अक्षयवट तीर्थराज प्रयाग का सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है। पुराण कथाओं के अनुसार यह सृष्टि और प्रलय का साक्ष्य है। नाम से ही जाहिर है कि इसका कभी नाश नहीं होता।
प्रलयकाल में जब सारी धरती जल में डूब जाती है तब भी अक्षयवट हरा-भरा रहता है। बाल मुकुंद का रूप धारण करके भगवान विष्णु इस बरगद के पत्ते पर शयन करते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह पवित्र वृक्ष सृष्टि का परिचायक है।
अक्षयवट का धार्मिक महत्व सभी शास्त्र-पुराणों में कहा गया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग प्रयागराज के संगम तट पर आया था। उसने अक्षयवट के बारे में लिखा है- नगर में एक देव मंदिर (पातालपुरी मंदिर) है। यह अपनी सजावट और विलक्षण चमत्कारों के लिए प्रसिद्ध है।
कहा जाता है कि जो श्रद्धालु इस स्थान पर एक पैसा चढ़ाता है, उसे एक हजार स्वर्ण मुद्रा चढ़ाने का फल मिलता है। मंदिर के आंगन में एक विशाल वृक्ष (अक्षयवट) है, जिसकी शाखाएं और पत्तियां दूर-दूर तक फैली हैं।
पौराणिक और ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार मुक्ति की इच्छा से श्रद्धालु इस बरगद की ऊंची डालों पर चढ़कर कूद जाते थे।
मुगल शासकों ने यह प्रथा खत्म कर दी। उन्होंने अक्षयवट को भी आम तीर्थयात्रियों के लिए प्रतिबंधित कर दिया। इस वृक्ष को कालान्तर में नुकसान पहुंचाने का विवरण भी मिलता है।
आज का अक्षयवट पातालपुरी मंदिर में स्थित है। यहां एक विशाल तहखाने में अनेक देवताओं के साथ बरगद की शाखा रखी हुई है। इसे तीर्थयात्री अक्षयवट के रूप में पूजते हैं।
अक्षयवट का पहला उल्लेख वाल्मीकि रामायण में मिलता है। भारद्वाज ऋषि ने भगवान राम से कहा था- नर श्रेष्ठ तुम दोनों भाई गंगा और यमुना के संगम पर जाना, वहां से पार उतरने के लिए उपयोगी घाट में अच्छी तरह देखभाल कर यमुना के पार उतर जाना। आगे बढ़ने पर तुम्हें बहुत बड़ा वट वृक्ष मिलेगा। उसके पत्ते हरे रंग के हैं। वह चारों ओर से दूसरे वृक्षों से घिरा हुआ है। उसका नाम श्यामवट है। उसकी छाया में बहुत से सिद्ध पुरुष निवास करते हैं। वहां पहुंचकर सीता को उस वृक्ष से आशीर्वाद की याचना करनी चाहिए। यात्री की इच्छा हो तो यहां कुछ देर तक रुके या वहां से आगे चला जाए।
अक्षयवट को वृक्षराज और ब्रह्मा, विष्णु, शिव का रूप कहा गया है-