधिक अशिक्षित, मजदूर वर्ग के लोग ही यौन जनित रोग का शिकार हो रहे हैं। इसके प्रति जागरूकता की कमी के चलते इन्हें छुपाकर रखना और भी घातक साबित होता है।
चिकित्सकों के अनुसार इन रोगों के प्रति जागरूकता होने से सही समय पर इनका इलाज किया जा सकता है और पूरी तरह से ठीक किया जा सकता है, अन्यथा यौन जनित रोग बड़ी समस्या बन सकते हैं। पेशाब में जलन होना, यौन अंगों पर घाव, खुजली, पट्टे (इम्वाइनल विगो) में सूजन, दर्द, यौन अंगों से दुर्गंधयुक्त स्राव आदि इसके लक्षणों में शामिल है। जागरूकता और सावधानी ही यौन रोगों से बचने का एकमात्र तरीका है, जिसके प्रति सजग होने की आवश्यकता है।
6 हृदय रोग - हृदय, मानव शरीर का जितना महत्वपूर्ण हिस्सा है, उतना ही गंभीर है इसका रोगी होना। लेकिन तनावग्रस्त, अनियमित और भागदौड़ भरी दिनचर्या में इसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। पिछले कुछ सालों में हृदय रोगों के मामलों में भी इजाफा हुआ है और साल 2015 के बाद लगातार 2016 में भी हृदय रोग सेहत के लिए खतरा बना रहा।
हृदय रोग शरीर के एक अंग पर प्रभाव न डालते हुए एक पूरे सिस्टम जिसे कार्डियोवैस्कुलर सिस्टम कहा जाता है (हृदय, रक्त कोशिकाएं, धमनियों, कोशिकाओं और नसों) को अपनी चपेट में लेता है। इस सिस्टम में उपजी किसी भी तरह की समस्या शरीर में रक्त प्रवाह को बाधित कर देती है।
हृदय रोग के लिए कुछ खास कारण जैसे उम्र, लिंग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, तंबाकू, धूम्रपान, अत्यधिक मात्रा में शराब का सेवन, प्रोसेस्ड मीट, अत्यधिक शुगर का उपयोग, मोटापा, शारीरिक गतिविधियों में कमी, पारिवारिक पृष्ठभूमि और वायु प्रदूषण को जिम्मेदार माना जाता है। उम्र, लिंग या पारिवारिक पृष्ठभूमि कुछ ऐसे कारण हैं, जो प्राकृतिक हैं, परंतु बाकी सभी कारण जीवनशैली में बदलाव और सामाजिक बदलाव द्वारा जनित माने जाते हैं।
सीने में अजीब-सी बेचैनी, चिंता, खांसी या सांस लेने में आवाज आना, हल्के सिरदर्द या बेहोशी, कमजोरी महसूस होना खासकर महिलाओं में, भूख न लगना और उल्टी जैसा लगना, शरीर के दूसरे अंगों में दर्द होना, नाड़ी की गति बढ़ना या अनियमित हो जाना, अत्यधिक कम शारीरिक श्रम करने पर सांस भर जाना, ठंडा पसीना आना, पैरों या टांगों या पेट में सूजन आना और बहुत ज्यादा कमजोरी महसूस होना हृदय रोग के लक्षण हैं।
भारत की कुल 1.27 मिलियन जनसंख्या में से 45 मिलियन लोग हृदय रोगों से ग्रसित हैं। हृदय रोगों में कॉरोनरी हार्ट डिसीज (CHD) सबसे अधिक व्यक्तियों को अपना शिकार बनाती है। साल 2020 के आने तक भारत में होने वाली कुल मौतों की एक-तिहाई CHD की वजह से होंगी। साल 2030 तक भारत में 35.9 प्रतिशत लोगों की मौत की वजह हृदय रोग ही होंगे।
7 कैंसर : साल 2016 में कैंसर के मामलों में भी वृद्धि दर्ज की गई। कैंसर को मैलिग्नैंट ट्यूमर या मैलिग्नैंट नियोप्लाज्म के नामों से भी जाना जाता है। कैंसर कई बीमारियों का एक समूह होता है जिसमें शरीर में मौजूद सेल्स में असामान्य वृद्धि होने लगती है, जो शरीर के अन्य अंगों में फैल जाती है। सभी ट्यूमर कैंसर ट्यूमर नहीं होते हैं। कैंसर 100 से ज्यादा प्रकार का होता है। भारत में पुरुषों में ज्यादातर मामले मुख और फेफड़ों के होते हैं, वहीं दूसरीं ओर ज्यादातर कैंसर रोगी महिलाएं स्तन कैंसर और गर्भाशय कैंसर से ग्रसित होती हैं।
