सचिन की सफलता का सफर

-पुष्पा भारती ( प्रख्‍यात साहित्यकार स्व. डॉ. धर्मवीर भारती की पत्नी)
दिसंबर 1989 का महीना था। दिन जल्दी मुँदने लगे थे और हल्की ठंडक की गिरफ्त में मुंबई आने लगी थी। ठेठ मुंबईया लोगों के लिए तो उस वक्त मफलर लपेटने, स्वेटर पहनने और अलाव तापने का मौसम आ गया था।

इसी मौसम में बांद्रा ईस्ट की 'साहित्य सहवास' नामक इस कॉलोनी में कुछ ही दिनों पहले तक तो यह आलम था कि घरों की बालकनी से माताएँ अपने बच्चों को घर लौटने की गुहार लगातीं और बच्चे भी बड़े बेमन से अपने खेल का साजो-सामान बटोरते हुए, कल फिर मिलने का वादा करके घर लौट आया करते। कॉलोनी का छोटा सा प्ले ग्राउंड सूना-पसरा पड़ा रह जाता।

जादू की छड़ी घूमी : लेकिन उन्हीं दिनों सचिन तेंडुलकर नाम की 'जादू की छड़ी' क्या घूमी कि सारा आलम ही बदल गया था। इस मैदान पर गहरी काली शाम घिर आने तक बच्चों की गहमा-गहमी रहने लगी। कॉलोनी के ये नन्हे-मुन्ने छक्कों-चौकों और गुगली की परिभाषा भलीभाँति समझ चुके थे।

उस दौरान माताएँ भूल जाती थीं कि बच्चे का होमवर्क बाकी है या उसे सर्दी तो नहीं लग रही है। उन्हें तो अपने नौनिहालों को क्रिकेट के साजो-सामान से लैस होता देखना ही भाता था। हो सकता था कि उनका यह दुलारा उस छोकरे सचिन तेंडुलकर की भाँति सारी दुनिया में अपना नाम रोशन करे, आखिर वह भी तो इसी ग्राउंड पर, इन्हीं बच्चों के साथ खेला करता था।

सचिन की शैतानियाँ : इसी मिट्टी पर तो सचिन लोट-पोट होकर बड़ा हुआ और इन्हीं पेड़ों की छाँह में वह अपना पसीना सुखाया करता था। सचमुच १९८९ में समूची दुनिया का ध्यान सचिन ने अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। हैरत से भरे उसके चर्चे लोग करते रहते थे। चूँकि मेरा निवास 'साहित्य सहवास' कॉलोनी में था, लिहाजा सचिन को याद करने के लिए मुझे कभी भी अपनी स्मृति पर जोर नहीं देना पड़ता था।

इतने सालों बाद भी मुझे वह दृश्य अच्छी तरह से याद है कि मैदान में नन्हे-मुन्नों के बीच एक छोटा सा बच्चा अलग ही दिखता था, क्योंकि उसके सुनहरे, भूरे घुँघराले बाल बहुत बड़े-बड़े थे। कंधों तक बिखरे उन बालों को वह रह-रहकर मुँह पर से पीछे हटाता-फेंकता हुआ भागा-भागा आता और किसी बच्चे को टंगड़ी मारकर गिरा देता। अगले ही पल सर्र से दूर भाग जाता। कभी किसी को घूँसा मार देता तो किसी को पीछे से आकर गिरा देता। साथियों को नोचता-कचोटता तो अकसर रहता था।

आँखें उसकी मिचमिची, लेकिन बेहद रोशन होती थीं। शैतानी तो उसकी आँखों में बिजली की तरह कौंधती रहती थी और गाल उसके उभरे हुए थे जो बहुत गुलाबी थे। यह बेसाख्ता बच्चा इधर-उधर फुदकता, भागता हुआ बड़ा प्यारा लगता था।

यह मैं आपको तब की बातें बता रही हूँ, जब आज का आपका यह चहेता कप्तान सचिन तेंडुलकर दो-ढाई बरस का हुआ करता था। फिर चार-पाँच बरस का होते-होते वह सारा दिन घर के नीचे ही नजर आता, यानी कि स्कूल का समय छोड़कर बाकी सारा समय उसका इसी ग्राउंड की धूल-मिट्टी में फुदकते-खेलते हुए बीतता।

जब टेनिस का शौक लगा : सात-आठ बरस का हुआ तो उसे टेनिस की धुन सवार हुई। अपने घने घुँघराले बालों को कसने के लिए वह बड़े शौक से 'हेडबैंड' खरीदकर लाया, रिस्टबैंड भी उसने लिए थे। उन्हें लगाकर जब वह टेनिस खेलता तो एकदम जॉन मेकेनरो नजर आता। कई लोग उसे सांईबाबा कहकर पुकारते। नौ-दस बरस का होते-होते वह टेनिस छोड़कर सिर्फ क्रिकेट ही खेलने लगा था।

