'मुसलमान बन जाएं या गांव छोड़कर जाएं'

मंगलवार, 6 दिसंबर 2016 (12:31 IST)
- रिचर्ड गैल्पिन
 
इराक़ी सेना ने ख़ुद को इस्लामिक स्टेट कहने वाले चरमपंथी संगठन को मोसुल शहर से खदेड़ने के लिए छह हफ़्ते पहले अभियान छेड़ा था। लेकिन अब भी उसे शहर के पूर्व के कुछ चुनिंदा इलाकों में ही कामयाबी मिली है। बीबीसी संवाददाता रिचर्ड गैल्पिन ने वहां के गांवों में उन ईसाइयों से बात की, जो किसी तरह बच गए और अपनी ज़िंदगी दुबारा शुरू करने की कोशिश में हैं।
आईएस के हमले में बर्बाद हो चुके एक ऐतिहासिक मकान को देखकर करमलिस गांव की ईसाई नागरिक बसमा अल-सऊर गुस्से से कहती हैं, "वे लोग शैतान के पोते हैं।" वे अपनी मां के साथ सांता बारबरा चर्च गई थीं। वे पास के एक दूसरे ईसाई गांव में जला दिए गए मकानों से बची-खुची कुछ चीजें चुन कर ले आई थीं।
 
इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों ने करमलिस की तरह ही दूसरे गांव के बाशिंदों से भी कह दिया था कि वे मुसलमान बन जाएं या गांव छोड़ कर चले जाएं। लगभग सभी लोग गांव छोड़ पास के शहर इरबिल चले गए, जहां कुर्दों का बहुमत है।
 
इन ईसाइयों को पता था कि उन्होंने इस्लाम स्वीकार नहीं किया तो वो मार डाले जाएंगे। अल-सऊर ने अपने चाचा का अध जला फ़ोटो दिखाते हुए बीबीसी से कहा, "हमारे घर में बस यही बचा हुआ था।" आईएस के लोगों ने चर्च के नीचे से एक बड़ी सुरंग खोदी ताकि इसे अपना सैनिक अड्डा बना सकें। इस कोशिश में वहां मिट्टी और मलबे का बड़ा ढेर खड़ा कर दिया। अब जब उन्हें खदेड़ दिया गया है, तो वॉलेंटीयर्स का एक दल वहां साफ-सफाई और मरम्मत में लगा है।
फ़ादर पॉल थाबेत इस काम के सपुरवाइज़र थे। उन्होंने तीन साल पहले ही रोम में अपनी पढ़ाई पूरी की और यहां आ कर पादरी बन गए। उन्होंने मुझे आग्रह कर गांव का सेंट अद्दई चर्च दिखाया। इस्लामिक स्टेट के हमले के पहले वे यहां नियमित प्रार्थना की अगुवाई किया करते थे।
 
उन्होंने कहा कि जब तक हमले के ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा नहीं दी जाती, वो उन्हें माफ़ नहीं कर सकते। उन्हें शक है कि स्थानीय सुन्नी मुसलमान आईएस के समर्थक हैं या वे उसमें शामिल हो सकते हैं। उन्हें यह आशंका भी है कि बंदूकधारी अब भी कहीं छिपे हो सकते हैं। यहां ईसाइयों के भविष्य को लेकर चिंता है। इसकी मुख्य वजह यह है कि मुसलमानों और ईसाइयों में परस्पर विश्वास की कमी है। मोसुल में इस्लामिक स्टेट की हार के दूरगामी नतीजों को लेकर भी लोग चिंतित हैं।
 
बीते हफ़्ते मैं इराक़ी सेना के शीर्ष जनरलों में से एक नज़ीम अल-जिबूरी के साथ मोसुल की दक्षिण पूर्व सीमा पर गया। हम यह पता करने गए थे कि क्या असीरियाई साम्राज्य की राजधानी रही निमरुद के पुरातत्व अवशेषों को आईएस ने ध्वस्त कर दिया था। हां, निमरुद के अवशेष नष्ट कर दिए गए हैं!
 
हमने रास्ते में पाया कि आईएस के खदेड़े जाने के बाद तमाम चेक पोस्ट पर शिया मिलिशिया के लोग तैनात हैं। वे इराक़ी सेना के लोग नहीं हैं। उनका अतीत विवादास्पद रहा है। कुछ पर सुन्नी मुसलमानों के खिलाफ़ अत्याचार करने के आरोप भी लगे हैं। वे अब मोसुल में चलाए जा रहे अभियान का अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। वे सुन्नी मुसलमानों के साथ हैं। उनसे कहा गया है कि वे शहर में प्रवेश न करें।
मोसुल में चलाए जा रहे इस अभियान में पशमर्गा मिलिशिया के क़ुर्द लड़ाके भी शामिल हैं। नस्लीय तनाव न बढ़े, इसके लिए वे भी शहर के अंदर नहीं जाने पर राज़ी हो गए हैं। इसके अलावा ईसाई मिलिशिया और क़बायली सुन्नी के मिलिशया भी इस लड़ाई में इनके साथ हैं।
 
समझा जाता है कि इनके साथ इराक़ी सेना के ख़ुफिया अफ़सर और कुशल सैनिक हैं, जो अच्छी तरह जानते हैं कि किस तरह लोगों की मदद से लड़ाई लड़ी जा सकती है। इस्लामिक स्टेट ने अब तक आत्मघाती हमलों के ज़रिए इराक़ी सेना और उसका साथ देने वालों पर दवाब बनाए रखा और कई जगहों पर उन्हें पीछे धकेलने में कामयाबी भी हासिल की।
 
मोसुल से इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों को खदेड़ कर बाहर निकालना कभी भी बहुत आसान काम नहीं था। चरमपंथी संगठन के यकायक टूट कर बिखर जाने या ख़ुद भाग खड़े होने की स्थिति को छोड़ दें, वरना यह लड़ाई लंबी चलेगी।

वेबदुनिया पर पढ़ें