पिछले हफ्ते भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने एक साहसिक कदम उठाते हुए प्रस्ताव रखा कि डोकलाम पर जारी गतिरोध पर बातचीत शुरू करने के लिए चीन, भारत और भूटान एक साथ अपनी सेनाएं पीछे हटाने की कोशिश कर सकते हैं। इससे पहले, अब तक भारत की ओर से बार-बार रखे गए बातचीत के प्रस्ताव को चीन ने अनसुना किया है। चीन लगातार इस शर्त पर ज़ोर दे रहा है कि बातचीत करने से पहले भारत को अपनी फ़ौज हटानी चाहिए।
इस बीच सीमा पर भारत और चीन के सैनिक 150 मीटर की दूरी पर एक-दूसरे के सामने खड़े हैं। इस दौरान चीन की फ़ौज युद्धाभ्यास कर रही है और चीन के सरकारी प्रवक्ता और मीडिया ख़ुद को एक साथ पीड़ित दिखाने और धौंस जमाने का खेल जारी रखे हुए हैं। चीन ने निश्चित रूप से यह उम्मीद नहीं की थी कि डोकलाम में भारत भूटान के पक्ष में खड़ा हो जाएगा।
चीन की बौखलाहट
चीन की बौखलाहट की वजह यह है कि भारतीय फ़ौज ने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के उन जवानों को जिसे कुछ दिन पहले चीन के रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता ने 'पहाड़ से भी अधिक मजबूत' बताया था, पीछे धकेल दिया है। चीनी सेना को पिछली लड़ाई का अनुभव वियतनाम के साथ 1979 का है जिसमें दोनों ही देशों ने अपनी-अपनी जीत का दावा किया था और चीन ने अपनी फ़ौज वापस बुला ली थी।
चीन का आरोप था कि वियतनाम ने कंबोडिया पर कब्ज़ा किया है। इसी मुद्दे पर चीन से वियतनाम पर हमला किया था, लेकिन वियतनाम की फ़ौज कंबोडिया में 1989 तक जमी रही। चीन ने ऐसा ही 1962 में भारत के साथ किया था और भारत पर जीत दर्ज करने का दावा किया था और बाद में चीन ने अपनी फ़ौज अपने आप वापस बुला ली थी।
भारत की फ़ौज ने अब तक की अपनी आख़िरी जंग 1999 में लड़ी है जिसमें उसे निर्याणक जीत हासिल हुई है और आज भारत की फ़ौज अमरीकियों को अधिक ऊंचाई वाले युद्ध क्षेत्र सियाचिन ग्लेशियर में युद्ध का अभ्यास करवाती है। इसलिए बहुत संभव है कि भारत और चीन दोनों ही देश सर्दियों से पहले गतिरोध समाप्त कर लेंगे और निश्चित तौर पर ऐसा लगता नहीं है कि दोनों में से कोई भी पक्ष वाकई जंग चाहता है।
टकराव की स्थिति
ऐसी परिस्थिति में भारत के लिए इस टकराव की स्थिति से बाहर आने की सबसे सही रणनीति क्या हो सकती है?
ख़ासकर तब जब चीन के राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व को अपने पड़ोसियों पर धौंस जमाने की आदत पड़ चुकी है। विदेश नीति को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अतिसक्रियता और अमेरिका और उसके सहयोगियों को लेकर भारत की बढ़ती नज़दीकी ने चीनी नेताओं की नींद ज़रूर उड़ा रखी है।
पिछले तीन सालों में भारत के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भी इज़ाफा हुआ है और यह 25 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुंच चुका है। इससे भी चीनी नेता परेशान हैं। इसके साथ-साथ इसी साल चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर अभी से घमासान मचा हुआ है। इस साल अक्टूबर या नवंबर में यहां की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी का 19वां अधिवेशन होने वाला है।
अधिवेशन में राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपने पांच साल के काम का लेखा-जोखा पेश करेंगे और पार्टी महासचिव के तौर पर दूसरे कार्यकाल के लिए अपनी दावेदारी पेश करेंगे। ऐसे में अपनी 19वीं पोलित ब्यूरो की स्टैंडिंग कमिटी में उन नामों को शामिल करेंगे जो 2023 के बाद पार्टी का नेतृत्व, चीन का मार्गदर्शन और शी जिनपिंग की विरासत को आगे बढ़ाएंगे।
शी जिनपिंग का दावा
पिछले हफ़्ते करिश्माई नेता सुन चंगसाए जो चुंगछिंग नगरपालिका के पार्टी सचिव थे, उन्हें अचानक बर्खास्त कर दिया गया। वो ना ही सिर्फ़ पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं, बल्कि वे पूर्व प्रधानमंत्री वेन ज़ियाबाओ के करीबी भी थे। उन्हें 2023 के बाद का प्रधानमंत्री का दावेदार भी समझा जा रहा था।
