केवल दीक्षित साधकों के लिए आचमनीयम्- आचमनीय जल प्रदान करें- तोयेनाचमनं विधेहि शुचिना गांगेन मत्काल्पितं। साष्टागं प्रणिपतमंब, कमले दृष्टया कृतार्थी कुरु॥
पयस्नानम्- निम्न मंत्र से गौदुग्ध से स्नान कराएँ- स्व र्धेनुजातं बलवीर्य वर्धनं, दिव्यामृतात्यन्तर सप्रदं सितम्। श्री चंडिके दुग्ध समुद्र संभवे, गृहाण दुग्धं। मनसा मयाऽर्पितम्॥ (दुग्ध स्नानं समर्पयामि)
दधिस्नानं- निम्न मंत्र से दही से स्नान कराएँ - क्षीरोद्भवं स्वादु सुधामयं च, श्री चन्द्रकांतिसदृशं सुशोभनम्। श्री चण्डिके शुंभनिशुंभनाशिनि, स्नानार्थमंगी कुरु तेऽर्पितं दधि। (दधि स्नानं समर्पयामि।)
घृतस्नानं- निम्न मंत्र बोलकर घृत से स्नान कराएँ- श्री क्षीरजोद् भूतमिदं मनोज्ञं प्रदीप्तवह्नि द्युति पावितं च। श्री चण्डिके दैत्यविनाश दक्षे, हैयंगवीनं परिगृह्यतां च॥
मधुस्नानं- निम्न मंत्र से शहद से स्नान कराएँ - माधुर्यमिश्रं मधुमक्षिकागणै, र्वृक्षालिरम्ये मधुकानने चित्तम्। श्री चंडिके शंकर प्राणवल्लभे, स्नानार्थमंगी कुरु तेऽर्पितं मधु॥ (मधु स्नानं समर्पयामि)
शर्करा स्नानं- निम्न मंत्र से शकर से स्नान कराएँ- पूर्णेक्षुकांभोधि समुद्भवामिमां माणिक्य मुक्ता फलदाममंजुलाम्। श्री चण्डिके चंड विनाशकारिणि स्नानार्थ मंगीकुरु शर्करां शुभाम्॥ (शर्करा स्नानं समर्पयामि)
सुगंधितद्रव्य स्नानं- निम्न मंत्र से सुगंधि इत्र-सुगंधित तेल अर्पित करें- एतच्चम्पक तैलमम्ब विविधैः पुष्पैर्मुहुर्वासितम्। न्यस्तं रत्नमये सुवर्णचषके भृंगैर्भ्रमद्भिर्वृतम्। सानन्दं सुरसुन्दरीभिरमितो हस्तैर्धृतं ते मया केशेषु भ्रमर-प्रभेषु-सकलेष्वंगेषु चालिप्यते॥ (सुगंधि द्रव्यं समर्पणयामि)
पञ्चामृत स्नानं- पञ्चामृत से स्नान कराएँ- दधि दुग्ध घृतै स माक्षिकैः सितया शर्करया समन्वितैः। स्नपयामि तवाहमादरात् जननि ! त्वां पुनरुष्ण वारिभिः॥ (पंचामृत स्नानं समर्पयामि)
तीर्थजल- तीर्थजल अथवा शुद्ध जल (को ही तीर्थ जल सदृश्य मानकर उस) से स्नान कराएँ- एलोशीर-सु-वासितैः सकुसुमैर्गंगादि तीर्थोदकैः, माणिक्यामल मौक्तिकामृत युतैः स्वच्छैः सुवर्णोदकैः। मंत्रान् वैदिक तांत्रिकान् परिपठन् सानंदमत्यादरात् स्नानं ते परिकल्पयामि जननि! स्नेहात् त्वमंडी कुरु॥ (स्नानं समर्पयामि) श्री महालक्ष्माद्यावाहित देवताभ्यो नमः। मूलमंत्र द्वारा पंचोपचार अथवा षोडशोपचार पूजन करें। पश्चात् यथा शक्ति, श्री सूक्त, देवी सूक्ति आदि से अभिषेक करें।
