पाकिस्तान की तालिबान से गहरी दोस्ती के बारे में शायद ही किसी रणनीतिकार को शको-शुबहा हो। इस विषय पर कई किताबें और लेख लिखे जा चुके हैं। निवर्तमान अफ़ग़ान हुक़ूमत तो साफ़ तौर पर तालिबान को पाकिस्तान का प्रॉक्सी बताता था। ये बात 15 अगस्त 2021 तक शत-प्रतिशत दुरुस्त थी।
लेकिन तब से लेकर अब काबुल नदी में बहुत पानी बह चुका है। पाकिस्तान के मदरसों, अफ़ग़ानिस्तान के ग्रामीण इलाक़ों और पश्तूनों के दबदबे वाले तालिबान कभी एक लड़ाकों की टोली होते थे, पर अब एक देश पर राज कर रहे हैं। एक विद्रोही गुट से बढ़कर वे अब सत्तासीन ताक़त हैं और बराबरी के रिश्ते के ख़्वाहिशमंद हैं।
तालिबान के प्रारूप में आए बदलाव के बाद उसके पाकिस्तान के साथ रिश्तों के भी एक नई दिशा की ओर अग्रसर होने के कुछ शुरूआती संकेत सामने आ रहे हैं।
तालिबान और पाकिस्तान की 'दोस्ती'
11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकी हमले के बाद, तालिबान की पहली सरकार को अमेरिका ने उखाड़ फेंका था। अमेरिका और नेटो सेना के दबाव में तालिबान के लड़ाके और अगुवा तितर-बितर हो गए थे। इनमें कई पाकिस्तान पहुँचे।
कहने को तो पाकिस्तान, अमेरिका का सहयोगी था लेकिन ये कड़वा सच है कि तालिबान के लड़ाके और बड़े नेता बलूचिस्तान और वज़ीरिस्तान में रह रहे थे। तालिबान के हर फ़ैसले को अमली जामा पहनाने वाली ताक़तकवर क्वेटा शूरा भी बलूचिस्तान से ही काम कर रही थी।
अफ़ग़ानिस्तान की पिछली सरकार खुले तौर पर तालिबान के पीछे पाकिस्तान का हाथ होने की बात कहती है।
तालिबान के कई वरिष्ठ नेताओं ने कथित तौर पर पाकिस्तानी शहर क्वेटा में शरण ली थी, जहां से उन्होंने तालिबान का मार्गदर्शन किया। इसे "क्वेटा शूरा" कहा गया था। पाकिस्तान इसके अस्तित्व से इंकार करता रहा है।
अफ़ग़ानिस्तान की पिछली सरकार के कई मंत्री और उच्च अधिकारी तालिबान की बढ़ती ताक़त के पीछे पाकिस्तान की अहम भूमिका के बारे में बात करते रहे हैं। लेकिन तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़े के बाद, पाकिस्तान में कई तरह के अंदेशे हैं।
अगस्त में सत्ता में आने के बाद ही तालिबान ने पाकिस्तान के सरहदी कबायली इलाक़ों में कार्यशील 'तहरीके-तालिबान पाकिस्तान' के कई चरमपंथियों को रिहा कर दिया था।
रिश्तों में तनाव की ताज़ा वजहें
15 अगस्त 2021 का दिन दक्षिण एशिया से लेकर अमेरिका तक, एक ऐसी घटना के लिए याद रखा जाएगा जिसने एक सुपरपावर को असहाय-सा कर दिया था। काबुल एयरपोर्ट पर भीड़, हवाई जहाज़ों से लटकते डरे-सहमे लोग और हवाई अड्डे की पहरेदारी करते लगभग बेबस से दिखते अमेरिका के विख्यात मरीन कमांडो।
कई जानकारों ने इसे अमेरिका का एक और 'वियतनाम मोमेंट' क़रार दिया था। अमेरिकी सेना एक अनिर्णीत युद्ध को अधूरा छोड़कर आनन-फ़ानन में निकलने जा रही थी। लेकिन ये लम्हा अमेरिका के लिए ही नहीं बल्कि अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी और तालिबान के हिमायती पाकिस्तान के लिए भी नई रणनीतिक चुनौतियां लेकर आ रहा था।
