माँ शारदा का आशीर्वाद

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स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस का देहांत हो चुका था इसलिए अमेरिका की महती यात्रा पर जाने से पूर्व उन्होंने गुरु माँ शारदा (स्वामी रामकृष्ण परमहंस की धर्मपत्नी) से आशीर्वाद लेना आवश्यक समझा। वे गुरु माँ के पास गए, उनके चरण स्पर्श किए और उन्हें अपना मंतव्य बताते हुए बोले, 'माँ, मुझे भारतीय संस्कृति पर बोलने के लिए अमेरिका से आमंत्रण मिला है। मुझे आपका आशीर्वाद चाहिए ताकि मैं अपने प्रयोजन में सफल हो सकूँ।'

मां शारदा ने कहा, 'आशीर्वाद के लिए कल आना। मैं पहले देख लूँगी कि तुम्हारी पात्रता है भी या नहीं? और बिना सोचे-विचारे मैं आशीर्वाद नहीं दिया करती हूं।'

विवेकानंद सोच में पड़ गए, मगर गुरु माँ के आदेश का पालन करते हुए दूसरे दिन फिर उनके सम्मुख उपस्थित हो गए। माँ शारदा रसोईघर में थीं। विवेकानंदजी ने कहा, 'माँ मैं आशीर्वाद लेने आया हूँ।'

'ठीक है आशीर्वाद तो तुझे मैं सोच-समझकर दूँगी। पहले तुम मुझे वह चाकू उठाकर दो मुझे सब्जी काटनी है,' माँ शारदा ने कहा।
विवेकानंद ने चाकू उठाया और विनम्रतापूर्वक माँ शारदा की ओर बढ़ाया। चाकू लेते हुए ही माँ शारदा ने अपने स्निग्ध आशीर्वचनों से स्वामी विवेकानंद को नहला-सा दिया। वे बोलीं, 'जाओ नरेंद्र मेरे समस्त आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं।'

स्वामीजी हतप्रभ! उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि गुरु माँ के आशीर्वाद औरे मेरे चाकू उठाने के बीच ऐसा क्या घटित हो गया? शंका निवारण के प्रयोजन से उन्होंने गुरु माँ से पूछ ही लिया, 'आपने आशीर्वाद देने से पहले मुझसे चाकू क्यों उठवाया था?'

'तुम्हारा मन देखने के लिए,' मां शारदा ने कहा, 'प्रायः जब भी किसी व्यक्ति से चाकू माँगा जाता है तो वह चाकू की मूठ अपनी हथेली में समेट लेता है और चाकू की तेज फाल दूसरे के समक्ष करता है। मगर तुमने ऐसा नहीं किया। तुमने चाकू की फाल अपनी हथेली में रखी और मूठवाला सिरा मेरी तरफ बढ़ाया।'

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