देव डी : देवदास का आधुनिक संस्करण

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निर्माता : रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक : अनुराग कश्यप
संगीत : अमित त्रिवेदी
कलाकार : अभय देओल, कल्कि कोएच्लिन, माही गिल, परख मदान
* केवल वयस्कों के लिए

पुरानी कहानी या फिल्मों को अपने अंदाज में पेश करने का इन दिनों चलन है। ‘टशन’, ‘रामगोपाल वर्मा की आग’, ‘चाँदनी चौक टू चाइना’ के बाद अब ‘देव डी’। ‘शोले’ को रामू ने अपने हिसाब से प्रस्तुत किया था तो शरतचन्द्र के उपन्यास ‘देवदास’ को अनुराग कश्यप ने अपने नजरिए से पेश किया है। समय और चरित्रों की सोच में उन्होंने बदलाव कर दिए हैं।

‘देवदास’ ‘देव डी’ हो गया है। आज की पीढ़ी सेक्स के बारे में खुलकर बातें करती है। देव डी लंदन से पारो को फोन कर उसका नग्न फोटो भेजने को कहता है और पारो उसकी यह इच्छा पूरी करती है। एक तरफ जहाँ देव को इतना आधुनिक दिखाया गया है वहीं दूसरी ओर जब वह गाँव वालों से पारो के बारे में गलत बातें सुनता है तो उसके खयाल दकियानूसी हो जाते हैं। वर्तमान पीढ़ी आधुनिक और पुरानी विचारधारा के बीच फँसी हुई है, इसका चित्रण उन्होंने देव के जरिये किया है।

देव जब अपने घर लौटता है तो पारो उससे सेक्स करने के लिए घर से गद्दा लेकर खेत में जाती है। भारतीय सिनेमा में स्त्री सेक्स की पहले करे, ऐसे दृश्य बहुत कम स्क्रीन पर दिखाए गए हैं और इस मायने में अनुराग कश्यप की यह फिल्म कई परंपराओं को तोड़ती हुई नजर आती है।

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लेनी का किरदार चंद्रमुखी से प्रेरित है। सत्रह वर्ष की लेनी उम्र के उस दौर में है जब शा‍रीरिक बदलाव उसे लड़कों की ओर आकर्षित करते हैं और वह एक एमएसएस स्कैण्डल में फँस जाती है। जब घर वालों का साथ नहीं मिलता तो उसे चुन्नी पनाह देता है। वह उसे पढ़ाता-लिखाता है और चंदा का नाम देता है। चंदा अपने आपको वेश्या नहीं बल्कि कमर्शियल सेक्स वर्कर मानती है।

देव और पारो की प्रेम कहानी में ईगो आड़े आ जाता है और पारो कहीं और शादी कर लेती है। पारो को भुलाने के लिए वह दिन-रात शराब के नशे में धुत रहता है और बर्बादी की राह पर चलता है।

शरतचन्द्र के उपन्यास पर बनी पिछली सारी फिल्मों के निर्देशकों की कोशिश रही कि वे उपन्यास को जस का तस प्रस्तुत कर सकें, लेकिन अनुराग ने चरित्र और उनकी भावनाओं को बदल दिया है। उन्हें आम इनसानों जैसा बना दिया। अनुराग ने कुछ अच्छे दृश्य रचे हैं, लेकिन पूरी फिल्म का ग्राफ ऊपर-नीचे होता रहता है। पारो और देव की जब तक प्रेम कहानी चलती है, फिल्म से उम्मीदें बँधती हैं, लेकिन वो पूरी नहीं हो पाती। खासकर चंदा और देव वाले दृश्यों में बहुत ज्यादा दोहराव है।

अभय देओल का अभिनय बेहतरीन है। वे पूरी‍ फिल्म में शराब और सिगरेट पीते हैं, लेकिन दर्शक दुर्गंध महसूस करता है। पारो के रूप में माही गिल सब पर भारी पड़ी हैं। बोल्ड किरदार को उन्होंने पूरे आत्मविश्वास से निभाया है। कल्कि कोएच्लिन फिल्म की कमजोर कड़ी साबित हुई है।

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एक दर्जन से भी ज्यादा गानों के जरिये कहानी को आगे बढ़ाया गया है और संगीतकार अमित त्रिवेदी ने उम्दा काम किया है। ‘इमोशनल अत्याचार’, ‘साली खुशी’ और ‘नयन तरसे’ जैसे कई गीत अच्छे लगते हैं। पंजाब के भीतरी इलाके और दिल्ली का पहाड़गंज फिल्म में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।

कुल मिलाकर ‘देव डी’ के प्रस्तुतिकरण में नयापन है, लेकिन बोझिल क्षण भी हैं। फिल्म का मिजाज बोल्ड रखा गया है, इसलिए परंपरागत सिनेमा को पसंद करने वाले दर्शकों को यह फिल्म शायद ही पसंद आएजो कुछ हटकर देखना चाहते हैं उन्हें फिल्म पसंद आ सकती है।