जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ का जन्म चैत्र कृष्ण नौवीं के दिन सूर्योदय के समय हुआ। उन्हें आदिनाथ भी कहा जाता है। जैन धर्म के मतानुसार भगवान ऋषभदेव ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु (शोरडी-गन्ने) रस से पारायण किया था। जब यह घटना घटी थी तब अक्षय तृतीया थी इसलिए यह महत्वपूर्ण दिन माना जाता है। अक्षय तृतीया वैशाख शुक्ल तृतीया को कहा जाता हैं।
कहते हैं कि ऋषभनाथ ने वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य किया फिर राज्य को अपने पुत्रों में विभाजित करके दिगम्बर तपस्वी बन गए। उनके साथ सैकड़ों लोगों ने भी उनका अनुसरण किया। जैन मान्यता है कि पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व तक तीर्थंकर मौन रहते हैं। अत: आदिनाथ को एक वर्ष तक भूखे रहना पड़ा। इसके बाद वे अपने पौत्र श्रेयांश के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे। श्रेयांस ने उन्हें गन्ने का रस भेंट किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। वह दिन आज भी 'अक्षय तृतीया' के नाम से प्रसिद्ध है।
हस्तिनापुर में आज भी जैन धर्मावलंबी इस दिन गन्ने का रस पीकर अपना उपवास तोड़ते हैं। हस्तिनापुर में मेले का आयोजन किया जाता है, मान्यतानुसार जहां हजारों तीर्थंकर अपना उपवास तोड़ने आते हैं। इस उत्सव को "पारण" के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार, एक हजार वर्ष तक कठोर तप करके ऋषभनाथ को कैवल्य ज्ञान (भूत, भविष्य और वर्तमान का संपूर्ण ज्ञान) प्राप्त हुआ। वे जिनेन्द्र बन गए।
अक्षय तृतीया के दिन ही ऋषभदेव ने आहार चर्या की स्थापना की थी। आहार चर्या के दिन जैन भिक्षुओं के लिए भोजन तैयार किया जाता है, और उन्हें खिलाया जाता है। पूरे साल में कई बार उपवास करना इसे वर्षी तप कहते हैं। जैन समुदाय के लोग इस उपवास का समापन अक्षय तृतीया के दिन गन्ने का रास पी कर करते हैं।