हिन्दी में यात्रा संस्मरणों की भरमार है और उनमें से श्रेष्ठ दस रचनाएं चुनना एक बहुत मुश्किल और श्रमसाध्य कार्य था, लेकिन मैंने अपने विवेक और समझ से जो रचनाएं चुनी हैं वो इस प्रकार हैं :
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1. यात्रा का आनंदः दत्तात्रेय बालकृष्ण 'काका' कालेलकर काका कालेलकर शुरू में गुजराती में लिखते थे। उनकी 'हिमालय यात्रा' अनुदित होकर हिंदी में छपी थी। बाद में वो हिंदी में ही लिखने लगे। उन्हें यात्राओं में बहुत आनंद आता था। देश और विदेश में अनेक प्रवास उन्होंने लिपिबद्ध किए। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के उपाध्यक्ष होने पर सुदूर विदेश यात्राओं का सुयोग भी मिला।
उनका कोई साढ़े तीन सौ पृष्ठों का संकलन 'यात्रा का आनंद' बहुत महत्त्वपूर्ण कृति है। वह बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से छपी थी।
संकलित यात्रा-वृत्तांत विभिन्न रूपों में हैं - संस्मरण की शैली में, लेख रूप में, पत्रों की शक्ल में। करसियांग, नीलगिरि, अजंता, सतपुड़ा, गंगोत्री आदि की भारतीय यात्राओं के साथ अफ्रीका, यूरोप, उत्तरी और दक्षिणी अमरीका आदि की कोई सौ यात्राओं का ब्योरा हमें इस पुस्तक में मिलता है- जमैका, त्रिनिदाद और (ब्रिटिश) गयाना तक का।
लेखक की जिज्ञासु वृत्ति इन संस्मरणों की विशेषता है और जानकारी साझा करने की ललक भी। विदेश में अक्सर वो बाहर की प्रगति के बरअक्स भारतीय संस्कृति की निरंतरता को याद करते हैं।
2. किन्नर देश में: राहुल सांकृत्यायन महापंडित राहुल सांकृत्यायन हिंदी में 'घुमक्कड़-शास्त्र' के प्रणेता थे। वो जीवन-भर भ्रमणशील रहे। ज्ञान के अर्जन में उन्होंने सुदूर अंचलों की यात्राएं कीं। उन पर अनेक किताबें लिखीं।
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'किन्नर देश में' हिमाचल प्रदेश में तिब्बत सीमा पर सतलुज नदी की उपत्यका में बसे सुरम्य इलाके किन्नौर की यात्रा-कथा है। यह यात्रा उन्होंने साल 1948 में की थी। मूल शब्द 'किन्नर' है, इसलिए राहुलजी सर्वत्र इसी नाम का प्रयोग करते हैं।
कभी बस और घोड़े के सहारे और कभी कई दफा पैदल भी की गई यात्रा का वर्णन करते हुए राहुलजी क्षेत्र के इतिहास, भूगोल, वनस्पति, लोक-संस्कृति आदि अनेक पहलुओं की जानकारी जुटाते हैं।
किताब का सबसे दिलचस्प पहलू वह है जहां वे अपने जैसे घुमक्कड़ों की खोज कर उनका संक्षिप्त जीवन-चरित भी लिखते हैं। उन्हें एक ऐसा यात्री मिला जो पांच बार कैलाश-मानसरोवर हो आया था। उसने सैकड़ों यात्राएं कीं और डाकुओं ही नहीं, मौत से दो-चार हुआ और बच आया।
पुस्तक का अंतिम हिस्सा सूचनाओं से भरा है, जहां वो किन्नौर के अतीत, लोक-काव्य और उसका हिंदी अनुवाद, किन्नर भाषा का व्याकरण और शब्दावली समझाते हैं।
3. अरे यायावर रहेगा यादः सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' हिंदी साहित्य में रचनात्मक यात्रा-वृत्तांत की लीक डालने वाली कृति अब कमोबेश क्लासिक का स्थान पा चुकी है। अज्ञेय की एक कविता ('दूर्वाचल') की पंक्ति इस यात्रा-वृत्तांत का नाम बनकर अपने आप में एक मुहावरा-सा बन चुकी है और 'यायावर' नाम लगभग 'अज्ञेय' का पर्याय।
