जिंदगी के एहसास में, ओ हर वक़्त रहती, कभी सीख बनकर, कभी याद बनकर,
मृग-मरीचिका-सी चाह, मन में पल रही। परछाईं झूठ की यहां, सच को छल रही।
हमसे भी और तुमसे भी, तो बढ़ने को कहती रही। नदी सदा बहती रही, नदी सदा बहती रही।
संघर्षों में जीवन उसका, हर पल ही ढलता रहा।, दीया रात में जलता रहा,
वक़्त के थपेड़ों से, घाव जब सिलते हैं। पीड़ा को नित,संदर्भ नए मिलते हैं।
कुटुंब की तस्वीर में, जिसने जीवन रंग भरा। शाम ढले मायूस हुआ, कैसे ओ चेहरा।