मीर की ग़ज़लें (3)

हमारे आगे तेरा जब किसी ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हमने थाम थाम लिया

खराब रहते थे मस्जिद के आगे मयखाने
निगाह-ए-मस्त ने साक़ी की इंतक़ाम लिया

वो कज-रविश न मिला मुझसे रास्ते में कभू
न सीधी तरहा से उसने मेरा सलाम लिया

मेरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया

अगरचे गोशा-गुज़ीं हूँ मैं शाइरों में 'मीर'
पर मेरे शोर ने रू-ए-ज़मीं तमाम किया

ग़ज़ल-2
हस्ती अपनी हुबाब की सी है
ये नुमाइश सराब की सी है

नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

बार-बार उसके दर पे जाता हूँ
हालत अब इज़्तिराब की सी है

मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़
उसी खानाखराब की सी है

'मीर' उन नीमबाज़ आँखों में
सारी मस्ती शराब की सी है

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