पिछले कुछ दिनों में ऐसी घटनाएं हुई हैं जिनसे पाकिस्तान की 'नए अफ़ग़ानिस्तान' से मिलने वाली चुनौतियां के बिल्कुल शुरुआती संकेत मिलना शुरू हुए हैं। ये संभव है कि ये घटनाएं महज़ अपवाद ही हों लेकिन देशों के बीच संबंध अक्सर, मामूली सी दिखने वाली घटनाओं के धीरे-धीरे विकराल रूप लेने से अनियंत्रित हो जाते हैं।
तालिबान की कथित स्पेशल फ़ोर्सज़ ने पूर्वी नंगरहार के गुश्ता ज़िले में पाकिस्तान द्वारा लगाई गई कंटीली बाड़ को उखाड़ फेंका है। कंटीली तारों को उखाड़ कर तालिबान के लड़ाके इन्हें लेकर अपने कैंप लौट गए। ख़बर है कि तालिबान के साथ नंगरहार प्रांत के जनरल डाइरेक्टरेट ऑफ़ इंटेलिजेंस के डॉक्टर बशीर तालिबान के इस अभियान की अगुवाई कर रहे थे।
ताहिर ख़ान एक वरिष्ठ पाकिस्तानी पत्रकार हैं जो 15 अगस्त 2021 के बाद से कई बार अफ़ग़ानिस्तान का दौरा कर चुके हैं और वो अक़्सर वहां के लोगों और तालिबान लड़ाकों से बातचीत करते हैं।
इस्लामाबाद में मौजूद ताहिर ख़ान बाड़ उखाड़ने की घटना की तस्दीक करते हैं। मैंने उनसे पूछा कि वे इस घटना का विश्लेषण कैसे कर रहे हैं।
उन्होंने कहा, " मेरी नज़र में पाकिस्तान और तालिबान हुक़ूमत के दरम्यान मुश्किलात होंगी, बल्कि मैं तो ये कहूंगा कि वे इस वक्त भी मौजूद हैं। इस घटना को तालिबान समर्थकों ने सोशल मीडिया पर बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया है और पाकिस्तानी सेना के प्रति जैसी भाषा इस्तेमाल हुई है वो भी मुनासिब नहीं थी।"
डूरंड लाइन पर तक़रार
पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच की अंतरराष्ट्रीय सीमा को डूरंड लाइन के नाम से जाना जाता है। अफ़ग़ानिस्तान ने इस सीमा रेखा को कभी भी मान्यता नहीं दी है। ब्रिटिश सरकार ने तत्कालीन भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों पर नियंत्रण मज़बूत करने के लिए 1893 में अफ़ग़ानिस्तान के साथ 2640 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा खींची थी।
ये समझौता काबुल में ब्रिटिश इंडिया के तत्कालीन विदेश सचिव सर मॉर्टिमर डूरंड और अमीर अब्दुर रहमान ख़ान के बीच हुआ था। लेकिन काबुल पर जो चाहे राज करे, डूरंड लाइन पर सबकी सहमति नहीं है। कोई अफ़ग़ान इसे अंतरराष्ट्रीय सीमा नहीं मानता।
राकेश सूद भारतीय विदेश सेवा में रह चुके हैं और वे 2005 से 2008 तक अफ़ग़ानिस्तान में भारत के राजदूत रह चुके हैं।
बाड़ हटाने की घटना को अधिक तव्वजो न देते हुए, उन्होंने बीबीसी हिंदी को बताया, "काबुल की किसी भी सरकार ने डूरंड लाइन को स्वीकार नहीं किया है क्योंकि उनका कहना है कि ये सीमा रेखा अंग्रेज़ों ने ज़बर्दस्ती बनाई थी। 1923 में किंग अमानुल्ला से लेकर मौजूदा हुक़ूमत तक डूरंड लाइन के बारे में धारणा यही है। तालिबान ने ये कुछ नया नहीं किया है। पिछली बार जब तालिबान सत्ता में थे तब भी वे पाकिस्तानी समर्थन पर ही निर्भर थे। उस समय भी नवाज़ शरीफ़ सरकार ने डूरंड लाइन को अंतरराष्ट्रीय बॉर्डर बनाने की काफ़ी कोशिश की थी लेकिन बात बनी नहीं।"
बदलाव आ रहा है?