स्कूल की छुट्टीवाले दिन वह सुबह घर से नीचे एक बार जो उतरता तो सीधा रात को ही घर में पैर रखता था। कई बार मैं अकसर देखती, उसकी नौकरानी उससे मिन्नतें करती 'सची घरी चला', 'सच्चू, अता वेळ झाली, घरी चल न! पर सचिन उसकी एक न सुनता और दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलता रहता।

नौकरानी लक्ष्मी ने सचिन को गोद में खिलाया था और वह उसे बहुत प्यार करती थी। यहाँ तक कि उसके खाने-पीने का जिम्मा भी लक्ष्मी का ही होता था। सचिन जब किसी की नहीं सुनता, तो बेचारी चार मंजिल चढ़कर ऊपर जाती और घर से दूध का गिलास भरकर नीचे ले आती और बिल्डिंग के पीछे ले जाकर उसे पिला देती। कहती-'अच्छा ठीक है थोड़ी देर और खेल ले'।

दूध पीते बच्चे का कमाल : दूध के गिलास की बात पर याद आई एक और बात। कराची में सचिन ने अपने जीवन का पहला टेस्ट मैच खेला था और पाकिस्तानी दर्शक एक बैनर दिखा रहे थे जिस पर लिखा था, 'सचिन, गो बैक एंड ड्रिंक मिल्क'- यानी सचिन वापस जाओ और दूध पियो। सच बात थी, सचिन तेंडुलकर चेहरे से इतना भोला-भाला और मासूम लगता था कि मानो अभी उसके दूध के दाँत ही नहीं टूटे होंगे।

बैनर बनाने वाले उन दर्शकों को क्या मालूम था कि पेशावर के वन-डे मैच में वह उनके मशहूर और मासूफ स्पिनर अब्दुल कादिर की गेंदों पर छक्के पर छक्का और फिर छक्का उड़ाएगा और 1 ओवर में 27 रन बटोर लेगा!! और उनका विश्व प्रसिद्ध हरफनमौला खिलाड़ी इमरान खान सियालकोट में चौथे टेस्ट की दूसरी पारी में जब सचिन का विकेट लेगा तो हीरे-जवाहरातों के मोल बिकती सी इमरान की मुस्कान अपनी पूरी बहार पर चमकने लगेगी! फील्ड पर एकदम रिजर्व रहने वाला इमरान पूरी बत्तीसी दिखाते हुए खुश हो रहा था- जाहिर है, तेंडुलकर का विकेट इमरान को अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि लगा।

वैसे हम एक बात और बताएँ, उस वक्त बैनर बनाने वाले को शायद यह नहीं मालूम था कि आठ-दस साल पहले तक तो सचिन बोतल से ही दूध पीता था। उसकी माँ ने हँसते हुए बताया था कि घर के दरवाजे पर हल्की-सी भी आहट हुई तो वह झट हाथ की बोतल को पीछे छिपा लेता था या कुर्सी की गद्दी के नीचे रख देता था।

सचिन के स्व. पिता रमेश तेंडुलकर मुंबई के कीर्ति कॉलेज में मराठी के विभागाध्यक्ष पद पर रहे। एक मर्तबा उन्होंने मुझे बताया था सचिन 8-9 बरस तक तो अपना अँगूठा ही चूसा करता था। छोटा-सा था तब एक और विशेष बात करता था- रूई का बड़ा सा फाहा लेकर हौले-हौले अपने माथे पर, आँखों पर, गालों पर फिराता रहता। उसे यह संवेदन बहुत ही अच्छा लगता था। यही सब करते-करते अकसर वह सो जाया करता था।

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सचिन के नन्हे पैरों में गम बूट : अब कुछ बातें क्रिकेट खेलने से पहले की हो जाएँ। गोरे रंग के छोटे से सचिन का मुंडन अभी हुआ नहीं था। बाल बिल्कुल सुनहरे-भूरे, घुँघराले और घने थे जो कंधों तक लहराते रहते थे। बेहद चंचल और शरारती सचिन का चेहरा बहुत सुंदर था और चेहरे से सुंदर थी उसकी मुस्कान।

कोल्हापुर विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर मनगे तब सचिन की ही बिल्डिंग में ही रहते थे। एक दिन उधर से गुजर रहे थे, उन्होंने देखा कि सचिन नन्हे-नन्हे गमबूट पहने, इतरा-इतरा कर चल रहा है। थोड़ी-थोड़ी देर बाद झुककर छोटे-छोटे हाथों से जूते की धूल भी पोंछ लेता है, सो वे बोले 'अरे वा सच्ची काय छान बूट तुजे।''