शरीर के किसी हिस्से में उभार, असामान्य रक्त बहना, लंबे समय तक चलने वाली खांसी, अचानक वजन कम हो जाना और मल निकासी में बदलाव आना कैंसर के लक्षणों में शामिल हैं। कैंसर का सामान्य तौर पर अंदाजा कुछ लक्षणों से लगाया जा सकता है। इसके पता लगाने की प्रक्रिया में स्क्रीनिंग टेस्ट, मेडिकल इमेजिंग और बॉयोप्सी शामिल हैं।
तंबाकू सेवन को कैंसर से होने वाली करीब 22 प्रतिशत मौतों के लिए जिम्मेदार समझा जाता है। अगली 10 प्रतिशत मौतों के लिए मोटापा कारण माना जाता है। इंफेक्शन, आयोनाइजिंग रेडिएशन और पर्यावरण प्रदूषण से भी कैंसर होने का खतरा होता है। भारत जैसे विकासशील देश में करीब 20 प्रतिशत कैंसर के मामले इंफेक्शंस जैसे हेपेटाइटिस B, हेपेटाइटिस C और इम्यून पैपिलोमा वायरस की वजह से होते हैं। फैमेली हिस्ट्री को करीब 5 से 10 प्रतिशत मामलों के लिए जिम्मेदार माना जाता है।
एक सही जीवनशैली जिसमें नशा न करना, वजन पर नियंत्रण, शराब पर नियंत्रण, सब्जियों, फलों और साबुत अनाज का भरपूर उपयोग, कुछ प्रकार के इंफेक्शंस के टीके लगवाकर और सूर्य की हानिकारक किरणों से अपना बचाव करके कैंसर के खतरों से बचा जा सकता है।
कैंसर के इलाज में रेडिएशन थैरेपी, सर्जरी, कीमोथैरेपी और टारगेटेड थैरेपी शामिल हैं। पैलियेटिव (palliative) केअर एडंवास स्टेज में पहुंच चुके मरीजों के लिए महत्वपूर्ण होती है। कैंसर के मरीज के बचने की संभावना कैंसर के प्रकार पर निर्भर करती है।
भारत में हर वर्ष कैंसर के लाखों नए मामले सामने आ जाते हैं। यह बीमारी भारत को अपनी गिरफ्त में लेती हुई प्रतीत होती है। विशेषज्ञों के अनुसार साल 2025 तक कैंसर के मामलों में 5 गुना तक वृद्धि दर्ज होने की संभावना है। भारत में हर साल करीब 5 लाख लोग कैंसर से मर जाते हैं।
8 मोटापा : पिछले कुछ सालों में मोटापा एक बड़ी समस्या बनकर उभरा है। सेहत के लिहाज से हो या फिर लुक्स के लिए, वजन कम करने के लिए इच्छुक लोगों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है और डॉक्टर्स, वेट लॉस थैरेपी, जिम और वजन कम करने के अन्य साधनों तक लोगों की पहुंच बढ़ी है। सोशल मीडिया पर भी लोगा वजन कम करने के तरीकों की ओर सबसे ज्यादा आकर्षित होते हैं।
मोटापा या ऑबेसिटी एक मेडिकल स्तर होता है जिसमें वजन इस हद तक बढ़ जाता है कि शरीर में विभिन्न रोगों का जन्म होने लगता है। व्यक्ति के जीवनकाल में कमी आ जाती है। मोटापे की वजह से कई तरह की बीमारियां जैसे हार्टअटैक, टाइप-2 डायबिटीज, ऑब्स्ट्रेक्टिव स्लीप, कुछ प्रकार के कैंसर और ऑस्टियो ऑर्थराइटिस होने की आशंका बहुत बढ़ जाती है।