प्रोफ़ेसर स्वर्ण सिंह दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू (जेएनयू) विश्वविद्यालय से जुड़े हैं।
बीबीसी हिंदी ने उनसे पूछा कि क्या अब तालिबान और पाकिस्तान के संबंध बदलेंगे, "बदलाव आना स्वभाविक भी है। एक आतंकवादी गुट होने और एक सरकार होने की ज़िम्मेदारियों और उद्देश्यों में फ़र्क़ होता है। पहले तालिबान की पाकिस्तान पर निर्भरता इसलिए थी कि वो काबुल से जूझ रहे थे। एक आतंकवादी गुट जब सरकार बन जाता है तो उसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता की ज़रूरत पड़ती है। तालिबान का सर्वप्रिय दोस्त पाकिस्तान भी उन्हें मान्यता नहीं दे पा रहा है।"
पाकिस्तान ने बीते कुछ महीनों में लगभग हर फ़ोरम का इस्तेमाल तालिबान की सरकार को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से एक मौक़ा देने की गुज़ारिश की है। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद तालिबान को फ़िलहाल एक भी मुल्क़, अफ़ग़ानिस्तान की वैध सरकार के रूप में स्वीकार नहीं करता।
प्रोफ़ेसर स्वर्ण सिंह कहते हैं, "पाकिस्तान को तालिबान की अलग भाषा पर नाराज़गी हो सकती है। तालिबान के शीर्ष नेतृत्व ने बार-बार दोहराया है कि वे अपनी ज़मीन को पड़ोसी देश के विरुद्ध इस्तेमाल नहीं होनें देंगे। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर से 370 हटाने के मसले पर भी तालिबान ने कहा था कि ये भारत का अंदरूनी मामला है और हम इसमें दख़लअंदाज़ी नहीं करेंगे।
ये एक बड़ा बदलाव था। ऐसा माना जाता है कि तालिबान पाकिस्तान का फ़ॉस्टर चाइल्ड है, लेकिन वो दिखाना चाहते हैं कि उनके फ़ैसले वो स्वयं, स्वतंत्र रूप से ले रहे हैं। इसलिए उनका अब पाकिस्तानी सरकार के साथ पहले जैसा तालमेल नहीं रहेगा। कुछ हद तक पाकिस्तान इस बात को समझता भी है।"
स्वर्ण सिंह कहते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान को अंतरराष्ट्रीय सहायता तभी ठीक से आएगी जब उसे मान्यता मिलेगी और पाकिस्तान इसकी कोशिश कर रहा है क्योंकि अगर अफ़ग़ानिस्तान में अस्थिरता आती है तो इसका नुक़सान पाकिस्तान को भी होगा।
पाकिस्तानी सिस्टम पर तालिबान का बयान
दूसरी अहम घटना तालिबान के प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुजाहिद का वो बयान है जिसमें उन्होंने पाकिस्तान के राजनीतिक ढांचे पर सवाल उठाए थे।
ज़बीउल्लाह मुजाहिद ने एक टीवी कार्यक्रम के दौरान कहा था, "पाकिस्तान की राजनीतिक व्यवस्था, इस्लामी सिस्टम का प्रतिनिधित्व नहीं करती। वो सिस्टम उनके धार्मिक क़ानून के तहत नहीं चलता। उनके लिए धर्म अहम नहीं है, सिर्फ़ विकास अहम है।"
पाकिस्तानी पत्रकार ताहिर ख़ान ने इस्लामाबाद से बताया, "ये बात तो दुरुस्त है कि पाकिस्तान में इस्लामी निज़ाम नहीं है लेकिन अफ़ग़ान सरकार के प्रवक्ता का पाकिस्तान के बारे में ऐसा कॉमेंट करना ग़ैर-मुनासिब है, क्योंकि प्रवक्ता ने अब तक न तो बयान को तफ़्सील से समझाया है न ही उसका खंडन किया है। यानी वो अपने स्टैंड पर क़ायम हैं। मुझे इस बात की जानकारी है कि पाकिस्तानी हुक़ूमत ने अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान विदेश मंत्री तक, मुजाहिद के बयान पर नाराज़गी पहुंचाई है।"
