मणि कौल का अद्भुत सिनेमा

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कुछ साल पहले अमोल पालेकर के निर्देशन में शाहरुख खान, रानी मुखर्जी और जूही चावला की एक फिल्म (पहेली) आई थी, जिसमें व्यापार-करोबार करने के लिए शहर जाने वाले एक नवविवाहित व्यापारी (शाहरुख खान) की रूपवती पत्नी (रानी मुखर्जी) पर एक बावड़ी में रहने वाला भूत मुग्ध हो जाता है और व्यापारी की अनुपस्थिति में व्यापारी का रूप धरकर उससे प्रेम करता है।

वह भूत दांपत्य जीवन निभाता है और व्यापारी के पिता को रोजाना सोने की एक मोहर देता है। यह फिल्म राजस्थान के प्रसिद्ध कथाकार विजयदान देथा की एक कहानी पर बनाई गई थी और लोकप्रिय हुई थी।

इसी कहानी पर प्रसिद्ध फिल्मकार मणि कौल ने भी "दुविधा" नाम से दशकों पहले एक फिल्म बनाई थी, जो नहीं चली। मगर भारत में गंभीर सिनेमा के प्रेमियों और अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में इस फिल्म को काफी सराहा गया।

मणि कौल की लगभग सभी फिल्मों के साथ आमतौर पर ऐसा ही हुआ है, चाहे वह "उसकी रोटी" हो , "आषाढ़ का एक दिन" हो, "सतह से उठता आदमी" हो, "इडियट" हो या "नौकर की कमीज" हो। यह बात सिर्फ उन पर ही लागू नहीं होती। सत्यजीत राय, ऋ त्विक घटक और "मृणाल सेन" जैसे महान भारतीय फिल्मकारों पर भी लागू होती है जिनको अंतरराष्ट्रीय ख्याति तो खूब मिली, मगर गुरुदत्त या राजकपूर की फिल्मों की तरह वे भारत में ज्यादा चल नहीं पाईं।

फिल्मों में राजकपूर की नायिका नरगिस ने कभी सत्यजीत राय पर आरोप लगाया था कि वे भारत की गरीबी को फिल्माकर विदेशों में बेचते हैं। वस्तुतः सत्यजीत राय का सिनेमा प्रचलित अर्थों में मनोरंजन नहीं करता बल्कि आपको एक अपूर्व अनुभव का एहसास कराता है, जो वर्षों तक आपका पीछा करता रहता है।

वैसे इस तरह की तुलना उचित नहीं होगी, मगर जैसे भारतीय शास्त्रीय संगीत आपको आत्मिक अनुभवों के नए इलाकों में ले जाता है, वही काम राय, घटक या सेन का सिनेमा करता है। मणि कौल, कुमार शाहनी और श्याम बेनेगल का सिनेमा इसी दुर्लभ प्रजाति का सिनेमा है। हालाँकि बेनेगल की बाद की फिल्मों में एक तरह का विचलन स्पष्ट दिखाई देता है।

मणि कौल पुणे के फिल्म संस्थान में ऋत्विक घटक के छात्र थे। उन्होंने पहले अभिनय और फिर निर्देशन का कोर्स किया और निर्देशन को ही अपना रचनात्मक जुनून बनाया। मुंबइया फिल्मों से जुड़े लोग प्रायः उनके काम को उसी तरह कभी सराह नहीं पाए, जैसे नरगिस जैसी यशस्वी नायिका ने सत्यजीत राय के काम को नहीं सराहा।

ऋत्विक घटक के साथ-साथ रूसी फिल्मकार तारकोव्स्की की फिल्मों से भी मणि कौल प्रभावित रहे। उन्होंने सिनेमा का नया व्याकरण गढ़ा, जबकि उनके यहाँ तकनीक और नैरेटिव (आख्यान) का इस्तेमाल भी नए तरीके से होता है। उनके सिनेमा में डॉक्यूमेंटरी (वृत्तचित्र) और फीचर फिल्म के बीच की रेखा धुँधली हो जाती है, मगर यह उनकी फिल्म की ताकत है, कमजोरी नहीं।

जिस तरह अच्छा साहित्य आपको नए यथार्थबोध और सौंदर्यबोध से संपन्न करता है, उसी तरह मणि कौल का सिनेमा भी यही काम करता है, मगर इसका मतलब यह नहीं कि उनकी फिल्में साहित्य के उस बोध को रूपांतरित भर करती हैं। सिनेमा का अपना स्वायत्त संसार है, इसलिए यहाँ आकर साहित्य का यथार्थबोध और सौंदर्यबोध एक बिलकुल नई दीप्ति से जगमगा उठता है। यह दीप्ति ही आभासी संसार का अतिक्रमण करती है। लेकिन मणि कौल कला-फिल्मों के फिल्मकार ही नहीं हैं, उनका सिनेमा भारतीय सिनेमा की नई धारा का सिनेमा है, जिसे समांतर सिनेमा या न्यू वेव सिनेमा के रूप में भी जाना जाता है।

मणि कौल उत्कृष्ट साहित्य को अपनी फिल्मों के लिए चुनते हैं, चाहे वह "नौकर की कमीज" (विनोद कुमार शुक्ल), "सतह से उठता आदमी" (मुक्तिबोध), "आषाढ़ का एक दिन" (मोहन राकेश) हो या फिर "इडियट" (फ्योदोर दोस्तोव्स्की)। यहाँ आकर साहित्य के परिचित पात्र नया रूप, नया अर्थ और नई दीप्ति पाते हैं, मगर उसी सीमा तक जिसमें मणि कौल का सौंदर्य बोध कायम रहे।

मणि कौल संगीत प्रेमी भी थे। धु्रपद पर उन्होंने एक वृत्तचित्र भी बनाया था। उनकी फिल्म "सिद्धेश्वरी" को नेशनल अवॉर्ड मिला। "उसकी रोटी" एकदम नई तरह की फिल्म थी, जिसके जरिए उन्होंने पहली बार फिल्म के प्रचलित फॉर्म या रूप को तोड़ा था। इस फिल्म को फिल्मफेयर क्रिटिक अवॉर्ड मिला था।

जल्दी ही दुनिया में उन्होंने बड़े फिल्मकारों के रूप में अपनी छवि बना ली। संसार के सभी श्रेष्ठ फिल्मकारों की फिल्में वे देखते थे और उन पर घंटों बात कर सकते थे। उन्होंने बर्कले विश्वविद्यालय में सिनेमा के छात्रों को बाकायदा पढ़ाया भी था।

कई साल तक वे नीदरलैंड्स में भी रहे, जहाँ उन्होंने कुछ फिल्में और वृत्तचित्र भी बनाए। उनके निधन से सचमुच एक बड़ा फिल्मकार हमारे बीच से चला गया है। मगर भारतीय फिल्म विधा के विकास में उनका बिलकुल अलग तरह का योगदान है जिसे गंभीर सिनेमा के प्रेमी हमेशा याद रखेंगे।

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