वेदों में शरीर सहित मन-मस्तिष्क और आत्मा को स्वस्थ और सेहतमंद बनाए रखने के हजारों उपाय दिए गए हैं। आयुर्वेद, योग, वास्तु और ज्योतिष के बगैर हिन्दू धर्म कुछ नहीं। प्राचीनकाल में हमारे ऋषि-मुनियों ने कुछ नियम और कुछ ऐसे पौधों की खोज की थी जिसका हमारे जीवन को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण योगदान होता है।
ऋषि-मुनियों ने ऐसे ही नियमों, पौधों, फूल आदि को धर्म से जोड़कर उसके पालन के लिए नियम और परंपरा का निर्माण किया गया ताकि व्यक्ति उसका पालन करते हुए अनेक शारीरिक और मानसिक रोगों से दूर रहकर आत्मिक शांति का अनुभव कर सके। आओ जानते हैं कि धर्म का पालन करने से कैसे और कौन से रोगों से मुक्ति रहा जा सकता है।
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प्रात: काल के नियम : प्रात:काल जब निद्रा से जागते हैं तो सर्वप्रथम बिस्तर पर ही हाथों की दोनों हथेलियों को खोलकर उन्हें आपस में जोड़कर उनकी रेखाओं को देखते हुए एक देवमंत्र का एक बार मन ही मन उच्चारण करते हैं और फिर हथेलियों को चेहरे पर फेरते हैं।
जिस तरह सूर्य का उजाला पहले धरती पर फैल जाता है लेकिन सूर्य दिखाई नहीं देता उसी तरह जब हम आंखें खोल लेते हैं लेकिन हमारी चेतना में पूर्णत: जागरण नहीं हो पाते हैं ऐसे में उठते ही काम पर लग जाने से मन और मस्तिष्क को नुकसान पहुंचता है। इसीलिए कुछ देर रुककर देवमंत्र बोलकर पहले मस्तिष्क को अपनी जाग्रत अवस्था में आने दें उसके बाद ही मस्तिष्क में पहले सबसे अच्छा मैसेज डालें और फिर दूसरा कार्य या वार्तालाप करें।
इसीलिए धर्म अनुसार कुछ देर बिस्तर पर ही बैठे रहने के बाद उठते हैं और उसके बाद सर्वप्रथम भगवान के दर्शन करते हैं या उनका नाम लेकर उठते हैं। इससे दिन की शुरुआत अच्छी होती है और मन-मस्तिष्क में अच्छे भावों का विकास होता है। धर्म में उल्लेखित है कि व्यक्ति को जल्दी सोकर जल्दी उठना चाहिए।
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स्नान नियम : ब्रह्मा ने सृष्टि रचना करने के बाद अपने दूत से कहा कि जाओ लोगों से कह दो कि वे दो बार नहाएं और एक बार भोजन करें। यही नियम है। लेकिन उस दूत की बात का पालन लोगों ने उल्टा किया। ऐसे में धर्माचार्यों ने एक नियम बनाया। वह नियम यह था कि संधिकाल में जब भी संध्यावंदन करें तो आचमन करना जरूरी है। तीर्थ या मंदिर में जब भी जाएं तो शरीर के सभी 9 छिद्रों को जल से अच्छी तरह धोकर जाएं तभी व्यक्ति पवित्र माना जाता है इसलिए पवित्रता के नियम बनाए गए।
स्नान के सात प्रकार है:- मंत्र, भोम, अग्नि, वायव्य, दिव्य, वरुण और मानसिक। रूप, तेज, बल, पवित्रता, आयु, आरोग्य, निर्लोभता, दुःस्वप्न का नाश, तप और मेधा ये 10 गुण उक्त स्नान करने वाले को प्राप्त होते हैं। स्नान का हिन्दू धर्म में बहुत महत्व माना गया है। इसीलिए नदियों में स्नान के नियम बनाए गए।
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संध्यावंदन या पूजा नियम : स्नान के बाद पूजा करने का नियम है। पूजा से मस्तिष्क और मन में शांति और मजबूती का विकास होता है। कैसे? पूजा में फूल चढ़ाते हैं, कपूर जलाते हैं, सुगंध फैलाते हैं। पंचामृत ग्रहण करते हैं।