शुद्धोदक स्नानं- शुद्ध जल से स्नान कराएँ- उद्गंधैरगरुद्भवैः सुरभिणा कस्तूरिका वारिणा, स्फूर्जत्सौरभ यक्ष कर्दम जलैः काश्मीर नीलैरपि पुष्पांभोभिरशेष तीर्थ सलिलैः कर्पूरवासोभरैः। स्नानं ते परिकल्पयामि कमले भक्तया तदंगीकुरु॥ (शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि)
कज्जलं समर्पण - निम्न मंत्र से श्री देवी को काजल आंजे- चांपये कर्पूरक चंदनादिकै, र्नानाविधै र्गंध चयैः सुवासितम्। चैत्रांजनार्थाय हरिन्मणिप्रभं श्री चंडिके स्वीकुरु कज्जलं शुभम्॥ (कज्जलं समर्पयामि)
सिंदूरं - निम्न मंत्र से ही मिश्रित सिंदूर विलेपित करें - सीमन्ते ते भगवति मयासादरं यस्तमेतत्, सिन्दूरं मे हृदय कमले हर्ष वर्ष तनोतु। बालादित्य द्युतिरिव सदालोहिता यस्य कान्तिः, अन्तर्ध्वान्तं हरति सकलं चेतसा चिन्तयैव॥ (सिंदूर समर्पयामि)
अथ आवरण पूजा वांछित जानकारी :- (अपनी कुल परंपरा अनुसार सात्विक, तामसिक, राजसिक नव आवरण पूजन करें)। नव आवरण पूजा में पाँच क्रम एक साथ होते हैं। वे निम्न हैं -:
() आवाहन व ध्यान () पूजन () नमस्कार () तर्पण () स्वाहाकार
अतः प्रत्येक आवरण में ध्यान बोलने के पश्चात् नावावरण पूजन क्रम में प्रत्येक देवता के नाम के पश्चात् ''ध्यायामि, पूजयामि, नमः, तर्पयामि स्वाहा''।
जैसे कि प्रथम आवरण में उर्ध्वाम्नाय परंपरा में निम्न प्रकार से उच्चारित करेंगे :- ''ॐ महादेव्यम्बा मयी श्री पादुकाम पूजयामि तर्पयामि नमः स्वाहा।''
इसी प्रकार प्रत्येक आवरण की पूजन समाप्ति पर उस आवरण का नाम बोलकर निम्न प्रकार से बोलेंगेः-
विशेष पूजा में- योगिनी पात्र, वीरपात्र, शक्तिपात्र, गुरुपात्र, भोगपात्र, बलिपात्र की अलग-अलग स्थापना की जाती है।
श्रीयंत्र नवारण पूजन क्रम में बिंदु, त्रिकोण, अष्टदल, षोडशदल, चतुस्त्र, भूपूर इत्यादि के क्रम में भी आम्नायों के अंतर्गत पूजन भेद हैं।
अतः साधक अपनी कुल परंपरा व गुरु निर्देशों का पालन करें।
नव आवरण पूजन यदि समयाभाव अथवा अन्य कारण से न कर पाएँ तो सामान्य अभिषेक किया जा सकता है। यदि अभिषेक भी न कर पाएँ तो प्रणाम कर राजोपचार पूजन क्रम में आगे का पूजन शुरू करें।
नैवेद्य निवेदन : चतुरस्र बनाएँ। उस पर नैवेद्य पात्र रखें। 'ह्रीं नमः' से प्रोक्षण करें। मूल मंत्र से (दाहिने हाथ के पृष्ठ पर बायाँ हाथ रखकर) नैवेद्य को आच्छादित करें, वायु बीज 'यं' सोलह बार कर अग्नि बीज 'रं' सोलह बार जपें, अमृतीकरण हेतु पश्चात् बाएँ हाथ को अधोमुख करें। उसके पृष्ठ पर दक्षिण हाथ रख नैवेद्य की ओर हाथ रखकर अमृत बीज 'वं' का सोलह बार जाप कर नैवेद्य के अमृतमय होने की भावना करें। धेनुमुद्रा दिखावें, आठ बार मूल मंत्र बोलकर गंध पुष्प चढ़ावें, बाएँ हाथ के अंगूठे से नैवेद्य पात्र का स्पर्श करें। दाहिने हाथ में जल पात्र लेवें। निम्न मंत्र बोलें-