सचिन ने गर्दन तिरछी करके, आँखें तरेरकर उनसे कहा- 'तुम्हीं इतने मोठे आहात, तरी तुम्हाला समझत नाही कि हे बूट नाहीत, गम बूट आहेत! यानी कि आप इतने बड़े आदमी हो, आपको इतना भी नहीं मालूम कि यह बूट नहीं गमबूट हैं, इतना कह कर सचिन जनाब उसी चाल से आगे बढ़ गए, पीछे ठगे से रह गए मनके वाइस चांसलर। फिर तो कई दिनों तक वे अपने मित्रों में इस नन्ही-सी जान की आत्मविश्वास भरी अदा की चर्चा करते और हँसते-हँसाते रहे।

बिल्ली से दोस्ती के लिए मेढक पकड़ा : उन्हीं दिनों की बात है कि सचिन न्यू इंग्लिश स्कूल में फर्स्ट स्टैण्डर्ड में पढ़ता था। एक दिन स्कूल से लौटने के बाद वह एक ही साँस में भाग कर अपने घर की चार मंजिलें चढ़ गया। माँ ने समझा जरूर कोई साथी बदला लेने के लिए पीछे-पीछे आ रहा होगा, क्योंकि उन दिनों सचिन अकसर बॉटल के बचे हुए पानी से घर लौटते वक्त अपने साथियों को खूब भिगोया करता था, मगर वह बात नहीं थी उस दिन। उस दिन नन्हे सचिन ने कंधे से स्कूल बैग उतारा और जल्दी-जल्दी उसमें से लंच बॉक्स निकाला। और यह लीजिए, बॉक्स खोला तो उसमें से एक मेढक का बच्चा फुदककर बाहर उछला।

उसकी चमकती आँखों में खुशी की बिजलियाँ थीं। किलकारी मारते सचिन ने भागकर उसे मुट्ठी में पकड़ लिया और माँ से बोला 'मेरी बिल्ली कहाँ है?' दो दिन पहले ही जनाब कहीं से बिल्ली का छोटा-सा बच्चा उठा ले आए थे। बोले उसके साथ खेलने को यह मेढक का बच्चा लाया हूँ। बेचारी अकेले-अकेले बोर होती होगी। जब मैं स्कूल जाता हूँ, तब ये दोनों मिलकर खेला करेंगे।

उस रोज सारे दिन घंटों सचिन खाना-पीना, खेलना-कूदना भूलकर इसी धुन में लगा रहा कि किसी तरह बिल्ली और मेढक का बच्चा साथ-साथ खेलें। उसका एक हाथ बिल्ली के बच्चे को पकड़े हुए था तो दूसरा हाथ मेढक को दबोचे हुए। लेकिन जब भी दोनों को साथ मिलाता, बिल्ली सोफे के नीचे दुबक जाती और मेढक महाशय कहीं ओर फुदक जाते। सचिन हैरान था कि आखिर दोनों दोस्ती क्यों नहीं कर लेते? साथ-साथ क्यों नहीं खेलते?

मिट्टी के ठीकरे पर गणपतिजी उकेरे : उन दिनों सचिन शाम को अँधेरा होने पर घर कभी खाली हाथ नहीं आता। उसकी जेबों तक में फूल-पत्ती ठूँसे रहते। कभी कोई पौधा ही उखाड़ लाता और नहीं तो कुछ मुट्ठी भर घास। बाद में अजब-अजब शक्ल के कंकड़-पत्थर साथ लाने लगा। एक बार तो मिट्टी का ठीकरा ही उठा लाया। रात को पेंसिल और कलर लेकर उस पर कुछ बना रहा था। सुबह पिता ने देखा तो हैरान रह गए कि बच्चे ने अपनी कल्पनाशक्ति से उस टूटे ठीकरे पर गणपतिजी का बड़ा सुंदर चित्र उकेरा है।

जब मुँह से भौं-भौं की आवाज निकली : सचिन को कुत्ते भी बड़े अच्छे लगते थे और हमारी कॉलोनी में चार-पाँच कुत्ते हमेशा बने रहते थे। एक बार नीचे गैरेज में एक कुतिया चार-पाँच बच्चों को लिए पड़ी थी। छोटा सचिन वहाँ गया। उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह पिल्लों को उठा ले, पर वह उनके पास वहीं उकड़ू होकर बैठ गया और मुँह से भौं-भौं की आवाज निकालने लगा।