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जापान के भारत पर हमले की आशंका में फैज अहमद फैज, मुश्ताक अली आदि की तरह अज्ञेय भी देश-रक्षा में मित्र (अलाइड) देशों की फौज में शामिल हो गए थे।
युद्ध खत्म होने पर लौट आए। फौजी जीवन से आम जीवन में वापसी तक अज्ञेय ने अनेक भारतीय स्थलों की जो यात्राएं कीं, वे इस किताब में लिपिबद्ध हैं। पूर्वोत्तर के जिन कस्बों, जंगलों, माझुली जैसे द्वीप के बारे में उत्तर भारत का निवासी जहां आज भी बहुत नहीं जानता, अज्ञेय ने चालीस के दशक में उन्हें फौजी ट्रक हांकते हुए नापा।
असम से बंगाल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, तक्षशिला (अब पाकिस्तान में), एबटाबाद (जहां हाल में ओसामा बिन लादेन को मारा गया था), हसन अब्दाल, नौशेरा, पेशावर और अंत में खैबर- यानी भारत की एक सीमा से दूसरी सीमा की यात्रा; उसमें तरह-तरह के अनुभव, दृश्य, लोग और हादसे।
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इस यात्रा के अलावा कुल्लू-रोहतांग जोत की यात्रा भी इस कृति में है, जब लेखक ने मौत को करीब से देखा। उस संस्मरण का नाम ही है, 'मौत की घाटी में'। अब रोहतांग न मौत की घाटी रहा, न यात्रा उतनी दुगर्म। 'एलुरा' और 'कन्याकुमारी से नंदा देवी' वृत्तांत भी कृति में बहुत दिलचस्प हैं।
दक्षिण के बारे में भी उस जमाने में यह यात्रा-वृत्तांत हिंदी पाठक समाज के लिए जानकारी की परतें खोलने वाला साबित हुआ था।
4. ऋणजल धनजलः फ़णीश्वरनाथ रेणु यात्राएं केवल तफरीह के लिए नहीं होतीं। 'मैला आंचल' और 'परती परिकथा' जैसी जमीनी कृतियों के रचयिता रेणु ने दो संस्मरण लिखे, जो इस विधा को नई भंगिमा देते हैं। दोनों में उनके अपने बिहार की जानी-पहचानी जगहों की यात्रा है, लेकिन नितांत भयावह दिनों की।
साल 1966 में दक्षिणी बिहार में पड़े सूखे के वक्त उस क्षेत्र की यात्रा उन्होंने दिनमान-संपादक और कवि-कथाकार 'अज्ञेय' के साथ की। बाद में साल 1975 में पटना और आसपास के क्षेत्र में बाढ़ की लीला को उन्होंने क़रीब से देखा। दोनों जगह उनके साथ उनकी नज़र विपरीत परिस्थितियों में भी मानवीय करुणा को चीन्हती है।
बाढ़ का इलाका हो या सूखा क्षेत्र, उनका वर्णन हर जगह संवेदनशील कथाकार का रहता है। गंभीर पर्यवेक्षण, जो उनकी चिर-परिचित ठिठोली को भी उन हालात में भूलने नहीं देता।
संस्मरणों में पीड़ित तो आते ही हैं फौजी, राहतकर्मी, पत्रकार, मित्र, पत्नी लतिकाजी की उपस्थिति उनको और जीवंत बनाती है। और तो और राहत सामग्री गिराता हेलिकॉप्टर भी जैसे कथा का एक चरित्र बनकर उपस्थित होता है।
5. आखिरी चट्टान तकः मोहन राकेश गोवा से कन्याकुमारी तक की यह यात्रा कथाकार और नाटककार मोहन राकेश ने सन् 1952-53 में की थी कोई तीन महीने में। किताब उन्होंने ‘रास्ते के दोस्तों’ को समर्पित की, साथ में यह जोड़ते हुएः "पश्चिमी समुद्र-तट के साथ-साथ एक यात्रा"।
देश के दक्षिण और समुद्र क्षेत्र की मोहन राकेश की यह पहली यात्रा थी। जैसा कि रेल का ब्योरा लिखने से पहले वे चार पन्नों में कुछ पूर्व-पीठिका-सी बनाते हुए कहते हैं, "एक घने शहर (अमृतसर) की तंग गली में पैदा हुए व्यक्ति के लिए उस विस्तार के प्रति ऐसी आत्मीयता का अनुभव होने का आधार क्या हो सकता था? केवल विपरीत का आकर्षण?"