लेकिन उनकी बर्खास्तगी यह जतलाती है कि चीनी फ़ौज का डोकलाम में पीछे हटना शी जिनपिंग की मजबूत नेता की छवि को नुकसान पहुंचाने वाला हो सकता है और यह पार्टी के अंदर उनके विरोधी खेमों को उनके ख़िलाफ़ एक मौका दे सकता है। इसलिए डोकलाम में चीनी फ़ौज की तैनाती चीन की अंदरूनी नेतृत्व के बदलाव से भी जुड़ी हुई है।
यह बतलाता है कि क्यों भारत के बातचीत के प्रस्ताव पर चीन ने सकारात्मक रुख़ अपनाने की जगह अपने रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता और सरकारी अख़बार ग्लोबल टाइम्स के ज़रिए आग उगलना जारी रखा हुआ है। इस तरह की बयानबाजी से चीन अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है और इसे चीनी फ़ौज की खीझ की तरह देखा जा रहा है।
चीन की उलझन
भारतीय फ़ौज की ओर से उन्हें पीछे धकेले जाने के बाद वो शायद अपमानित महसूस कर रहे हैं। उन्हें पहले इस बात का यकीन नहीं था कि भारतीय फ़ौज भूटान के लिए सामने आएगी या फिर कम से कम चीन की फ़ौज के सामने इतनी देर तक खड़ी होने की हिम्मत करेगी।
दक्षिण चीन सागर में अपने विस्तारवादी रुख़ के कारण चीन की फ़ौज का मनोबल बढ़ा हुआ है। चीन के इस महत्वकांक्षा और मजबूरी के बीच अब भारत को कोई ऐसी तरकीब निकालनी होगी जो चीन को इस उलझन से बाहर निकाल पाए और भारत को अपनी सुरक्षा हितों से भी समझौता ना करना पड़े। चीन को निश्चित तौर पर अपने रुख में बदलाव लाने में अभी लंबा समय लगेगा। वो इस मुकाम पर अभी नहीं रुक सकते हैं।
भारत के मंत्रियों और अधिकारियों के पास अभी ब्रिक्स के बहाने चीन जाने के कई मौके हैं। इन मौकों का इस्तेमाल दोनों ही पक्ष आपस में बातचीत करने और एक समझ विकसित करने में कर सकते हैं। इन मौकों पर दोनों ही पक्षों पर मीडिया या फिर आम जन का सीमा गतिरोध को लेकर कोई दबाव नहीं होगा।
मुलाक़ातों का दौर
भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल इस हफ़्ते ब्रिक्स की बैठक के सिलसिले में चीन के दौरे पर होंगे। वहां यह उम्मीद है कि उनकी मुलाकात उनके समकक्ष यांग चिएच से हो। हालांकि सीमा पर तक़रार को लेकर कोई बातचीत शुरू होने की उम्मीद नहीं दिख रही है फिर भी इस मसले पर बातचीत तो होनी ही चाहिए।
दोनों की मुलाकात बीते नवंबर में हो चुकी है और अब सीमा विवाद पर विशेष प्रतिनिधियों की बातचीत की तैयारी पहले से हो रही है। इसका मतलब है कि दोनों के बीच आपसी समझ को बनाने को लेकर जल्दी ही दोबारा मुलाकात हो सकती है। इस साल सितंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ब्रिक्स को लेकर चीन यात्रा से पहले भारत के विदेश सचिव और विदेश मंत्री भी चीन जाएंगे और उन बैठकों में भी डोकलाम पर बात हो सकती है।
दोनों ही देश अपनी-अपनी स्थिति को बचाने के लिए ब्रिक्स सम्मेलन से पहले त्रिपक्षीय बातचीत की घोषणा भी कर सकते हैं। इस त्रिपक्षीय बातचीत में समय लगेगा और यह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के 19वें अधिवेशन के पूरा होने के बाद ही कुछ समाधान निकाल पाएगी।
रुख़ में बदलाव
हाल ही में चीन के विदेश मंत्री वांग यी की बैंकॉक में की गई टिप्पणी से साफ़ ज़ाहिर है कि चीन अब भारत को अपनी अंतरआत्मा की आवाज़ सुनाकर अपनी फ़ौजें पीछे हटाने की बात कर रहा है। यह उनके संप्रभुता को लेकर धमकी भरे दावे से अलग है और उन्होंने यह भी कहा कि भारत मान गया है कि चीन की फ़ौजें भारत की भूमि में नहीं घुसी है, जो की बेमतलब और बेमानी है।
चूंकि भारत ने तो ऐसा कुछ कहा ही नहीं। भारत तो केवल भूटान की संप्रभुता को बचाने के लिए उसकी सहमति के साथ चीन का सामना कर रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि इस साल 16 जून को चीन की सेना ने डोकलाम में सड़क बनाने की कोशिश की थी। इसे भूटान अपनी ज़मीन मानता है। इसलिए विदेश मंत्री वांग यी की टिप्पणी चीन के रुख में बदलाव का इशारा तो करती है लेकिन अभी भी आक्रमक रुख़ से जुड़ी नज़र आती है। इसका मतलब यह हुआ कि भारत की धैर्य और संयम की रणनीति प्रभावकारी रूप से असर कर रही है पर भारत को इस तरह के छोटे बदलावों पर भी पैनी नज़र रखनी पड़ेगी।