मकर संक्रांति : जानिए पर्व का पौराणिक महत्व

मकर संक्रांति : पिता सूर्य जाते हैं पुत्र शनि के घर


 
मकर संक्रांति के दिन भगवान भास्कर (सूर्य) अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उनके घर जाते हैं। चूंकि शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं, अतएव इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही दिन चयन किया था।
 
मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं। मकर-संक्रांति से प्रकृति भी करवट बदलती है। इस दिन लोग पतंग भी उड़ाते हैं। 
 
 

 


महापर्व महात्म्य 
 
हमारे वेदों में मकर संक्रांति को महापर्व का दर्जा दिया गया है। उत्तर प्रदेश और बिहार में मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी बनाकर खाने और खिचड़ी से बने पकवान दान करने की प्रथा होने से यह पर्व खिचड़ी के नाम से प्रसिद्ध हो गया है। झारखंड और मिथिलांचल के लोगों का मानना है कि मकर संक्रांति से सूर्य का स्वरूप तिल-तिल बढ़ता है, अतः वहां इसे तिल संक्रांति कहा जाता है।
 
 


 


त्योहार एक, नाम अनेक 
 
मकर संक्रांति को अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है। हरियाणा व पंजाब में इसे लोहड़ी के रूप में मनाते हैं। उत्तर प्रदेश व बिहार में इसे खिचड़ी कहा जाता है। उत्तर प्रदेश में इसे दान का पर्व भी कहा जाता है। असम में इस दिन बिहू त्योहार कहा जाता है। दक्षिण भारत में पोंगल का पर्व कहते हैं। यहां इस दिन तिल, चावल, दाल की खिचड़ी बनाई जाती है। यह पर्व चार दिन तक चलता है।
 
 

 


स्नान-दान, जप-तप 
 
कहा जाता है कि मकर संक्रांति के दिन गंगा स्नान करने पर सभी कष्टों का निवारण हो जाता है। इसीलिए इस दिन दान, तप, जप का विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस दिन को दिया गया दान विशेष फल देने वाला होता है।
 

 

 


तिल क्यों है विशेष 
 
हमारे ऋषि मुनियों ने मकर संक्रांति पर्व पर तिल के प्रयोग को बहुत सोच समझ कर परंपरा का अंग बनाया है।आयुर्वेद के अनुसार यह शरद ऋतु के अनुकूल होता है। मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से तिल का विशेष महत्व है, इसीलिए हमारे तमाम धार्मिक तथा मांगलिक कार्यों में, पूजा अर्चना या हवन, यहां तक कि विवाहोत्सव आदि में भी तिल की उपस्थिति अनिवार्य रखी गई है।
 
तिल वर्षा ऋतु की खरीफ की फसल है। बुआई के बाद लगभग दो महीनों में इसके पौधे में फूल आने लगते हैं और तीन महीनों में इसकी फसल तैयार हो जाती है। इसका पौधा 3-4 फुट ऊंचा होता है। इसका दाना छोटा व चपटा होता है। इसकी तीन किस्में काला, सफेद और लाल विशेष प्रचलित हैं। इनमें काला तिल पौष्टिक व सर्वोत्तम है। आयुर्वेद के छह रसों में से चार रस तिल में होते हैं, तिल में एक साथ कड़वा, मधुर एवं कसैला रस पाया जाता है।


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