वराहमिहिर-
वराहमिहिर ही पहले आचार्य हैं जिन्होंने ज्योतिष शास्त्र को सिद्धांत, संहिता तथा होरा के रूप में स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया। इन्होंने तीनों स्कंधों के निरूपण के लिए तीनों स्कंधों से संबद्ध अलग-अलग ग्रंथों की रचना की। सिद्धांत (गणित)- स्कंध में उनकी प्रसिद्ध रचना है- पंचसिद्धांतिका, संहितास्कंध में बृहत्संहिता तथा होरास्कंध में बृहज्जातक मुख्य रूप से परिगणित हैं।
इन्हें शकाब्द 427 में विद्यमान बताया जाता है। ये उज्जैन के रहने वाले थे इसीलिए ये अवन्तिकाचार्य भी कहलाते हैं। इनके पिता आदित्यदास थे, उनसे इन्होंने संपूर्ण ज्योतिर्ज्ञान प्राप्त किया। जैसे ग्रहों में सूर्य की स्थिति है, वैसे ही दैवज्ञों में वराहमिहिर का स्थान है। वे सूर्यस्वरूप हैं। उनकी रचना-शैली संक्षिप्तता, सरलता, स्पष्टता, गूढ़ार्थवक्तृता और पांडित्य आदि गुणों से परिपूर्ण है। इन्होंने 13 ग्रंथों की रचनाएं की हैं।
ज्योतिष के सिद्धांत स्कंध से संबद्ध इनके पंचसिद्धांतिका नामक ग्रंथ की यह विशेषता है कि इसमें इन्होंने अपना कोई सिद्धांत न देकर अपने समय तक के पूर्ववर्ती पांच आचार्यों (पितामह, वशिष्ठ, रोमश, पौलिश तथा सूर्य)- के सिद्धांतों (अभिमतों)- का संकलन कर महत्वपूर्ण कार्य किया है। इनकी बृहत्संहिता-स्कंध का सबसे प्रौढ़ तथा मान्य ग्रंथ है। इसमें 106 अध्याय हैं। इस पर भट्टोत्पल की टीका बड़ी प्रसिद्ध है।