चतुर्विधानं सघृत सुवर्णपात्रे मया देविसमर्पितं तत्। संवीज्यमाना मरवृन्दकैस्तवं जुषस्व मातर्दय या ऽवलोकम ॥ श्री मन्महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वतीभ्यो नमः नैवेद्यं सर्मपयामि (यह मंत्र बोलकर देवी के दक्षिण भाग में जल डालें।) पश्चात बाएँ हाथ की अनामिका मूल और अंगुष्ठ से नैवेद्य मुद्रा दिखाकर, पात्र में पुष्प तुलसी मंजरी छोड़ें।
॥ भगवति ! निवेदितानी हवींषिं जुषाण ॥
ग्रासमुद्रा दिखावें । बाएँ हाथ को पद्माकार करें। साथ ही दाहिने हाथ से निम्न मुदा में दिखाएँ :- ह्रीं प्राणाय स्वाहाः कनिष्ठिका (अनामिका व अंगुष्ठ के संयोग से) ह्रीं अपानाय स्वाहाः तर्जनी (मध्यमा व अंगुष्ठ के संयोग से ) ह्रीं व्यानाय स्वाहाः तर्जनी (अनामिका, मध्यमा व अंगुष्ठ के संयोग से) ह्रीं उदानाय स्वाहाः अनामिका (मध्यमा व अंगुष्ठ के संयोग से ) ह्रीं समानाय स्वाहाः सर्वांगुलिभिः इसके पश्चात् आचमनी से जल लेवें।
प्रार्थनाः- निम्न प्रार्थना बोलें :- नमस्ते देवदेवेशि सर्वतृप्ति करंपरम् । अखंडानंद सम्पूर्ण गृहाण जलमुत्तमम् ॥ श्री मन्महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वतीभ्यो नमः जलं समर्पयामि अन्तःपट करें। (पुनः आचमन हेतु जल छोड़ें।) ब्रह्मेशाद्यैः सरसमभितः सूपविष्ठैः समन्तात् सिंजद्वाल, व्यंजन पिकरैर्वीज्यमाना सखीभिः नर्मक्रीड़ा प्रहसन परान पंक्ति भोक्तृन् हसन्ती, भुंक्ते पात्रे कनकघटिते षड्रसान देव देवी॥1॥ शाली भक्तं सुपक्वं शिशिरकरसितं पायसापूपसूपं लेह्यं पेयं च चोष्यं, सितममृतफलं घारिकाद्यं सुखाद्याम्॥ आज्यं प्राज्यं सुभोज्यं नयन रुचिकरं राजिकैलामरिचैः स्वादीयं शाकराजी परिकर ममृताहारजोषं जुषस्व । सात बार मूल मंत्र जपें, पुनः जल छोड़ें नीमन्महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वतीभ्यो मध्ये पानीयं समर्पयामि।
फलानिः ऋतु फल समर्पण :- जम्वाम्र रम्भा फल संयुतानि, द्राक्षा फल क्षोद्रसमन्वितानि। सनारिकेलानी सदाडिमानि, फलानि ते देवि समर्पयामि ॥ कूष्माण्ड कोशातिक संयुतानि, जम्बीर नारिंग समन्वितानि। स बीजापुराणि स बादराणि, फलानि ते देवि समर्पयामि॥ (ऋतुफलानि समर्पयामि)