सत्तासीन भाजपा के प्रदेश चुनाव प्रभारी वैकेंया नायडू भले ही कहें कि उनके मंत्री या विधायक चुनावी चंदा नहीं जुटाएँगे, लेकिन चुनावों की आहट ने सभी पार्टियों को चुनावी चंदे के लिए चिंतित कर दिया है। पिछली बार की तुलना में इस बार चुनाव और महँगा साबित होना है। ऐसी स्थिति में इस भारी-भरकम राशि की व्यवस्था ने शीर्ष पदाधिकारियों की पेसानी पर बल ला दिए हैं। पार्टियाँ भले ही स्वीकार न करें, लेकिन चुनावी चंदे का धन ही चुनावी जीत का रास्ता खोलता है।
हाल ही में खरगोन जिले की कसरावद सीट पर बसपा के संभावित प्रत्याशी का घटनाक्रम भी कुछ यही बयाँ करता है। इस सीट से बसपा की ओर से संभावित प्रत्याशी रमेश उपाध्याय ने यह कहते हुए पार्टी छोड़ने का ऐलान कर दिया था कि उनसे दो लाख रुपए माँगे जा रहे हैं। यहाँ का राजनीतिक घटनाक्रम देखें, तो बसपा प्रदेश प्रभारी राजाराम पूर्व में रमेश उपाध्याय के नाम को संभावित प्रत्याशी के तौर पर मंच से बोल चुके थे, मगर बाद में उपाध्याय ने आरोप लगाया कि उनसे जोन प्रभारी भगवानदास ने दो लाख रुपए माँगे। इस मुद्दे पर उपाध्याय ने पार्टी छोड़ने और चुनाव मैदान से हटन की घोषणा कर दी।
दरअसल, यह पूरा घटनाक्रम बसपा सुप्रीमो मायावती के नाम पर हुआ। चर्चा है कि हर प्रत्याशी से चुनावी चंदे के लिए मायावती के जन्मदिन के नाम पर दो लाख रुपए माँगे जा रहे हैं। इससे कुछ समय पूर्व ही इंदौर में विधायक महेंद्र हार्डिया के नाम पर चुनावी चंदा माँगा गया था। तब चंदा माँगने वाले फर्जी निकले, जिन्हें दानदाता व्यापारियों की मदद से पकड़ा गया। ये दोनों घटनाक्रम भले ही सच हों या झूठ, लेकिन इनसे चुनावी चंदे का कुछ सच जरूर पर्दे से बाहर आ जाता है।
कैसे इकट्ठा होता है चुनावी चंदा : चुनावी चंदे के लिए हर पार्टी की अलग रणनीति होती है। प्रमुख पार्टियों की बात करें, तो प्रदेशाध्यक्ष और कोषाध्यक्ष पर चुनावी चंदा इकठ्ठा करने का दारोमदार होता है। सत्ताधारी पार्टी के मामले में मुख्यमंत्री भी इस जिम्मेदारी में शामिल होते हैं। सत्ताधारी दल के मामले में हर मंत्री को चुनावी चंदे का लक्ष्य दिया जाता है। वहीं हर विधायक व टिकट चाहने वालों को भी चुनावी चंदे में सहयोग करना होता है। इसके बाद प्रमुख उद्योगपति और व्यापारियों से चंदा उगाही की जाती है। इस उगाही के लिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सभी तरीके अपनाए जाते हैं। इसमें सत्ता का उपयोग भी किया जाता है।
रिकॉर्ड पेश करना अनिवार्य : हर पार्टी के लिए चुनावी चंदे का रिकॉर्ड पेश करना अनिवार्य किया गया है। पार्टियों को निर्वाचन आयोग को यह रिकार्ड देना होता है, इस कारण दानदाताओं को चंदे की रसीद भी दी जाती है। कई बार अप्रत्यक्ष तौर पर चंदा देने वाले बिना रसीद के सहयोग करते हैं। इसके अलावा पार्टियाँ चंदे के कूपन भी चलाती हैं। इसमें रसीद की बजाए जितना चंदा दिया गया है, उतनी राशि का कूपन दिया जाता है।
पार्टियाँ नहीं देतीं चंदे का रिकॉर्ड : निर्वाचन आयोग ने भले ही चंदे का रिकॉर्ड देना अनिवार्य किया हो, लेकिन अधिकतर पार्टियाँ रिकार्ड पेश नहीं करती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर 920 राजनीतिक दलों में से केवल 21 दलों ने चंदे का रिकॉर्ड पेश किया। रिकॉर्ड न देने वाली पार्टियों में राजद, बसपा, लोजश, झारखंड मुक्ति मोर्चा, तृणमूल कांग्रेस सहित 899 पार्टियाँ शामिल हैं। इस पर जमकर बवाल भी हुआ, लेकिन पार्टियाँ फिर भी ना मानी।
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार फटकारा : सुप्रीम कोर्ट कई बार चुनावी खर्च और चंदे को पारदर्शी बनाने के निर्देश दे चुकी है। वर्ष 1996 में केस के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता में आने के लिए 1000 करोड़ खर्च कर देती हैं, लेकिन इस खर्च का हिसाब न तो कोई उनसे पूछता है और न कभी वे बताती हैं। इसलिए पार्टियों के पैसे के स्त्रोतों का खुलासा होना चाहिए।
कानून ही देता है बचने का रास्ता : पार्टियों को भले ही चंदे का हिसाब-किताब निर्वाचन आयोग को सौंपना अनिवार्य हो, लेकिन कानून खुद बचने का रास्ता देता है। पार्टियों व प्रत्याशियों पर चंदे के मामले में जनप्रतिनिधि अधिनियम की धारा-77 में लिखा है कि शुभचिंतकों की ओर से दी या खर्च की गई राशि चुनावी खर्च में शामिल नहीं होगी। इसी कानूनी गली से पार्टियों व प्रत्याशियों के पास बच निकलने के रास्ते खुल जाते हैं।
सूचना का अधिकार बना हथियार : चुनावी चंदे के मामले में सूचना का अधिकार बड़ा हथियार साबित हो रहा है। हाल ही में दिल्ली में सूचना के अधिकार के तहत एक व्यक्ति ने राजनीतिक पार्टियों के चंदे की सूची माँगी थी। इसी सूची में भाजपा का डाऊ केमिकल से चंदा लेना साबित हुआ, जिसके बाद बवाल हुआ। राजनीतिक पार्टियों के रिकॉर्ड पेश न करने से चुनावी चंदे का सच पर्दे में ही रह जाता है।
प्रमुख पार्टियों में चंदे की हलचल : सूत्रों की मानें तो इंवेस्टर मीट में आए करीब 123 उद्योगपतियों की सूची बनाई गई है, जो भाजपा को चुनावी चंदा दे सकते हैं। सत्ता व संगठन के आला पदाधिकारी इस चंदे के लिए अब माकूल व्यक्ति तलाश रहे हैं, जिसे उगाही की पूरी जिम्मेदारी सौंपी जा सके। वहीं दूसरी प्रमुख पार्टी के प्रदेश पदाधिकारी अभी केंद्र की ओर ही टकटकी लगाए हैं। इनका मानना है कि केंद्र से निर्देश आए फिर चंदे की स्थिति टटोली जाए।