डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को क्यों पसंद करते हैं लोग?
शनिवार, 26 अगस्त 2017 (12:30 IST)
- प्रोफ़ेसर रौनकी राम (पंजाब यूनिवर्सिटी)
डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम को पंचकुला की विशेष अदालत ने रेप के मामले में दोषी क़रार दिया। इसके बाद डेरे के समर्थकों ने हिंसक प्रदर्शन शुरू कर दिए।
आख़िर क्या वजह है कि बलात्कार जैसे गंभीर अपराध में अदालत द्वारा दोषी करार देने के बाद भी समर्थक यह मानने को तैयार नहीं होते कि उनके गुरु ने कुछ ग़लत किया है?
पहली बात तो यह है कि लोगों की जो उम्मीदें समाज में पूरी नहीं होतीं, वे डेरे में पूरी हो रही होती हैं। उनके मन में बात आती है कि यह तो बहुत अच्छी व्यवस्था है। दूसरी बात यह कि डेरे के संचालक या प्रमुख को वे सुपरमैन या सुपर ह्यूमन बीइंग मानते हैं। उन्हें लगता है कि वे तो गलती कर ही नहीं सकते।
लोगों को लगता है कि उनके बाबा पर जो आरोप लगे हैं, वे सिर्फ़ बाबा के ख़िलाफ नहीं बल्कि हमारे समाज पर लगे हैं। उन्हें लगता है कि इन आरोपों से अपने समाज, अपने डेरे को बचाना है। लोगों की डेरे पर जो आस्था होती है, वह विचारधारा में बदल जाती है। उन्हें लगता है कि हम जो कर रहे हैं, सच्चाई के लिए कर रहे हैं।
जब लोगों की समस्याएं सही ढंग से हल नहीं होतीं तो वे धार्मिक या आध्यात्मिक रास्ता अपनाने लगते हैं। हैरानी की बात है कि वे डेरे पर इन समस्याओं को हल करवाने नहीं जाते। उन्हें लगता है कि यही एक रास्ता है। उन्हें लगता है कि डेरे का प्रमुख मसीहा है।
डेरों जैसी जगहों पर सोशल कैपिटल तैयार हो रहा होता है। कोई ऐसा डेरा नहीं है जिसके अपने स्कूल, संस्थान, कैंटीन, कोऑपरेटिव मेस या अन्य नेटवर्क न हों। कहीं डेरे से जुड़े लोगों को पानी की समस्या होती है तो डेरे वाले आकर उसे दूर कर देते हैं। कोई और समस्या आती है तो भी डेरे के लोग मदद के लिए आगे आ जाते हैं।
दरअसल जो काम राज्य को करने थे, सरकार को करने थे, सिविल सोसाइटी को करने थे, उन्हीं कामों के लिए लोगों को डेरों के पास जाना पड़ रहा है।
इन हालात के लिए हम सभी ज़िम्मेदार हैं क्योंकि हमने आज़ादी के बाद अपने लोकतंत्र को लोकतांत्रिक बनाने की कोशिश नहीं की। ज़्यादा ज़िम्मेदार नेता हैं। एक बाज़ार सा बन गया है। जो प्रेम और सहयोग लोगों को डेरे से मिलता है, अगर वह उसे अपने पड़ोस और समाज से मिले तो अलग तरह की सोसाइटी का निर्माण होगा।
यह समय किसी को गाली देने का नहीं है। हमें देखना होगा कि हम कैसे समाज में जी रहे हैं। यही कहा जा सकता है कि इन हालात को इत्मिनान से समझने की कोशिश करनी चाहिए।