महान संत आद्य शंकराचार्य

- आनंदीलाल जोशी
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केरल प्रांत की नैसर्गिक सौंदर्य से युक्त त्रिचूर नगरी में लगभग बारह शताब्दी पूर्व नम्बूद्रि परिवार के शिवगुरु एवं आर्याम्बा के आंगन में 'भगवान श्री वृषायक्तेश्वर की कृपा से नायक श्री शंकर का अवतरण हुआ। यही आगे चलकर आद्य श्री शंकराचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

तत्कालीन भारत की स्थिति भयावह थी। लोकयतिक बौद्ध, जैन, वैदिक सनातन धर्म विरोधी हो चुके थे। कापालिक पाशुपत, पांचराज मतावलंबी पाखंड प्रचार में संलग्न थे। प्रत्येक संप्रदाय, पंथ उनके प्रमुख देवता की उपासना आराधना तक सीमित हो चुका था। फलस्वरूप धार्मिक एकता ही नहीं, अपितु भौगोलिक एकता की नष्टप्रायः थी। सार रूप में यह स्पष्ट था कि भारतीय वैदिक सनातन संस्कृति एवं सभ्यता जीवन-मृत्यु के बीच संघर्षमय थी।

ऐसे भयावह दौर में आचार्य शंकर का अवतरण परित्राणाय साधूनां विभाशाय च दुष्कृताम्‌ के अनुरूप हुआ। प्रखर बुद्धि शंकर ने संस्कृत एवं मातृभाषा मलयालम का अध्ययन एवं मनन किया। स्वल्पकाल में संपूर्ण वैदिक वाङ्गमय, पुराणेतिहास, स्मृति आदि का अध्ययन कर किया।

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सुदूर दक्षिण से चलकर पुण्यशिला नर्मदा के तट पर क्रांतदर्शी भगवान शुकदेवजी के शिष्य आचार्य गौड़पाद के परमशिष्य गोविंद भगवत्पाचार्य से संन्यास दीक्षा प्राप्त की। अद्वैत-वेदांत के प्रचार-प्रसार का गुरुत्तर भार वहन करते हुए वैदिक दिग्विजय यात्रा की और चारों दिशाओं में स्थापना एवं कालांतर में उपपीठों की स्थापना की गई।

उत्तर एवं दक्षिण के सेतुबंध, प्रस्थानत्रयी के भाष्यकार, छिहोत्तर प्रकरण ग्रंथों की रचना एवं शताधिक स्तोत्रों की रसधारा की प्रवाहयुक्त गंगा का अवगाहन करवाने वाले और राष्ट्र की एकता-अखंडता के लिए समर्पित ऐसे महान विश्व गौरव आद्य श्री शंकराचार्य को जन-जन का नमन।

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