पूजा करते वक्त कपूर जलाया जाता है। कपूर से वातावरण शुद्ध होता है और हमारे प्राणों में ऑक्सीजन का विकास होता है। आयुर्वेद में कपूर के सैकड़ों गुणों का उल्लेख मिलता है। पूजा के बाद पंचामृत और चरणामृत पीने का नियम है। इसके भी कई लाभ हैं। इसमें तुलसी, दूध, दही आदि का प्रयोग होता है, जो कि हमें हर तरह के रोगों से बचाकर रखता है।
पूजा में फूल और सुगंध का उपयोग किया जाता है जिसके चलते मन और मस्तिष्क में शांति और सकारात्मक विचारों का विकास होता है। अच्छा अनुभव करना जरूरी है। आजकल तो सुगंध चिकित्सा का प्रचलन भी चल पड़ा है।
भगवान को चढ़ने वाले हर फूल की अपनी खासियत है। कमल, गुलाब, गुड़हल, आंकड़ा, चमेली, गेंदा आदि फूलों की सुगंध को सूंघते रहने से जीवन में सुख-शांति आती है। सुख- शांति के चलते समृद्धि आती है। लक्ष्मी का वास वहीं होता है, जहां शांति और स्वच्छता होती है।
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भोजन के नियम : 'जैसा खाओ अन्न, वैसा बने मन'- यह हिन्दू धर्म की प्रसिद्ध कहावत है। भोजन से केवल भूख ही शांत नहीं होती बल्कि इसका प्रभाव तन, मन एवं मस्तिष्क पर पड़ता है। एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है- 'सुबह का खाना स्वयं खाओ, दोपहर का खाना दूसरों को दो और रात का भोजन दुश्मन को दो।'
हिन्दू धर्म में बताया गया है कि भोजन कब करना चाहिए, कैसे करना चाहिए और भोजन के पश्चात क्या करें व क्या न करें। इसके अलावा क्या-क्या न खाएं और क्या-क्या खाना जरूरी है, यह सब धर्म में लिखा है। प्रत्येक दिन, पक्ष और अयन के अनुसार ही भोजन चयन किया जाता है। शराब और मांस का सेवन करना वर्जित माना गया है।
अनीति (पाप) से कमाए पैसे के भोजन से मन दूषित होता है वहीं तले हुए, मसालेदार, बासी, रुक्ष, मांसाहार एवं गरिष्ठ भोजन से मस्तिष्क में काम, क्रोध, सेक्स, तनाव जैसी वृत्तियां जन्म लेती हैं। भूख से अधिक या कम मात्रा में भोजन करने से तन रोगग्रस्त बनता है। भोजन के पूर्व जल का सेवन करना उत्तम, मध्य में मध्यम और भोजन पश्चात करना निम्नतम माना गया है।
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उपवास के नियम : उपवास का मुख्य उद्देश्य आंतों (पेट) को आराम देना एवं रसना (जिव्हा) संयम के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति करना है। आत्मिक लाभ के साथ ही उपवास से शारीरिक लाभ मिलते हैं। उपवास करने से आंतों को पूर्ण आराम मिलता है। निराहार रहने से शरीर में जमा वसा (ग्लाइकोजन) एवं स्टार्च का पाचन हो जाता है जिससे मोटापा नहीं बढ़ता।
उपवास करने से शरीर में उत्पन्न होने वाले टॉक्सिन पेशाब एवं पसीने के रूप में बाहर निकल जाते हैं। इस प्रकार उपवास के कई लाभ हैं। परंतु उपवास के नाम पर फरियाली, खिचड़ी, चिप्स आदि दिनभर खाते रहने से लाभ के बजाय हानि ही होती है वहीं यदि उपवास सही तरीके से नहीं छोड़ा जाए तो भी शारीरिक नुकसान हो सकता है।