नए संसार को जानने की यह ललक उन्हें मालाबार की लाल जमीन, घनी हरियाली और नारियल वृक्षों से लेकर कन्याकुमारी की चट्टान तक लिए जाती है। बीच-बीच में अनेक दिलचस्प हमसफ़र चरित्रों से दो-चार करते हुए। इस यात्रा-वृत्तांत को हम एक कहानी की तरह पढ़ सकते हैं।
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6. चीड़ों पर चांदनीः निर्मल वर्मा हिंदी लेखकों को तब विदेश यात्राओं का बहुत सुयोग नहीं मिलता था। अज्ञेय के बाद निर्मल वर्मा इस मामले में बहुत भाग्यशाली रहे। अज्ञेय ने जैसे विदेश यात्राओं के संस्मरण 'एक बूंद सहसा उछली' में लिखे, निर्मल वर्मा 'चीड़ों पर चांदनी' के साथ इस विधा में सामने आए।
हालांकि इस पुस्तक में एक संस्मरण उनके जन्मस्थल शिमला पर भी है। पहले-पहल यह कृति साल 1962 में छपी थी। विदेश यात्रा निर्मल वर्मा के लिए महज पर्यटकों की सैर नहीं रही। वे जर्मनी जाते हैं तो नाटककार ब्रेख्त उनके साथ चलते दिखाई देते हैं।
कोपनहेगन में दूसरे यूरोपीय देशों की मौजूदगी भी साथ रहती है। सबसे महत्पूर्ण दो यात्रा-संस्मरण आइसलैंड के हैं। आइसलैंड की हिमनदियों (ग्लेशियर) और क्षेत्र की साहित्यिक संस्कृति का आंखों देखा वर्णन हिंदी में इससे पहले शायद ही देखने में आया हो।
इन संस्मरणों के कई साल बाद निर्मलजी ने 'सुलगती टहनी' (कुंभ यात्रा) और डायरी की शक्ल में अनेक दूसरे यात्रा-संस्मरण भी लिखे। पर 'चीड़ों पर चांदनी' इस विधा में उनकी अनूठी कृति के रूप में हमेशा पहचानी जाती रही है।
7. स्पीति में बारिशः कृष्णनाथ कृष्णनाथ अर्थशास्त्र के शिक्षक रहे और बौद्ध धर्म के अध्येता। मगर उनकी यायावर-वृत्ति उन्हें बार-बार हिमालय ले जाती रही है। बौद्ध धर्म का अन्वेषण ही नहीं, हिमालयी अंचल के लोक-जीवन को उन्होंने बहुत आत्मीय और सरस ढंग से अपने अनेक संस्मरणों में लिखा है।
साल 1974 की यात्रा को कवि कमलेश साल 1982 में यात्रा-त्रयी के रूप में प्रकाश में लाए थे। श्रृंखला में सबसे पहली कृति थी- 'स्पीति में बारिश'। फिर 'किन्नर धर्मलोक' और 'लद्दाख में राग-विराग' छपी।
कुछ वर्ष बाद कुमाऊं क्षेत्र पर भी उनकी ऐसी ही तीन किताबों का सिलसिला देखने में आया। लाहौल-स्पीति, रोटांग (रोहतांग) जोत के पार हिमाचल प्रदेश का सीमांत क्षेत्र है। लोक-जीवन तो हर जगह अपना होता ही है, पर इस क्षेत्र के पहाड़ और घाटियां बाकी हिमालय से बहुत जुदा हैं।
कहते हैं, स्पीति में कभी बारिश नहीं होती। उस दुनिया में कृष्णनाथ बारिश ढूंढते हैं और पाते हैं, स्नेह की, ज्ञान की, परंपरा और संस्कृति की, मानवीय रिश्तों की बारिश।
कृष्णनाथ का गद्य अप्रतिम है। सरस और लयपूर्ण। छोटे-छोटे वाक्यों में वे अपने देखे को हमसे बांटते नहीं, हम पर अपने गद्य का जैसे जादू चलाते हैं। चंद पंक्तियां देखिएः
"विपाशा को देखता रहा। सुनता रहा। फिर जैसे सब देखना-सुनना सुन्न हो गया। भीतर-बाहर सिर्फ हिमवान, वेगवान, प्रवाह रह गया। न नाम, न रूप, न गंध, न स्पर्श, न रस, न शब्द। सिर्फ सुन्न। प्रवाह, अंदर-बाहर प्रवाह। यह विपाशा क्या अपने प्रवाह के लिए है? क्या इसीलिए गंगा, यमुना, सरस्वती, सोन, नर्मदा, वितस्ता, चंद्रभागा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी की तरह विपाशा महानद है? पुण्यतमा है? क्या शीतल, नित्य गतिशील सिलसिले में ही ये पाश कटते हैं? विपाश होते हैं?"
