दादा साहब फालके पुरस्कार से लगभग हर भारतवासी परिचित है। यह फिल्म समारोह निदेशालय द्वारा प्रतिवर्ष फिल्मी दुनिया के ऐसे कलावंत को दिया जाता है जिसने सर्वाधिक 'लाइफटाइम कांट्रीब्यूशन टू इंडियन फिल्म इंडस्ट्री' किया हो। 1969 से स्थापित तथा 1970 में पहला अवॉर्ड फर्स्ट लेडी ऑफ इंडियन स्क्रीन देविकारानी को दिया गया था। दादा साहब फालके के बारे में विस्तार से जानना इसलिए जरूरी है कि वे पहले भारतीय हैं जिन्होंने भारत में फिल्म निर्माण एवं निर्देशन की नींव रखी और पहली कथा फिल्म राजा हरिश्चंद्र (1913) का निर्माण कर प्रदर्शन किया।
धुंडीराज गोविंद फालके यानी डीजी फालके का 30 अप्रैल 1870 को नासिक के पास त्र्यम्बकेश्वर गांव के ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ था। बचपन में घर पर ही उत्तीर्ण होने पर उन्हें बंबई के कला संस्थान जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्रवेश दिलाया गया। वहां उन्होंने छात्रवृत्ति मिलने पर एक कैमरा भी खरीद लिया।
फिल्म देख बैचेन हो गए दादा फालके लोकमान्य तिलक के विचारों से प्रभावित दादा फालके ने सरकारी नौकरी छोड़ दी। भागीदारी में प्रिंटिंग प्रेस का संचालन किया। सन् 1911 में क्रिसमस में बंबई के एक तम्बू सिनेमा में उन्होंने 'लाइफ ऑफ क्राइस्ट' नामक फिल्म देखी। फिल्म देखकर घर लौटे और सारी रात बेचैन रहे। दूसरे दिन अपनी पत्नी सरस्वती काकी के साथ वही फिल्म दोबारा देखी। लगातार अलग-अलग नजरिए से उन्होंने 10 दिन फिल्म देखकर मन में निश्चय किया कि भगवान श्रीकृष्ण के जीवन पर फिल्म बनाना चाहिए। यह बात अपनी पत्नी, रिश्तेदार तथा मित्रों को बताई। सबने फिल्म निर्माण की व्यावहारिक कठिनाइयां सामने रखीं। उभरकर सुझाव आया कि कृष्ण के जीवन में विस्तार तथा उतार-चढ़ाव अधिक हैं इसलिए किसी सरल कथानक पर फिल्म बनाना चाहिए। अंत में राजा हरिश्चंद्र का कथानक सबको पसंद आया।
दादा साहब के व्यापारी मित्र नाडकर्णी ने बाजार दर पर रुपए उधार देने की पेशकश की। 1 फरवरी 1912 को दादा साहब लंदन के लिए पानी के जहाज से रवाना हुए। वहां उनका कोई परिचित नहीं था। केवल 'बायस्कोप' पत्रिका के संपादक को इसलिए जानते थे कि उसकी पत्रिका नियमित मंगाकर पढ़ते थे। दादा फालके 'बायस्कोप' के संपादक कैबोर्ग से मिले। वह भला आदमी था। वह उन्हें स्टुडियो तथा सिनेमा उपकरण एवं केमिकल्स की दुकानों पर ले गया और फिल्म निर्माण का सारा सामान खरीदवा दिया। 1 अप्रैल 1912 को दादा बंबई लौट आए।
वेटर बना भारत की पहली हीरोइन 1912 में फिल्म निर्माण की कठिनाइयों की कल्पना भी आज समझ से परे है। पटकथा लेखन के बाद दादा फालके को तमाम कलाकार तो मिल गए, मगर महारानी तारामती का रोल करने के लिए कोई महिला तैयार नहीं हुई। हारकर दादा वेश्याओं के बाजार में उनके कोठे पर गए। हाथ जोड़कर उनसे तारामती रोल के लिए निवेदन किया।
वेश्याओं ने दादा को टका-सा जवाब दिया कि उनका पेशा, फिल्म में काम करने वाली बाई से ज्यादा बेहतर है। फिल्म में काम करना घटिया बात है। दादा निराश तथा हताश होकर लौट रहे थे। रास्ते में सड़क किनारे एक ढाबे में रुके और चाय का ऑर्डर दिया। जो वेटर चाय का गिलास लेकर आया, दादा ने देखा कि उसकी अंगुलियां बड़ी नाजुक हैं और चालढाल में थोड़ा जनानापन है।
दादा ने उससे पूछा- यहां कितनी तनख्वाह मिलती है? उसने जवाब दिया कि 5 रुपए महीना। दादा ने फिर कहा कि यदि तुम्हें 5 रुपए रोजाना मिले तो काम करोगे? उत्सुकता से वेटर ने तेजी से पूछा- क्या काम करना होगा? दादा ने सारी बात समझाई। इस तरह भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र की नायिका कोई महिला न होकर एक पुरुष थी। उसका नाम था अण्णा सालुंके।
सन् 1912 की बरसात के बाद बंबई के दादर इलाके में राजा हरिश्चंद्र की शूटिंग आरंभ हुई। सूरज की रोशनी में शूटिंग होती। शाम को पूरी यूनिट का खाना बनता। रात को किचन को डार्करूम में बदल दिया जाता। दादा और काकी सरस्वती देवी मिलकर फिल्म की डेवलपिंग-प्रिंटिंग का काम करते। 21 अप्रैल 1913 को बंबई के ओलिम्पिया सिनेमा में राजा हरिश्चंद्र का प्रथम प्रदर्शन मेहमानों के लिए किया गया। राजा हरिश्चंद्र लगातार 13 दिन चली, जो उस समय का रिकॉर्ड था।
इसके बाद दादा फालके ने नासिक में 1913 में कथा फिल्म 'मोहिनी-भस्मासुर' का निर्माण किया। इस फिल्म के लिए रंगमंच पर काम करने वाली अभिनेत्री कमलाबाई गोखले दादा साहब को मिल गईं। कमलाबाई हिन्दी फिल्मों की पहली महिला नायिका हैं।
1913 में ही दादा ने लघु फिल्म 'पीठा चे पंजे' भी बनाई थी, मगर दोनों फिल्मों को जनवरी 1914 में प्रदर्शित किया गया। इसके बाद द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू होने से फिल्म का कच्चा माल आने में बाधा आई और फिल्म का निर्माण ठप हो गया। सन् 1917 में हिन्दुस्तान फिल्म कंपनी के बैनर तले दादा फालके ने 'लंका दहन' फिल्म का निर्माण तथा प्रदर्शन किया।
इस सुपरहिट फिल्म से दादा साहेब देशभर में लोकप्रिय हो गए। 'लंका दहन' के प्रदर्शन से टिकट खिड़की पर इतनी आमदनी हुई कि सिक्कों को बोरों में भरकर बैलगाड़ी पर लादकर दादा के घर लाना पड़ता था।