सचिन का फूट-फूटकर रोना : जानवर प्रेम के कारण सचिन के पिताजी एक बार उसे रागनी बाग का चिड़िया घर दिखाने ले गए। अन्य बच्चे तो रेलिंग के पार खड़े होकर उन्हें देख रहे थे, लेकिन सचिन मास्टर तो एकदम बाड़े के पास सींखचों में नाक घुसा कर करीब से उन्हें देखने की धुन में थे। इतने करीब से कि वहाँ का रखवाला दौड़ा आया और बच्चे को दूर हटाने के लिए कहा। मना करने पर सचिन बहुत रोया।

कुछ दिन बाद सचिन के पिता ने देखा कि सर्कस आया हुआ है और वहाँ पीछे की ओर एक आदमी शेर के छोटे-छोटे बच्चों को टहला रहा है और साथ में कुछ ट्रेनिंग भी देता चल रहा है, तभी उन्हें सचिन का फूट-फूट कर रोना याद आ गया। उन्होंने उस व्यक्ति से पूछा क्या मैं अपने बच्चे को यह बाघ दिखाने के लिए ला सकता हूँ? उसने स्वीकृति दे दी।

बाबा उठो ना, बाघ देखने जाना है : शाम को स्कूल से लौटने पर सचिन को जब यह पता चला कि कल बाघ देखने जाएँगे और उसे छूकर भी देख सकेंगे तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसे ठीक से नींद भी नहीं आ रही थी। पहली बार उसे पता चला कि रात बहुत लंबी होती है। पता नहीं उस रात वह सोया भी था या नहीं, क्योंकि अभी पूरी तरह दिन फूटा भी नहीं था कि वह अपने सबसे बढ़िया कपड़े पहनकर तैयार हो गया और पिता को जगाया- 'बाबा उठो ना, बाघ देखने जाना है।'

सुबह-सुबह पिता-पुत्र दोनों बाघ देखने गए। सचिन उस दिन बाघ के बच्चों को देख और छूकर जितना खुश हुआ था, उतना खुश उसे पहले कभी नहीं देखा। पाकिस्तान के शेर इमरान खान का टेस्ट जीवन में प्रवेश 1973 में हुआ था और आपको पता है, हमारा शेर बच्चा उसी 73 में 24 अप्रैल को पैदा हुआ था। अपने जीवन के महज सोलह बसंत उसने देखे और दुनिया गवाह है कि उसने 16 साल की उम्र में कैसा शानदार प्रदर्शन किया था, जो आज तक बरकरार है। पूरी दुनिया के क्रिकेटप्रेमी सचिन नाम के इस सितारे की बल्लेबाजी देखने के लिए कायल रहते हैं। वह तो ऐसा है ही, सबसे अलग, सबसे अनोखा और सबसे शानदार।

सचिन का नामकरण : अब आपको बताएँ कि सचिन का नामकरण कैसे हुआ? रमेश और श्रीमती रजनी तेंडुलकर की चार संतानों में सबसे छोटा था सचिन। तय यह किया गया कि उसका नामकरण माता-पिता के बजाय उसके भाई-बहन रखेंगे। सबसे बड़ा भाई नितिन फ्लाइट पर्सर है- कवि हृदय। बहिन का नाम है सविता (ससुराल का नाम संपदा पालेकर)। और तीसरे नंबर पर हैं भाई अजीत। तीनों को ही सचिनदेव बर्मन का संगीत बेहद प्रिय था। उन्हीं दिनों बर्मन दा की फिल्म आराधना के गीत पूरे देश में धूम मचा रहे थे।

लिहाजा बच्चों ने इस बच्चे का नाम तय किया- 'सचिन'। पर इस नाम में एक ही कमी थी। नितिन का 'न' और सविता का 'स' अक्षर तो इसमें था पर अजीत के नाम का कोई अक्षर इस नाम में नहीं था अजीत ने कहा कि कोई बात नहीं। नाम बर्मन दा के नाम पर ही रखेंगे। पर क्या पता था कि सचिन नाम के अक्षरों में अजीत का 'अक्षर' तो उसी प्रकार समाया हुआ है, जिस प्रकार उसकी यश और कीर्ति की गाथा में अजीत की ही लगन और मार्गदर्शन समाया हुआ है। सभी जानते हैं कि अजीत के असीम क्रिकेट के शौक ने सचिन को आज इस मुकाम तक पहुँचाया है।

सचिन आज शोहरत के शिखर पर हैं। साहित्य-सहवास के इस सचिन तेंडुलकर नामक लड़के ने भारत का नाम रोशन किया है। कई दफा मुझे बचपन का वह सचिन याद आ जाता है, जो कभी बड़े-बड़े बाल रखता था और धूल-मिट्टी में शैतानियाँ करते नजर आता था।

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