ज़ाहिर है पाकिस्तान को इस बयान पर आपत्ति होगी लेकिन दिलचस्प है कि इसपर सरकार की तरफ़ से कोई सार्वजनिक प्रतिक्रिया नहीं आई है।
तहरीके-तालिबान पाकिस्तान और तालिबान सरकार
तालिबान के सत्ता में आने से पहले से ही पाकिस्तान के अपने कबायली इलाक़ों में सक्रिय 'तहरीके-तालिबान पाकिस्तान' (टीटीपी) एक बड़ी चुनौती रहा है।
पाकिस्तानी सेना ने एक दशक से अधिक समय तक अफ़ग़ानिस्तान से सटी सरहद पर टीटीपी के साथ एक ख़ूनी जंग लड़ी है। टीटीपी के साथ बातचीत और समझौता पाकिस्तान में एक संवेदनशील विषय है।
विशेषकर 16 दिसंबर 2014 को पेशावर के एक स्कूल में 140 से अधिक बच्चों पर हमले के बाद टीटीपी के प्रति पाकिस्तानी अवाम का ग़ुस्सा कई गुना बढ़ा है। हाल में पाकिस्तान और टीटीपी के बीच एक समझौता भी हुआ जो महीने भर भी नहीं टिक पाया, लेकिन इस दौरान पाकिस्तानी सिविल सोसाइटी ने टीटीपी से बातचीत तक को सही नहीं माना।
टीटीपी और तालिबान में विचारधारात्मक एकरूपता है। तालिबान की ही तरह टीटीपी पाकिस्तान के सरहदी इलाक़ो में शरिया क़ानून नाफ़िज़ करना चाहती है। तालिबान के सत्ता में आने के बाद टीटीपी को और ताक़त मिल सकती है और वो अपनी गतिविधियों को बढ़ा सकती है।
प्रोफ़ेसर स्वर्ण सिंह कहते हैं, "अगर तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में एक रैडिकल अमीरात बना लेता है तो उसका टीटीपी पर क्या असर होगा, उनके बीच कैसा तालमेल होगा? क्या वे पाकिस्तान में ऐसा अमीरात बनाने के लिए टीटीपी को सहायता देने की कोशिश करेंगे? आग से खेलने के लिए हाथ तो जलाने की पड़ते हैं। चाहे तालिबान टीटीपी का समर्थन न भी करे लेकिन तालिबान की सफलता उसके सामने एक मिसाल तो है ही। वो अपने आप में टीटीपी के एक प्रेरणा होगी।"
ताहिर ख़ान कहते हैं कि पाकिस्तान तालिबान और अफ़ग़ान तालिबान की सोच और फ़्रिक्र एक ही है। टीटीपी का गठन 2007 में हुआ था। तभी से वे अफ़ग़ानिस्तान तालिबान के अमीर (लीडर) को अपना अमीर समझते हैं।
दोनों का नज़रिया एक होने का एक अर्थ ये भी है कि अगर टीटीपी पाकिस्तान में हिंसा के बाद बॉर्डर पार कर अफ़ग़ानिस्तान में जाते हैं तो तालिबान की सरकार शायद ही उनपर कोई कार्रवाई करे।
जब रिश्ता इतना घनिष्ठ हो तो पाकिस्तान के लिए चुनौती बरक़रार ही रहेगी। ये भी सच है कि देशों के बीच संबंधों में शायद कुछ स्थाई नहीं होता, अगर कुछ निश्चित होता है तो वो है स्वार्थ।
तालिबान का समर्थन और काबुल में उनकी सरकार, शायद पाकिस्तान का स्वार्थ था। अब पाकिस्तान के साथ बराबरी के रिश्ते, तालिबान की ख़्वाहिश है। भविष्य में दोनों के हितों में तालमेल बनाना ही एक कूटनीतिक चुनौती है।