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संस्कारों का पालन : संस्कार हमारे जीवन को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने का एक तरीका है। संस्कारहीन व्यक्ति पशुवत है। हमारे ऋषि-मुनियों ने सोच-समझकर ऐसे संस्कार निर्मित किए जिनका विज्ञान से भी संबंध सिद्ध होता है। संस्कारों के प्रमुख प्रकार 24 बताए गए हैं जिनमें से 16 ही अब प्रचलन में हैं।
इन संस्कारों के नाम है- गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। उक्त संस्कारों का वैदिक विधि से पालन किया जाना चाहिए अन्य कोई विधि धर्म के विरुद्ध मानी गई है। संस्कारों से जीवन जहां अनुशासनबद्ध बनता हैं वहीं इससे जीवन का सफर सरलता से कट जाता है। किसी भी प्रकार के कष्ट नहीं होते। अत: जिस व्यक्ति के गर्भाधान से वेदारंभ तक के संस्कार ठीक-ठीक उम्र में हुए हैं उनके जीवन में उन्हें सफलता और समृद्धि के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ता है।
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ज्योतिष और वास्तु के नियम : जहां मंदिर, पीपल, बढ़ और नीम का वृक्ष एक ही जगह हो वहां घर होना चाहिए। घर की दिशा पश्चिम, वायव्य, उत्तर या ईशान में होनी चाहिए। घर के अंदर के वास्तु भी नियमों के अनुसार होना चाहिए।
दूसरी बात तथाकथित ज्योतिषियों और उनकी किताबों से दूर रहें। उनका ज्ञान आपके जीवन में भ्रम और डर को बढ़ाकर नकारात्मक शक्तियों को उभार देगा। ज्योतिष ज्ञान का संबंध भी वास्तु से होता है। ग्रह-नक्षत्रों का हमारे जीवन पर प्रभाव पड़ता है लेकिन उसी प्रभाव से बचने के लिए ही घर को वास्तु अनुसार बनाया जाता है। इसके अलावा आप धर्म के नियमों का पालन करते हैं तो किसी भी ग्रह-नक्षत्र का बुरा प्रभाव आपके जीवन पर नहीं पड़ेगा।
आपके घर के भीतर की दिशाएं और शहर की दिशाएं मिलकर आपका भविष्य तय करती हैं। घर के वास्तु से घर का वातावरण निर्मित होता है। आपकी मानसिक और शारीरिक स्थिति कैसी होगी, यह घर और बाहर के वातावरण पर निर्भर करता है इसलिए दिशाओं के वास्तु का ज्ञान होना जरूरी है। इसी से सुख, शांति और समृद्धि आती है। यदि धन है लेकिन आपने दक्षिणमुखी मकान खरीद लिया है तो फिर शांति और धन कब तक रहेगा, इसकी कोई ग्यारंटी नहीं।
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दान और सेवा : दान और सेवा करने का मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारण है। दान करने से मन की ग्रंथियां खुलती हैं। व्यक्ति के प्रति आसक्ति का भाव समाप्त होता है। आसक्ति का भाव नहीं रहने से व्यक्ति को किसी भी प्रकार का संताप नहीं होता। रोग और शोक भी शरीर से चिपक नहीं पाते। दूसरा, सेवा करने से आत्मविश्वास बढ़ता है।
अत: दान और सेवा एक ऐसा कार्य है जिससे जहां व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक लाभ मिलता है वहीं वह देवताओं की नजरों में उठ जाता है। देवताओं का प्रिय बनना ही आध्यात्मिक लाभ है।
सेवा : हिन्दू धर्म में सभी कर्तव्यों में श्रेष्ठ 'सेवा' का बहुत महत्व बताया गया है। स्वजनों, अशक्तों, गरीबों, महिला, बच्चों, धर्मरक्षकों, बूढ़ों और मातृभूमि की सेवा करना पुण्य है। यही अतिथि यज्ञ है। सेवा से सभी तरह के संकट दूर होते हैं। इसी से मोक्ष के मार्ग में सरलता आती है।