पिछले कुछ सालों में फास्ट फूड का सेवन, अत्यधिक शर्करा लेना, जरूरत से ज्यादा खाने, व्यायाम की कमी, दवाइयों के साइड इफेक्ट, हार्मोंस में बदलाव, मानसिक रोग या फैमिली हिस्ट्री की वजह से होता है। डाइटिंग और व्यायाम इसके खास उपाय हैं। खान-पान में बदलाव करके जैसे मोटापा बढ़ाने वाले भोजन के बजाए स्वास्थ्यवर्धक पदार्थों को भोजन में शामिल करके इससे मुक्ति पाई जा सकती है। मोटापा कम करने के लिए भूख कम करने वाली दवाइयों का भी सेवन किया जाता है।
भारत में मोटापा महामारी के स्तर तक पहुंच चुका है और करीब 13 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या इससे ग्रसित है। भारत विश्व में मोटापे की समस्या वाले देशों में तीसरे नंबर पर आता है। भारत में करीब 30 मिलियन से ज्यादा लोग इस समस्या से ग्रसित हैं।
9 डायबिटीज : सन् 2014 की तरह ही 2015 में तो डायबिटीज या मधुमेह भी एक बड़ा रोग बनकर उभरा और 2016 में भी इसमें वृद्धि दर्ज की गई। मधुमेह मेटाबॉलिक बीमारियों का एक समूह होता है जिसमें रक्त में शर्करा की मात्रा ज्यादा हो जाती है। डायबिटीज एक मेटाबॉलिक बीमारी है। डायबिटीज होने के 2 कारणों में पेनक्रियाज द्वारा जरूरी मात्रा में इंसुलिन न बना पाना या शरीर में मौजूद सेल्स बनने वाले इंसुलिन का उपयोग करने में असमर्थ हो जाते हैं। डायबिटीज 3 प्रकार की होती हैं -
1. टाइप 1 : इसमें शरीर में जरूरी मात्रा में इंसुलिन बनना बंद हो जाता है। इसका कारण अज्ञात है।
2. टाइप 2 : इसमें पेनक्रियाज द्वारा इंसुलिन का उत्पादन सही मात्रा में किया जाता है लेकिन शरीर में मौजूद सेल्स इस इंसुलिन का उपयोग नहीं कर पाते। टाइप-2 डायबिटीज के लिए ज्यादा वजन और व्यायाम की कमी को प्रमुख कारण समझा जाता है।
3. गेस्टेशनल : यह केवल गर्भवती महिलाओं में ही पाया जाता है जिसमें मधुमेह से संबंधित किसी भी प्रकार की समस्या या पारिवारिक पृष्ठभूमि के न होने पर भी रक्त में ग्लूकोज का स्तर बढ़ जाता है।
इसका सही उपचार न किए जाने पर मरीज कोमा में भी जा सकता है साथ ही साथ हृदय रोग, हार्ट अटैक, पैर में अल्सर और आंखों की रोशनी प्रभावित होना आदि लक्षण सामने आते हैं। टाइप-1 के मरीजों में बीमारी के लक्षण जैसे वजन कम हो जाना, ज्यादा बार पेशाब आना, प्यास ज्यादा लगना और भूख बढ़ जाना आदि कुछ हफ्तों या महीनों में सामने आ जाते हैं वहीं दूसरी ओर टाइप-2 के लक्षण (आंखों में धुंधलापन, सिरदर्द, बेहोशी, चोट लगने पर ठीक होने में ज्यादा समय लगना और त्वचा में खिंचाव महसूस होना) काफी समय बीत जाने पर सामने आते हैं। इस बीमारी की रोकथाम और इलाज में पौष्टिक खानपान, व्यायाम, तंबाकू का सेवन न करना, रक्तचाप पर नियंत्रण शामिल हैं, परंतु इसके सही इलाज इसके टाइप जानने के बाद ही संभव है।
टाइप-1 डायबिटीज के लिए इंसुलिन के इंजेक्शन दिए जाते हैं। टाइप-2 डायबिटीज का इलाज दवाइयों के उपयोग से संभव है और कभी-कभी इंसुलिन के इंजेक्शन की आवश्यकता भी पड़ सकती है। टाइप-2 के मरीजों में अधिक वजन काफी खतरनाक है और इनके इलाज में सर्जरी द्वारा वजन कम करना भी शामिल है। गेस्टेशनल डायबिटीज में समस्या बच्चे के जन्म के बाद सामान्य तौर पर स्वतः ही खत्म हो जाती है।