8. यूरोप के स्केच: रामकुमार रामकुमार की ख्याति एक चित्रकार के रूप में अंतरराष्ट्रीय है, लेकिन हिंदी में कथाकार के रूप में उनकी अपनी प्रतिष्ठा है। साल 1950-51 में वे पेरिस के आर्ट स्कूल में रहे। उस वक्त मौके-बेमौके वे यूरोप के देशों की सैर को निकलते रहे।
"नए-नए शहर, नई-नई भाषाएं, नए-नए लोग...और मैं अकेला निरुद्देश्य यात्री की भांति सुबह से शाम तक सड़कों, गलियों, कैफो और कला-संग्रहालयों के चक्कर लगाया करता।'
साल 1955 में वे फिर यूरोप गए। दोनों प्रवासों के कोई बीस यात्रा-संस्मरण इस पुस्तक में संकलित हैं। काहिरा की एक शाम, रोमा रोलां के घर में, फूचिक के देश में, टॉल्सटाय के घर में, दांते और माइकल एंजेलो का देश हर तरह से विशिष्ट यात्रा-वृत्तांत हैं।
कथाकार होने के बावजूद रामकुमार संस्मरण लिखते वक्त तटस्थ रहते हैं और जानकारी और अनुभवों को किसी निबंध की तरह हमसे बांटते हैं। किताब में उनके बनाए रेखाचित्र पाठक के लिए एक अतिरिक्त उपलब्धि साबित होते हैं।
9. बुद्ध का कमण्डल लद्दाखः कृष्णा सोबती कृष्णा सोबती अपनी अनूठी कलम लिए एक रोज दिल्ली से लेह को चल दीं। यह किताब उस यात्रा की डायरी समझिए। इसका प्रकाशन इतना सुरुचिपूर्ण है कि हिंदी में शायद ही कोई और यात्रा-संस्मरण इस रूप में छपा होगा।
हर पन्ने पर रंगीन तस्वीरें, रेखांकन, वाक्यांश कृष्णाजी के गद्य की शोभा बढ़ाते हैं। वे अपनी पैनी और सहृदय नजर से लेह के बाजार, महल, दुकानें, लोग, गुरुद्वारे, पुस्तकालय, प्रशासन, प्रकृति सबको निहारती चलती हैं।
सबसे ज्यादा उनकी नजर टिकती है बौद्ध-विहारों के भव्य और कलापूर्ण एकांत पर। वे फियांग, हैमिस, लामायूरू, आलची, थिकसे के गोम्पा देखती चलती हैं। जांसकर घाटी की परिक्रमा करती हैं और हमारे सम्मुख लद्दाख की संस्कृति, भाषा, लिपि, रीति-रिवाज, नदियों और दर्रों को हाथ की रेखाओं की तरह बड़ी आत्मीयता से परोसती चलती हैं।
करगिल को हमने भारत-पाक संघर्ष से पहचाना है। कृष्णा सोबती हमारे सामने उस करगिल का चेहरा ही बदल देती हैं।
10. तीरे तीरे नर्मदाः अमृतलाल वेगड़ सैलानी की यात्रा का तेवर अलग होता है और यात्री का अलग। अमृतलाल वेगड़ नर्मदा की विकट मगर सरस यात्राओं के लिए पहचाने गए हैं। वे चित्रकार भी हैं और कला-शिक्षक भी। यात्रा के रेखांकनों-चित्रों से सुसज्जित उनकी यात्रा-त्रयी इस किताब के साथ पूर्णता पाती हैः सौंदर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा, तीरे-तीरे नर्मदा।
यात्राओं का यह सिलसिला वेगड़जी ने पत्नी कांताजी के साथ विवाह की पचासवीं सालगिरह के मौके पर शुरू किया था। अंतराल में नर्मदा जैसे उन्हें फिर बुलाती रही और वे वृद्धावस्था में भी अपने सहयात्रियों के साथ निकल-निकल जाते रहे।
हम इन संस्मरणों में कदम-कदम पर नर्मदा के इर्द-गिर्द के लोकजीवन से दो-चार होते हैं। वेगड़जी के संस्मरणों में नदी नदी नहीं रहती, एक जीवंत शख्सियत बन जाती है जो हजारों-हजार वर्षों से अपने प्रवाह में जीवन को रूपायित और आलोकित करती आई है।
वेगड़जी का विनय देखिए, फिर भी कहते क्या हैं, 'कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साज का सुर मिलाता है, उसी प्रकार इस जनम में तो हम नर्मदा परिक्रमा का सुर ही मिलाते रहे। परिक्रमा तो अगले जनम से करेंगे।"
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