एक्यूप्रेशर की नजर में रोग

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-डॉ. बी.एल. करनाव

वर्तमान युग पूरी तरह से भौतिकतावादी युग है, भागमभाग और प्रतिस्पर्धा का युग है, जहाँ मनुष्य अपनी सुख-सुविधा, इच्छा और तृष्णा की पूर्ति के लिए परिस्थितियों तथा प्रकृतिजन्य नियमों के विपरीत जाकर कार्य करता है। परिणाम यह होता है कि असमय ही व्यक्ति तनाव व परेशानियों से घिरने लगता है और नित नए रोगों को आमंत्रण देता है। कहने का तात्पर्य यही कि 80 प्रतिशत मामलों में व्यक्ति स्वयं अपने शारीरिक कष्टों का कारण बन जाता है। मानव शरीर वास्तव में पृथ्वी के समान वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, इन पंच तत्वों से बना, प्रकृति की एक रचना है। मानव शरीर स्वयं का उत्तम चिकित्सक भी है। शरीर में स्थित रोग प्रतिकार शक्ति ही रोग पर नियंत्रण करती है। रोगों को दूर करने की यह प्राकृतिक शक्ति शरीर में हमेशा मौजूद रहती है। सोने-उठने-बैठने, रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, योग-व्यायाम आदि के नियमों का पालन नहीं करने अर्थात प्रकृति के अनुकूल न चलने की सजा रोग है।

अरोग्यता मनुष्य की सबसे बड़ी पूँजी है। ईश्वर ने हाथ की हथेली, पैर के पंजों आदि की रचना इस प्रकार की है कि संपूर्ण शरीर उसमें प्रतिबिम्बित होता है। एक्यूप्रेशर एक ऐसी प्राकृतिक उपचार पद्धति है, जिससे अनेक रोग बिना दवा के शीघ्र दूर किए जा सकते हैं। साथ ही शरीर को स्वस्थ रखा जा सकता है। एक्यूप्रेशर शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को सक्रिय कर देता है। यह उपचार पद्धति सरल, खर्चरहित, हानिरहित व प्रभावशाली होकर अत्यंत उपयोगी है। इसका उपयोग घर में, यात्रा में कहीं भी किया जा सकता है। भारतीय एक्यूप्रेशर उपचार पद्धति के आधार-तत्व प्रकृति के पंच-तत्व हैं, अतः यह उतनी ही प्राचीन है, जितनी प्रकृति।

गत 50 वर्षों में एक्यूप्रेशर उपचार प्रणाली ने संसार में काफी उन्नति की है। मानव शरीर एक अत्यंत शक्तिशाली व विकसित यंत्र के समान पंच-तत्व से बनी प्रकृति की अनुपम रचना है, जिसके सुचारु संचालन के लिए रक्त-संचार के साथ प्राण-ऊर्जा का संतुलित वितरण अति आवश्यक है। सुचारु रक्त-संचार व प्राण-ऊर्जा का संतुलित वितरण ही स्वास्थ्य का मूलाधार है। हाथ की हथेली व पाँव के तलवों पर स्थित प्रतिबिम्ब केंद्र पर दबाव देकर रक्त-संचार को सुचारु किया जा सकता है। उसी प्रकार मेरेडियम दाब बिन्दु पर दबाव देकर प्राण-ऊर्जा के प्रवाह को संतुलित तथा रुकावट, लीकेज को ठीक किया जा सकता है।

कुछ प्रकरणों में स्वस्थ होने के बाद पुनः रोगग्रस्त होने के कारणों को ज्ञात करने के लिए लगभग एक हजार से अधिक रोगियों के सोने-उठने-बैठने, रहन-सहन आदि की त्रुटिपूर्ण आदतों के संबंध में अध्ययन किया गया। अध्ययन में मुख्य रूप से यह तथ्य प्रकाश में आया कि अधिकांश व्यक्ति बैठने-उठने-सोने, खान-पान आदि में गंभीर त्रुटियाँ करते हैं। जैसे उल्टा सोना, यह स्वास्थ्य के लिए सबसे घातक है। इससे ह्दय रोग हो सकता है। इसके अलावा पाँव पर पाँव रखकर या पाँव में आँटी डालकर बैठना, सिर पर या सिर के नीचे हाथ रखकर सोना, सीने पर हाथ रखकर सोना, पाँव में आँटी डालकर सोना, काफी झुककर करवट से सोना आदि दोषपूर्ण आदतों के परिणाम स्वरूप संबंधित प्राण-ऊर्जा के प्रवाह-मार्ग में आए अधिकतम ऊर्जा संग्रह केंद्र या अन्य महत्वपूर्ण बिन्दु पर लगातार दाब पड़ते रहने से प्राण-ऊर्जा के प्रवाह में असंतुलन उत्पन्न होता है। इससे संबंधित अंग रोगग्रस्त होने लगते हैं। इस प्रकार अनियमित एवं प्रकृति के विरुद्ध आदतों के कारण प्रतिकार शक्ति से ज्यादा विकार शरीर में होने एवं रक्त संचार व प्राण-ऊर्जा के प्रवाह में असंतुलन होने से शरीर रोगग्रस्त होने लगता है। हाथ व पाँव में अधिकतम ऊर्जा संग्रह बिन्दु व अन्य महत्वपूर्ण बिन्दु हथेली व कलाई के जोड़ों के पास व पाँव में टखने के नीचे आते हैं। इसी प्रकार बियोल मेरेडियम के प्रतिबिम्ब केन्द्र एवं मूल ऊर्जा बिन्दु इन्डेक्स फिंगर व मध्य उँगली में आते हैं।

स्वस्थ रहने के लिए नियमित जल्दी सोना, जल्दी उठना एवं प्रातः उठते ही पर्याप्त मात्रा में लगभग 1 से 2 लीटर पानी का सेवन करना, सूर्योदय के पूर्व शुद्ध वायु के सेवन हेतु घूमने जाना, प्रातःकाल कम से कम आधे घंटे योग एवं व्यायाम करना, सोने-उठने-बैठने के नियमों का ठीक से पालन करना आवश्यक है।

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