डायबिटीज भारत में महामारी का रूप ले रही है। यह बीमारी 62 मिलियन से ज्यादा लोगों में फैल चुकी है। साल 2030 तक भारत में 79.4 मिलियन लोग इस बीमारी का शिकार होंगे। भारत में ग्रामीण जनसंख्या में पाए जाने वाले मरीजों की संख्या में शहरी क्षेत्रों में होने वाले मरीजों की एक तिहाई है। बीते वर्ष डायबिटीज ने अपने बढ़ने के स्पष्ट और खतरनाक संकेत दिए हैं।
10 रक्तचाप : पिछले कुछ सालों में उच्च एवं निम्न रक्तचाप के मरीजों की संख्या में काफी इजाफा हुआ है। यही कारण है कि साल 2015 में भी रक्तचाप की समस्या से कई लोग प्रभावित हुए। रक्तचाप या ब्लड प्रेशर रक्त वाहिनियों में बहते रक्त द्वारा वाहिनियों की दीवारों पर डाले गए दबाव को कहते हैं। धमनी वह नलिका होती है, जो रक्त को हृदय से शरीर के विभिन्न हिस्सों तक ले जाती हैं।
दो प्रकार की रक्तचाप संबंधी समस्याएं देखने में आती हैं- एक निम्न रक्तचाप और दूसरा उच्च रक्तचाप।
निम्न रक्तचाप - निम्न रक्तचाप वह दाब है जिससे धमनियों और नसों में रक्त का प्रवाह कम होने के लक्षण या संकेत दिखाई देते हैं। जब रक्त का प्रवाह काफी कम होता है तो मस्तिष्क, हृदय तथा गुर्दे जैसी महत्वपूर्ण इंद्रियों में ऑक्सीजन और पौष्टिक पदार्थ नहीं पहुंच पाते। इससे ये अंग सामान्य कामकाज नहीं कर पाते और स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त होने की आशंका बढ़ जाती है।
उच्च रक्तचाप के विपरीत निम्न रक्तचाप की पहचान लक्षण और संकेतों से होती है, न कि विशिष्ट दाब के आधार पर। किसी मरीज का रक्तचाप 90/50 होता है लेकिन उसमें निम्न रक्तचाप के कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ते हैं। यदि किसी को निम्न रक्तचाप के कारण चक्कर आता हो या मितली आती हो या खड़े होने पर बेहोश होकर गिर पड़ता हो तो उसे आर्थोस्टेटिक उच्च रक्तचाप कहते हैं।
खड़े होने पर निम्न रक्तचाप के कारण होने वाले प्रभाव को सामान्य व्यक्ति जल्द ही काबू कर लेता है, लेकिन जब पर्याप्त रक्तचाप के कारण चक्रीय धमनी में रक्त की आपूर्ति नहीं होती है तो व्यक्ति को सीने में दर्द हो सकता है या दिल का दौरा पड़ सकता है। जब गुर्दों में अपर्याप्त मात्रा में खून की आपूर्ति होती है तो गुर्दे शरीर से यूरिया और क्रिएटिनिन जैसे अपशिष्टों को निकाल नहीं पाते जिससे रक्त में इनकी मात्रा अधिक हो जाती है।
उच्च रक्तचाप - जब मरीज का रक्तचाप 130/80 से ऊपर हो तो उसे उच्च रक्तचाप या हाइपरटेंशन कहते हैं। इसका अर्थ है कि धमनियों में उच्च तनाव है। उच्च रक्तचाप का अर्थ यह नहीं है कि अत्यधिक भावनात्मक तनाव हो। भावनात्मक तनाव व दबाव अस्थायी तौर पर रक्त के दाब को बढ़ा देते हैं।
सामान्यतः रक्तचाप 120/80 से कम होना चाहिए। इसके बाद 139/89 के बीच का रक्त का दबाव प्री-हाइपरटेंशन कहलाता है और 140/90 या उससे अधिक का रक्तचाप उच्च समझा जाता है। उच्च रक्तचाप से हृदय रोग, गुर्दे की बीमारी, धमनियों का सख्त होना, आंखें खराब होने और मस्तिष्क खराब होने का जोखिम बढ़ जाता है।
चक्कर आना, लगातार सिरदर्द होना, सांस लेने में तकलीफ, नींद न आना, कम मेहनत करने पर सांस फूलना, नाक से खून आना आदि समस्याएं रक्तचाप के महत्वपूर्ण लक्षणों में शामिल हैं।