दान : दान के 3 प्रकार बताए गए हैं- उत्तम, मध्यम और निकृष्ट। जो धर्म की उन्नति, रूप, सत्यविद्या, स्वजनों और राष्ट्र की उन्नति के लिए दान दे, वह उत्तम। कीर्ति या स्वार्थ के लिए दे, वह मध्यम और जो वेश्यागमनादि, भांड, भाटे, पंडे को दे, वह निकृष्ट है।
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तीर्थ भ्रमण और उत्सव : जीवन में आए हैं तो चारों धाम की तीर्थ करना जरूरी है। तीर्थ के कई लाभ हैं। तीर्थ से ही वैराग्य, समृद्धि और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। उत्सव, त्योहार या पर्व को मनाने से जीवन में नकारात्मकता का नाश होता है और खुशहाली बढ़ती है। हंसी- खुशी और प्रसन्नता से ही सुख-शांति और समृद्धि का जन्म होता है।
सर्वश्रेष्ठ है: कुंभ, नवरात्रि, शिवरात्रि, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, संक्रांति, दीपावली, पूर्णिमा और अमावस्या। उक्त त्योहार या पर्व का परंपरागत और विधि-विधान से पालन करें। फैशन के चलते इनके नए स्वरूप का पालन न कतई न करें, जैसे आजकल गरबों और लाइट वाले दीपकों का ज्यादा प्रचलन हो चला है और अब लोग प्रसाद के रूप में चॉकलेट भी बांटने लगे हैं। यह धर्म का अपमान ही है। यह कहना कि भगवान तो भावना के भूखे होते हैं और उन्हें तो कुछ भी चढ़ा सकते हैं- यह कुतर्क है।
मनमाने त्योहार और उत्सवों से बचें इनसे घर में अशांति फैल सकती है। उन त्योहारों, पर्वों या उत्सवों को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परंपरा या वैश्विक फैशन से न होकर जिनका उल्लेख धर्मग्रंथों में मिलता है। फैशनेबल त्योहारों का कोई वैज्ञानिक और धार्मिक आधार नहीं होता है। उनसे जीवन में तात्कालिक खुशी मिल सकती है लेकिन दूरगामी नुकसान उठाना पड़ सकता है, तो सावधान रहें।
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कुतर्क और असत्य से बचें : सत्संग का अर्थ होता है सत्य के साथ रहना। कुविचार व तर्क के साथ नहीं, झूठ के साथ नहीं, विरोधाभास के साथ नहीं, धर्म का अपमान करने वाले के साथ नहीं, कुमति के साथ नहीं, नास्तिक के साथ नहीं और विधर्मी के साथ भी नहीं। ये सारे के सारे आपके जीवन को भटकाने और असफल करने वाले तत्व हैं।
बहुत से लोग कहते कुछ, करते कुछ और होते कुछ हैं। ऐसा वे खुद के साथ भी करते हैं और खुद को ही धोखा देते रहते हैं। खुद से वादा करते हैं और तोड़ देते हैं। ऐसी कई असंख्य बाते हैं, जो व्यक्ति के मन-मस्तिष्क की दृढ़ता को कमजोर करती हैं।
यम और नियम के 10 सूत्रों में से सत्य सबसे प्रथम है। सत्य के साथ रहने से बाकी से सभी स्वत: ही पालन होने लगते हैं। आगे क्लिक करें...सत्य की राह पर चलकर मिटे संताप
सदा सत्य बोलने से व्यक्ति की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता कायम रहती है। सत्य बोलने से रिश्ते-नाते भी कायम रहते हैं और व्यक्ति को आत्मिक बल प्राप्त होता रहता है। आत्मिक बल से आत्मविश्वास बढ़ता है, जो हमारी सफलता का आधार है। सत्य बोलना आता है सत्संग से।