जिस पाकिस्तानी डॉक्यूमेंट्री फिल्म "सेविंग फेस" को ऑस्कर अवॉर्ड मिला है, उसकी कथावस्तु एक बार पहले भी फिल्माई और दिखाई जा चुकी है। डिस्कवरी के विभिन्ना चैनलों पर इस फिल्म की ज्यादातर बातें कई बरसों से बराबर दिखाई जा रही हैं। फर्क यह है कि ये सब बातें डॉक्यूमेंट्री फिल्म में न होकर एक टीवी शो में हैं।
डिस्कवरी के जो शो देश-विदेश घूमने और वहाँ की अजब-गजब बातें दिखाने से संबंधित हैं, उन्हीं में से एक में कई बार दिखाया गया है कि पाकिस्तान में किस तरह महिलाओं पर तेजाब फेंका जाता है और वे महिलाएँ इसी चेहरे को लेकर जिंदगी भर किस तरह जीती हैं।
पाकिस्तानी अवॉर्ड विनिंग फिल्म में केवल ब्रिटिश डॉक्टर मोहम्मद जावाद का जिक्र है, जो ऐसी महिलाओं की प्लास्टिक सर्जरी कर रहे हैं, मगर डिस्कवरी पर बताया गया था कि कई संस्थाएँ कई तरह से मदद करती हैं, जिनमें एक तरीका मुफ्त प्लास्टिक सर्जरी का भी है।
इस फिल्म को शरमीन ओबेद चिनॉय के साथ गोरी चमड़ी वाले डेनियल जंग ने भी डायरेक्ट किया है। क्या यह नहीं समझा जाए कि फिल्म को एक गोरे ने भी डायरेक्ट किया है, इसलिए इसे आसानी से ऑस्कर मिल गया। क्या ये नहीं सोचा जाए कि ये फिल्म मुस्लिमों और तीसरी दुनिया के प्रति पश्चिमी जगत के पूर्वाग्रहों को पुष्ट करने वाली फिल्म है, सो इसे तो ऑस्कर मिलना ही था।
इसमें दो राय नहीं कि चेहरा बिगड़ जाने पर महिलाएँ किस तरह जीवन जीती हैं, इसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते। अधिकतर महिलाओं के लिए उनकी कल्पित सुंदरता ही उनके जीवन का आधार होती है। उसी पर उनके मान-अभिमान और स्वाभिमान का महल खड़ा होता है। अगर वो ही गिरा दिया जाए, तो महिला के पास क्या बचता है। हमारे देश में भी ऐसे आशिक हैं, जो ठुकरा दिए जाने पर लड़की के मुँह पर तेजाब फेंक देते हैं। पिछले दिनों एक कम मशहूर फिल्म अभिनेत्री और उसकी बहन तक के साथ ऐसा हुआ था।
ऐसी महिलाओं की पीड़ा को उजागर करना वाकई अच्छा काम है, मगर दिक्कत यह है कि इसे पहले ही उजागर किया जा चुका है। ऐसी फिल्म को क्यों अवॉर्ड मिलना चाहिए, जिसका आइडिया कहीं से चुराया गया हो? संभव है अवॉर्ड देने वालों की जानकारी में उक्त टीवी शो नहीं रहा हो। हमारे यहाँ तेजाब फेंकने की घटनाएँ पाकिस्तान जितनी भले न होती हों, पर अब भी खूब होती हैं। उससे भी बढ़कर हमारे यहाँ कन्या भ्रूण हत्या हो रही है। लिंग अनुपात में बहुत अंतर पैदा हो रहा है।
इस विषय पर कुछ सेकंड्स की शॉर्ट फिल्म शाजापुर के वर्धमान सक्सेना ने बनाई थी और जी टीवी द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में लाख रुपए भी जीते थे। मगर इस बढ़िया डायरेक्टर को बाद में कोई मौका नहीं मिला। वो छोटी-सी फिल्म भी जी टीवी के पास ही रखी होगी। उसका भी कायदे से कोई प्रदर्शन नहीं किया गया।
एक बढ़िया फिल्म हमारे यहाँ के "परिचय सम्मेलनों" पर बन सकती है, जिनमें हर बार लड़के ज्यादा होते हैं और लड़कियाँ कम। कोई-सी भी बिरादरी क्यों न हो, हर जगह कथा यही है। इस विषय पर शायद अब तक कोई डॉक्यूमेंट्री बनी भी नहीं है। वैसे ऑस्कर समारोह में इस बार भी भारतीय फिल्म ठुकरा दी गई। हमारी मलयाली फिल्म "अबू सन ऑफ एडम" में बताया गया है कि किस तरह एक गरीब मुसलमान हज पर जाने के लिए रुपए इकट्ठे करता है। मगर शायद एक ईमानदार और सच्चे मुस्लिम में उनकी दिलचस्पी नहीं है। उनकी दिलचस्पी है बम और तेजाब फेंकने वाले मुस्लिमों में।